Here is an essay on ‘Financial Management’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Financial Management’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay on Financial Management


Essay Contents:

  1. वित्तीय प्रबन्ध का आशय और परिभाषा (Meaning and Definition of Financial Management)
  2. वित्तीय प्रबन्ध से सम्बन्धित परम्परागत एवं आधुनिक विचारधारा (The Traditional Approach and the Modern Approach of Financial Management)
  3. वित्तीय प्रबन्ध: प्रकृति एवं क्षेत्र (Financial Management: Nature and Scope)
  4. वित्तीय प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताएँ (Characteristics of Modern Financial Management)
  5. वित्तीय प्रबंध के उद्देश्य अथवा लक्ष्य (Goals or Objectives of Financial Management)
  6. वित्तीय प्रबन्ध के अध्ययन की उपयोगिता (Utility of the Study of Financial Management)
  7. वित्तीय प्रबन्ध की सीमाएं (Limitations of Financial Management)


Essay # 1. वित्तीय प्रबन्ध का आशय और परिभाषा  (Meaning and Definition of Financial Management):

वित्तीय प्रबन्ध का सम्बन्ध उन संगठनों की वित्त व्यवस्थाओं से है, जो लाभोपार्जन के उद्देश्य से संचालित की जाती है । व्यापक अर्थ में वित्तीय प्रबन्ध शब्दों का समूह है- ‘वित्तीय’ और ‘प्रबन्ध’ ।

वित्तीय का आशय वित्त सम्बन्धी है, और प्रबन्ध का आशय किसी कार्य की कुशल सर्वोत्तम व्यवस्था करना है । अत: वित्तीय प्रबन्ध का सामूहिक आशय किसी व्यावसायिक उपक्रम की वित्त सम्बन्धी कुशल व्यवस्था करना है ।

वर्तमान में कम्पनियों और निगमों की स्थापना तथा उनमें होने वाली कडी प्रतिस्पर्द्धा ने साधनों के अनुकूलतम उपयोग की ओर प्रबन्धकों का ध्यान आकर्षित किया । अत: वित्तीय प्रबन्ध व्यापक रूप में व्यावसाय में प्रयुक्त कोषों के आयोजन, एकगण, नियन्त्रण एवं प्रशासन से जुड गया है, तथा व्यावसायिक उपक्रमों की सफलता की कुंजी बन गया है ।

वित्तीय प्रबन्ध की परिभाषा:

श्रीयुत जे. एफ. ब्रेडले के अनुसार ”वित्तीय प्रबन्ध, व्यावसायिक प्रबन्ध का वह क्षेत्र है, जिसका सम्बन्ध पूँजी का सम्यक् प्रयोग एवं पूँजी के साधनों के सतर्कतापूर्ण चयन से है; ताकि व्यवसाय को इसके उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में किया जा सके ।”

आधुनिक परिप्रेक्षय में वित्तीय प्रबन्ध एक वैज्ञानिक स्वरूप की जानकारी नितान्त आवश्यक हो गयी है क्योंकि ”व्यावसायिक वित्त का प्रबन्ध एक कला होने के साथ-साथ एक विज्ञान भी है । इसके लिए परिस्थिति की सही पकड एवं विश्लेषणात्मक दक्षता की तो आवश्यकता होती ही है, साथ ही वित्तीय विश्लेषण की विधियों और तकनीकों के प्रचुर ज्ञान तथा उनके व्यावहारिक उपयोग एवं प्राप्त परिणामों की सही समीक्षा करने की भी अपेक्षा होती है।”

श्री इजरा सोलोमन ने इस निम्न शब्दो में व्यक्त किया है- “वित्तीय प्रबन्ध को कोषों की व्यवस्था करने से सम्बन्धित एक स्टाफ गनिविधि के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए अपितु समग्र-प्रबन्ध (Overall Management) के एक अभिन्न अंग के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए ।”


Essay # 2. वित्तीय प्रबन्ध से सम्बन्धित परम्परागत एवं आधुनिक विचारधारा (The Traditional Approach and the Modern Approach of Financial Management):

i. परम्परागत विचारधारा (Traditional Approach):

परम्परागत विचारधारा (Traditional Approach) के अन्तर्गत विषय का अध्ययन प्रमुख रूप से कोषों की व्यवस्था (Procurement of Funds) करने तथा समय-समय पर आवश्यकतानुसार कतिपय अन्य कार्यों को सम्पन्न करने तक ही सीमित था, जिसमें पूँजी प्राप्ति के साधनों (Instruments), संस्थागत स्रोतों (Institutions) तथा प्रचलित व्यवहारों (Current Practices) को अधिक प्रमुखता प्रदान की जाती थी ।

अत: इसके अन्तर्गत ऐसे प्रकरणों का अध्ययन किया जाता था जिनका सम्बन्ध दैनिक व्यवसाय संचालन से न होकर यदाकदा उत्पन्न होने वाली कतिपय समस्याओं से होता था, जैसे-कम्पनी प्रवर्तक, प्रतिभूतियाँ, पूँजी, बाजार, पुर्नसंगठन, एकीकरण, संविलयन आदि ।

यह समस्त अध्ययन निवेशक के दृष्टिकोण (Investor’s Point of View) का परिचायक था, जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि वित्तीय प्रबन्ध का प्रयोजन आन्तरिक प्रबन्ध से न होकर बाहरी व्यक्तियों (पूँजी लगाने वाले व्यक्तियों, बैकरों, वित्तीय संस्थाओं) के मार्गदर्शन के लिए अधिक था ।

ii. आधुनिक विचारधारा (Modern Approach):

अब इस दृष्टिकोण में मूलभूत परिवर्तन हो चुका है । आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्ध, व्यावसायिक प्रबन्ध का एक अभिन्न अंग बन गया है, जिसका सम्बन्ध व्यवसाय के आन्तरिक संचालन से अधिक है ।

विषय के वर्णनात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान देने के स्थान पर अब इसके विश्लेषणात्मक पक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाता है । विचारधारा में परिवर्तन एवं विषय-वस्तु के विस्तार के लिए अनेक कारण उत्तरदायी रहे हैं ।

वर्तमान शताब्दी के मध्य के पश्चात (विशेषत द्रितीय विश्वयुद्ध के बाद से) व्यावसायिक फर्मों के आकार में पर्याप्त वृद्धि हुई है । विशाल निगमों की स्थापना तथा उनमें होने वाली कडी प्रतिस्पर्द्धा ने साधनों के अनुकूलतम उपयोग (Optimum Utilization) की ओर प्रबन्धकों का ध्यान आकर्षित किया ।

अत: वित्तीय नियोजन, नियन्त्रण तथा कार्य-निष्पादन की नवीन विधियों एवं तकनीकों का विकास हुआ जिन्होंने व्यावसायिक वित्त को नये आयाम प्रदान किये, जिनका सम्बन्ध कोषों के प्रभावपूर्ण एवं कुशलतापूर्ण उपयोग से है । अति आधुनिक रूप में वित्त का कार्य उच्च स्तर पर नीति-निर्धारण एवं प्रबन्धकीय निश्चयीरण से अधिक जुड़ गया ।

इसके अन्तर्गत कोषों के अनुकूलतम उपयोग (Optimal Use) की दशा में विवेकपूर्ण निर्णय लिये जा सकते हैं । इस सन्दर्भ में दीर्घकालीन वित्तीय सफलता के मापदण्डों का निर्धारण, पूँजी की लागत तथा कार्यशील पूँजी के प्रबन्ध आदि इस विषय के प्रमुख अंग बन चुके हैं ।

परम्परागत एवं आधुनिक विचारधाराओं में अन्तर (Difference between Traditional & Modern Approaches):

इन दोनों विचारधाराओं में अन्तर स्पष्ट करने समय निम्नांकित बिन्दुओं को ध्यान में रखना आवश्यक है:

(1) परम्परागत विचारधारा वरणात्मक (Descriptive) तथा संकुचित (Narrow) थी, जबकि आधुनिक विचारधारा विश्लेषणात्मक (Analytical) एवं अधिक व्यापक (Wider) है ।

(2) परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्ध एक यत्रतंत्रिक (Sporadic) कार्य था, जबकि आधुनिक विचारधारा के अनुसार यह अनवरत (Continuous) तथा नियमित (Regular) कार्य है ।

(3) निश्चयीकरण की प्रक्रिया में पहले इस क्षेत्र की संक्रिय भूमिका (Active Role) नहीं थी, जबकि अब वित्तीय प्रबन्ध के श्रोत्र को महत्वपूर्ण भूमिका (Key Role) प्राप्त है । इसलिए अब यह एक प्रासंगिक कार्य न रहकर एक प्रशासनिक कार्य (Administrative Function) बन चुका है ।

(4) पहले कोषों की उपलब्धि (Procurement of Funds) पर अधिक ध्यान दिया जाता था, जबकि अब उसके साथ-साथ कोषों के सम्यक् उपयोग (Judicious Use of Funds) पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता है ।

(5) पहले प्रबन्धकीय निर्णयन के आधार अन्तरप्रेरणा (Intuition) तथा अनुभव (Experience) थे, किन्तु अब निश्चयीकरण के लिए वैज्ञानिक विश्लेषण (Scientific Analysis) की आधुनिक प्रविधियों (Modern Techniques) का प्रयोग किया जाता है ।

(6) परम्परागत दृष्टिकोण इस बात पर अधिक ध्यान देता था कि, बाहरी व्यक्ति आन्तरिक प्रबन्ध को किस नजरिये से देखते हैं (Outsider Looking in Approach), जबकि आधुनिक विचारधारा इस बात पर बल देत है कि, आन्तरिक प्रबन्ध बाहरी दशाओं के परिप्रेक्ष्य में किस प्रकार अपनी वित्तीय नीतियों के निर्धारण एवं वित्तीय-प्रशासन का कार्य सम्पन्न करता है (Insider Looking Approach) ।

(7) परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत वित्त के दीर्घकालीन कोषों के प्रबन्ध पर अधिक बल दिया जाता था, जबकि अब कार्यशील पूँजी के प्रबन्ध एवं अल्पकालीन कोषों के प्रबन्ध के साथ-साथ वित्तीय प्रबन्ध के अनेक नवीन आयामों भी उतना ही ध्यान दिया जाता है, जैसे-पूँजी की लागत, पूँजी बजटिंग आदि ।


Essay # 3. वित्तीय प्रबन्ध: प्रकृति एवं क्षेत्र (Financial Management : Nature and Scope):

(i) समग्र प्रबन्ध का महत्वपूर्ण अंग (Prominent Area of Overall Management):

यही यह उल्लेखनीय है कि वित्तीय प्रबन्ध के अन्तर्गत सम्मिलित किये जाने वाले कार्यों को सम्पन्न करना वित्त विभाग का कोई अनन्य-क्षेत्राधिकार (Exclusive Jurisdiction) नहीं होता है, बल्कि इन समस्त दायित्वों का निर्वाह व्यवसाय के अन्य सभी श्रेत्रों (Areas) के संक्रिय सहयोग से किया जाता है क्योंकि सभी महत्वपूर्ण निर्णय (चाहे वे किसी भी श्रेत्र से सम्बद्ध हो) प्रबन्धकों द्वारा प्रबन्ध के उच्च स्तर लिये जाते है । व्यावसायिक निश्चयीकरण की इस प्रक्रिया में प्रत्येक क्षेत्र सम्बन्धित तथ्यों एवं आँकडों के प्रस्तुतीकरण एवं उचित परामर्श के द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका तो अदा करता ही है साथ ही इन महत्वपूर्ण निर्णयों के क्रियान्वयन में भी प्रत्येक विभाग का कुछ सीमा तक एवं कुछ सीमा तक सम्मिलित दायित्व होता है ।

चूँकि वित्त व्यवसाय के विभिन्न क्रियाकलापों को एक सूत्र में आबद्ध करना है, अत: वित्तीय प्रबन्ध विभाग का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction) अन्य विभाग की तुलना में कुछ अधिक व्यापक होना है । उदाहरण के लिए, उत्पादन के लिए आवश्यक मशीनों, संयन्त्रों, उपकरणों, कच्चे माल, ईधन आदि के विषय में तकनीकी दृष्ट्रि से विचार करने का दायित्व उत्पादन प्रबन्धक का होना है ।

किन्तु इनके विषय में अंतिम निर्णय तब तक नहीं लिये जायेगे जब तक कि इनसे सम्बद्ध वित्तीय पहलुओं वित्तीय प्रबन्धक अपना उचित परामर्श नहीं दे देना है व्यवसाय के पूर्वनिर्धारिन उद्देश्यों की उपलब्धि का श्रेय यद्यपि सभी विभागों को समान रूप से दिया जाना चाहिए किन्तु जहाँ तक निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समस्त विभागों को नियन्त्रित एवं निर्देशित करने का प्रश्न है, वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्राधिकार कुछ अधिक व्यापक हो जाता है ।

(ii) निर्णायक भूमिका (Key Role):

व्यवसाय में आये दिन प्रबन्धक को महत्वपूर्ण निर्णय लेने होते हैं । आज के प्रतियोगितात्मक युग में प्रत्येक निर्णय को अन्तिम रूप देने से पहले उसके वित्तीय पक्ष की जाँच-परख करना अनिवार्य हो गया है ।

निर्णय व्यवसाय के चाहे किसी भी क्षेत्र से सम्बद्ध क्यों न हो वित्तीय प्रबन्धक की परामर्श की अवहेलना करके उसे क्रियान्विन करना फर्म में जोखिम (Risk) की सीमा में वृद्धि कर सकता है यह पहले ही कहा जा चुका है कि वित्त क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण दायित्व नियोजन समन्वय तथा नियन्त्रण करना है । वित्त क्षेत्र की यह विशेषता इसकी भूमिका को विशेष महत्व प्रदान करती हैं ।

(iii) वित्तीय निर्णय एवं फर्म का मूल्य (Financial Decisions and Value of the Firm):

निरन्तर बदलते हुए परिवेश में प्रत्येक व्यवसाय द्वारा वित्तीय निर्णय इस प्रकार से लिये जाने चाहिए जिससे व्यवसाय के मूल्य में निरन्तर वृद्धि होती रहे ।

वित्तीय-निर्णय तीन प्रकार के होने है:

(1) विनियोग निर्णय (Investment Decision)

(2) वित्त-पूर्ण निर्णय (Financing Decision)

(3) लाभांश-निर्णय (Dividend Decision) ।

ये तीनों प्रकार क निर्णय परस्पर एक-दूसरे को प्रभाविन ही नही करने अपिन्र सब मिलकर फर्म के मूल्य को भी प्रभावित करने है । अत: तीनो प्रकार के निर्णयों की दक्षता पर ही कम्पनी की भावी प्रगति तथा समृद्धि निर्भर होती है ।

(iv) केन्द्रीयकृत प्रकृति का लाभ (Benefit of Centralized Nature):

वित्त ही वह साधन है जो संगठन में पूर्ण समन्वय एवं सम्प्रेषण की स्थिति स्थापित करना है और इस प्रकार संगठन के विभिन्न विभागों को एक सूत्र में बांधकर उन्हे सम्पूर्ण संगठन के सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करता है ।

कदाचित इसी कारण वित्तीय प्रबन्ध को व्यावसायिक प्रबन्ध का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना जाना है । वित्तीय प्रबन्ध की यह केंद्रीयकृत प्रकृति (Centralized Nature) ही प्रबंध के इस क्षेत्र को उच्चस्तरीय दर्जा प्रदान करती है तथा इस प्रबन्धकीय नियोजन एवं नियन्त्रण का एक साधन बना देती है ।

वित्तीय नीति-निर्धारण एवं निश्चयीकरण का दायित्व संगठन के विभागों अथवा उपविभागों को नहीं सौपा जा सकता है क्योंकि ऐसा विकेन्द्रीकरण व्यवसाय के मूल उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक न होकर बाधक ही सिद्ध हो सकता है । अत: प्रत्येक विभाग में वित्त से सम्बद्ध कतिपय नाड़ी केन्द्रो (Nerve Centres) की स्थापना करना अत्यन्त आवश्यक है जहाँ से आवश्यक तथ्यों एवं आँकड़ों का प्रेषण उच्चस्तरीय प्रबन्ध केन्द्र को निरन्तर होता रहे ।

(v) विशिष्टीकृत क्षेत्र (Specialised Area):

प्रत्येक प्रबन्धकीय निर्णय के लिए चूंकि वित्तीय व्याख्या एवं विश्लेषण की अपेक्षा होनी है, अत: वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्र व्यावसायिक प्रबन्ध का सर्वोपरि महत्व का विशिष्टीकृत (Specialsed) क्षेत्र बन गया है ।


Essay # 4. वित्तीय प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताएँ (Characteristics of Modern Financial Management):

a. निश्चयीकरण का केन्द्र-बिन्दु (Focal Point of Decision-Making):

व्यावसायिक प्रबन्ध के एक अति महत्वपूर्ण स्तम्भ के रूप में वित्तीय प्रबन्ध (Financial Management) आज अत्यन्त परिपक्व स्वरूप प्राप्त कर चुका है, एक ऐसा स्वरूप जो वर्णनात्मक (Descriptive) कम तथा विश्लेषणात्मक (Analytical) अधिक है ।

अब प्रशासनिक निर्णय मोटे अनुमानों पर आधारित नहीं होते हैं । सांख्यिकीय विश्लेषण से सम्बद्ध ऐसे अनेक सूत्र अब वित्तीय विश्लेषण के लिए उपयोगी होते हैं, जिनके द्वारा प्रबन्धक किन्हीं प्रस्तुत आन्तरिक एवं बाह्य परिस्थितियों के सन्दर्भ में अनेक उपलब्ध विकल्पों में से सर्वोतम विकल्प का चयन करता है, तथा उच्च स्तर पर प्रबन्धकों द्वारा उचित निर्णय लेने की प्रक्रिया में सहायता प्रदान करता है ।

b. सतत् प्रशासनिक कार्य (Continuous Administrative Function):

परम्परागत रूप में व्यवसाय में वित्तीय प्रबन्ध एक यत्रतंत्रिक (Sporadic) कार्य था । आधुनिक अर्थ में वित्तीय प्रबन्ध का कार्य एक सतत् प्रशासनिक प्रक्रिया है, क्योंकि व्यवसाय के सफल संचालन के लिए कोषों के लाभपूर्ण एवं सम्यक् उपयोग का दायित्व भी अब इस क्षेत्र की परिधि में आता है । यही कारण है कि अब वित्तीय प्रबन्धक की निर्णायक भूमिका (Key Role) के महत्त्व को प्रत्येक व्यावसायिक संगठन में मान्यता दी जान लगी है ।

c. कार्य निष्पत्ति का मापक (Measure of Performance):

वित्त व्यवसाय का साधन ही नहीं, साध्य भी है । वित्तीय परिणामों के आधार पर ही व्यवसाय की कार्य-निष्पत्ति का मूल्यांकन किया जाता है । “वित्तीय-निर्णय आय की मात्रा तथा व्यावसायिक जोखिम इन दोनों को प्रभावित करते हैं । दूसरे शब्दो में, नीति विषयक निर्णय जोखिम एवं लाभदायकता पर प्रभाव डालते है, तथा ये दोनों कारक सम्मिलित रूप में फर्म के मूल्य को निर्धारित करते हैं ।”

न जोखिम के बिना व्यवसाय संचालित हो सकता है और न लाभदायकता के बिना व्यवसाय संचालन की कोई सार्थकता प्रतीत होती है । अतः वित्त का कार्य इन दोनों परस्पर विरोधी कारकों में सन्तुलन स्थापित रखते हुए फर्म के मूल्यांकन के स्तर को यथासम्भव उच्च से उच्चतर बिन्दु पर बनाये रखना होता है ।

d. व्यावसायिक समन्वय (Business Co-Ordination):

वस्तुत वित्त ही वह साधन है जो व्यावसायिक गतिविधियों को एक सूत्र में बांधता है । व्यवसाय के विभिन्न क्रियाकलापों के समन्विन संचालन का कार्य बजटरी नियन्त्रण (Budgetary Control) के द्वारा सम्पन्न किया जाता है, जिसके अन्तर्गत विभिन्न कार्यों एवं उत्पादन प्रक्रियाओं के लिए अपेक्षित समय एवं लागतों के प्रमाप (Standard) निर्धारित किये जाते हैं ।

इस प्रकार उपलब्ध साधन का अनुकूलतम आबंटन (Optimum Allocation) एवं उनका अधिकतम उपयोग (Maximum Utilisation) पूर्व नियोजित लाभ के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सम्भव हो पाता है ।

e. केन्द्रीय प्रकृति (Centralised Nature):

व्यावसायिक प्रबन्ध के समस्त क्षेत्रों (Areas) में वित्तीय प्रबन्ध ही एक ऐसा श्रेत्र है, जिसकी प्रकृति मूलत: केन्द्रीयकृत है । आधुनिक औधोगिक उपक्रम में विपणन एवं उत्पादन के कार्यों का विकेन्द्रीकरण तो सम्भव है किन्तु वित्त कार्य का विकेन्द्रीकरण व्यावहारिक दृष्टि से वांछनीय नहीं होता है, क्योंकि वित्तीय समन्वय एवं नियन्त्रण की स्थिति केन्द्रीयकरण के द्वारा ही स्थापित की जा सकती है ।

इस स्थिति किए बिना व्यवसाय के उद्देश्यों की पूर्ति सम्भव नहीं होगी । यही कारण है कि व्यवसाय में वित्त की तुलना मानव शरीर के हृदय संस्थान से की जाती है, जिसकी मूल प्रकृति ही केन्द्रीयकृत है, और जो शरीर के विभिन्न अवयवों में फेले स्नायु तन्त्रों के द्वारा शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों में समन्वय एवं नियन्त्रण स्थापित करता है ।


Essay # 5. वित्तीय प्रबंध के उद्देश्य अथवा लक्ष्य (Goals or Objectives of Financial Management):

वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य व्यावसायिक प्रबन्ध के सामान्य उद्देश्य से भिन्न न होकर उसका पूरक होता है अर्थात् प्रत्येक व्यावसायिक इकाई लाभोपार्जन के लिए संचालित की जाती है ।

कुछ विद्वानों के अनुसार यह उद्देश्य अधिकतम लाभोपार्जन (Maximisation of Profit) होना चाहिए, ताकि स्वामियों द्वारा निवेशिन पूँजी अधिकतम लाभांश दिया जा सके, किन्तु आधुनिक विचारधारा ‘उच्चतम लाभ’ के स्थान पर ‘उचित लाभ’ के सिद्धान्त को अधिक मान्यता देती है क्योकि अशधारियों के अतिरिक्त निगम को अन्य सभी पक्षों के हितों को भी ध्यान में रखना होता है, जैसे-कर्मचारी, ऋणदाता, उपभोक्ता आदि ।

इसके विपरीत कुछ अन्य विद्वानों का मत यह है कि वित्तीय प्रबन्ध का मूल उद्देश्य अधिकतम लाभोपार्जन के स्थान सम्पत्ति के मूल्य में अधिकतम वृद्धि (Maximisation of Wealth) होना चाहिए ।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि व्यवसाय संचालन का आधारभूत उद्देश्य कम्पनियों के स्वामियों के आर्थिक हितों (Economic Welfare) में अधिकतम वृद्धि होना चाहिए ।

कम्पनी के सन्दर्भ में इसका अर्थ यह हुआ कि प्रबन्धकों को वित्त-पूर्ति, पूँजी निवेश एवं लाभांश-विनरण सम्बन्धी निर्णय लेते समय सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि उनके निर्णयों का कंपनी के अंशो के बाजार मूल्यों अनुकूल प्रभाव पडे, ताकि अंशधारियों द्वारा अंशों में किये गये पूँजी निवेश का मूल्य बढता रहे ।

निम्न पंक्तियों में इन दोनों ही उद्देश्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है:

(i) अधिकतम लाभोपार्जन (Maximisation of Profits):

किसी व्यावसायिक उपक्रम का मूल उद्देश्य उसके स्वामियों का अधिकतम हित साधन (Maximisation of Profit) माना जाता है । इसके लिए अब तक अधिकतम लभोपार्जन (Maximization of Profits) को व्यवसाय संचालन का प्रमुख उद्देश्य माना जाता रहा है ।

जिसके पक्ष में निम्नलिखिन तर्कों को प्रस्तुत किया जाता है:

(1) लाभ एक प्रमुख प्रेरणा (Prime Motive) है जिसका आकर्षण अधिकाधिक उत्तम एवं कुशल कार्य निष्पत्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है । लाभ के वशीभूत होकर ही व्यक्ति एवं व्यक्तियों के समूह कठोर परिश्रम एवं कड़ी प्रतिस्पर्द्धा करके एक-दूसरे से अधिक कुशल एवं उपयोगी बनने का प्रयास करते है ।

(2) लाभ वित्तीय प्रबन्ध की कुशलता की एक सामान्य कसौटी है जिसके आधार उपक्रम के प्रबन्ध की सफलता अथवा असफलता को परखा जा सकता है ।

(3) समस्त व्यावसायिक निर्णय लाभोपार्जन के लक्ष्यों को दृष्टिगत रखकर ही किये जाते है अत: यह निर्णय प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण प्रमाप बन गया है ।

(4) उपलब्ध दुर्लभ साधनों का कुशल आबटन (Efficient Allocation) तथा विवेकपूर्ण उपयोग (Rational Utilisation) लाभ के आधार ही किया जाता है ।

(5) किसी भी समाज में यदि इस प्रेरणा अथवा आकर्षण को समाप्त कर दिया जाय तो पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा एवं प्रतियोगिता का कोई स्थान नही रह जायेगा और यह हो सकता है कि ऐसे समाज में विकास एवं प्रगति की गति कम हो जाय ।

अत: साधनों का लाभदायक उपयोग एवं वस्तुओं तथा सेवाओं की उपयोगिता में अधिकाधिक वृद्धि ही किसी समाज में आर्थिक गतिविधियों अथवा व्यावसायिक कार्य-कलापों के उद्देश्य हो सकते है ।

अधिकतम लाभोपार्जन की आलोचना (Critricism of Profit Maximization Criterion):

इधर कुछ वर्षों से व्यवसाय के मूल उद्देश्य के रूप में अधिकतम लाभोपार्जन के सिद्धान्त की पर्याप्त आलोचना की गयी है जो मुख्यत निम्न तर्कों पर आधारित है:

(i) यह सिद्धान्त प्रतियोगिता की दशा में ही व्यवसाय का एक उत्तम उद्देश्य हो सकता है । आधुनिक युग में प्राय सभी बाजारों में अपूर्ण प्रतियोगिता (Imperfect Competition) ही दिखलायी देती है ।

(ii) स्वामित्व एवं प्रबन्ध में पृथक्करण (Divorce between Ownership and Management) के कारण अब कम्पनियों एवं निगमों का प्रबन्ध पेशेवर प्रबन्धकों (Professional Managers) के द्वारा किया जाना है जो अनेक परस्पर विरोधी हितों में उचित सामजस्य रखकर ही व्यवसाय को लाभदायक स्थिति में रखने में सफल हो सकते है ऐसी स्थिति में अधिकतम लाभ का विचार गौण हो जाना है ।

(iii) लाभ एक अस्पष्ट (Vague) विचार है और इसके अनेक स्वरूप हो सकते है, जैसे-सकल लाभ (Gross Profit), ब्याज एवं कर घटाने से पूर्व लाभ (Earning Before Interest and Taxes), कर सहित लाभ (Profits Before Tax) तथा कर रहित लाभ (Profits after Tax) आदि ।

(iv) अधिकतम लाभ का सिद्धान्त अव्यावहारिक (Unrealistic) है । इस मापदण्ड के अन्तर्गत प्राय अनेक वर्षों की आय का औसत निकालकर फिर पूँजी विनियोग प्रत्याय की दर (Return on Capital Investment) जाती है ।

इस प्रकार यह विधि आय के समय-मूल्य (Time Value of Earnings) को कोई मान्यता नहीं देती है । आज प्राप्त हाने वाले एक रुपये का वर्तमान मूल्य उस एक रुपये के वर्तमान मूल्य से निश्चित रूप से अधिक होगा जो एक या दो वर्ष बाद प्राप्त होगा । इसी प्रकार भावी वर्षों में प्राप्त होने वाली आय के स्वरूप में निश्चितता (Certainty) अथवा अनिश्चितता (Uncertainty) का अंश अधिक या कम मात्रा में हो सकता है ।

इस प्रकार अधिकतम लाभोपार्जन का सिद्धान्त अब पुराना विचार (Old Concept) हो गया है । एकाकी व्यापार एवं साझेदारियों के युग में फिर भी इस सिद्धात का कुछ महत्व था क्योंकि उस समय व्यक्तियों द्वारा अधिकाशत अपनी निजी पूँजी एवं सम्पत्ति का विनियोग व्यवसाय में किया जाता था ।

(ii) सम्पत्ति के मूल्य में अधिकतम वृद्धि (Maximisation of Wealth):

आधिकतम लाभ के स्थान पर अब सम्पत्ति के मूल्य में अधिकतम वृद्धि के सिद्धान्त को व्यवसाय के मूल उद्देश्य के रूप में मान्यता प्रदान की जाती है इसका अर्थ यह हुआ कि व्यवसाय का संचालन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे व्यवसाय के स्वामियों को फर्म के मूल्य (Value of Firm) अथवा सम्पत्ति के मूल्य में अधिकतम वृद्धि (Maximisation of Wealth) प्राप्त हो सके ।

“व्यावहारिक उपयोग के लिए निश्चयीकरण के मापदण्ड के रूप में अधिकतम लाभ के सिद्धान्त की तीन प्रमुख कमियाँ है यह जोखिम (Risk) ध्यान नहीं देना यह द्रव्य के समय-मूल्य (Time Value of Money) ध्यान नहीं देता तथा साथ ही यह अस्पष्ट (Ambiguous) है । इन्ही कारणों से वित्तीय प्रबन्ध के निर्णयन के मापदंड के रूप में अब अधिकतम लाभ के उद्देश्य का स्थान सम्पत्ति में अधिकतम वृद्धि के उद्देश्य ने ले लिया है ।”

सम्पत्ति में अधिकतम वृद्धि (Wealth Maximisation) का उद्देश्य लाभ में अधिकतम वृद्धि (Profit Maximisation) के उद्देश्य से अधिक उत्तम माना गया है ।

इसके तीन प्रमुख कारण है जो निन्नलिखित है:

(1) यह रुपये के समय-मूल्य (Time Value of Money) को मान्यता देना है । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि विभिन्न वर्षों में प्राप्त होने वाले नकद-प्रवाहो (Cash Flows) को समान-भार (Equal Weightage) नही दिया जाना है जैसा कि अधिकतम लाभ के उद्देश्य के अन्तर्गत किया जाता है । निश्चय ही सुदूर भविष्य में प्राप्त होने वाले एक रूपये की तुलना में निकट भविष्य में प्राप्त होने वाले एक रुपये का वर्तमान मूल्य अधिक होना है ।

(2) पूँजी निवेश की दीर्घकालीन योजनाओं में निहित जोखिम (Risk) तथा अनिश्चितता (Uncertainity) को दृष्टिगत रखते हुए इसके अन्तर्गत भविष्य में प्राप्त होने वाले नकद-प्रवाहो (Cash Flows) की उपयुक्त दर से कटौती करके उनके वर्तमान मूल्य ही विचार किया जाता है ।

(3) यह इक्विटी अंशधारियों या स्वामियों की इस अपेक्षा पर खरा उतरता है कि उन्हे उनकी विनियोजित पूँजी पर पर्याप्त दर से लाभांश के साथसाथ उनके अंशों के बाज़ार मूल्य में वृद्धि के रूप में पूँजी आभिवृद्धि (Capital Appreciation) का लाभ भी उन्हें निरन्तर प्राप्त होता रहे ।


Essay # 6. वित्तीय प्रबन्ध के अध्ययन की उपयोगिता (Utility of the Study of Financial Management):

वित्तीय प्रबन्ध वेद विभिन्न वर्गों या पक्षों के लिए वित्तीय प्रबन्ध की उपयोगिता निम्नलिखिन है:

(1) व्यावसायिक प्रबन्धक (Business Manager):

निगमों में जनक के विभिन्न वर्गों की पूँजी का विनियोग किया जाता है जिसकी सुरक्षा का भार प्रबन्धकों पर ही होता है । प्रबन्धकों को यह भी ध्यान रखना होता है कि विनियोजित पूँजी की मात्रा पर नियमित रूप में उचित लाभ प्राप्त होता रहे, ताकि सदस्यो को विनियोजिन पुँजी एवं जोखिम के लिए समुचित लाभांश दिया जा सके । यह तभी सम्भव है जब प्रबन्धकी को वित्तीय प्रबन्ध क सिद्धांत का पूर्ण ज्ञान हो जिसके आधार पर वे ठीक-ठीक वित्तीय नीतियों का निर्धारण और परिपालन कर सकें ।

(2) अंशधारी (Shareholders):

कम्पनी का स्वामित्व अशधारियों में निहित होता है संख्या अधिक होने के कारण वे प्रबन्ध में प्रत्यक्ष भाग नहीं लेने और प्रबन्ध का भार निर्वाचित संचालक-मण्डल को सोप देते है संचालक-मण्डल अंशधारियों के हित में इस कर्तव्य का किस सीमा तक और किस प्रकार पालन करने है यह देखना अंशधारियों का कार्य है ।

यदि अंशधारी वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धांतों से अवगत है तो वे कम्पनी की साधारण सभाओं में कम्पनी की वित्तीय दशा का उचित मूल्यांकन कर सकेगें । यदि संचालक उनके हित के विरुद्ध कार्य करते रहे है नो उन्हे उपयुक्ता वित्तीय-नीति अपनान वन लिए बाध्य कर सकेगें ।

(3) पूँजी निवेशक (Investors):

देश के अनेक विनियोक्ता अपनी संचित पूँजी का विनियोग इन कम्पनियों की प्रतिभूतियों में करते है । जिन विनियोक्ताओं को वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्तों का ज्ञान होता है वे स्वयं इस विषय में उचित निर्णय करने की स्थिति में हो जाते है कि किस कम्पनी का चुनाव किया जाय अथवा किन प्रतिभूतियों में धन लगाया जाय ?

(4) वित्तीय संस्थाएँ (Financial Institutions):

अभिगोपकों, विनियोग बैकों एवं प्रन्यास कम्पनियों के व्यस्थापकों के लिए प्रस्तुत विषय का व्यापक ज्ञान अनिवार्य है । इसके अतिरिक्त व्यापारिक बैकों एवं अन्य सभी प्रकार की वित्तीय संस्थाओं के प्रबन्धकों को भी विषय का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए इसके बिना ऐसी सस्थाएँ पूँजी लगाने के इच्छुक ग्राहकों का उचित पथ-प्रदर्शन करने में सफल नहीं हो सकती है ।

(5) अन्य पक्ष (Other Parties):

अन्य सब ऐसे व्यक्तियों को भी जो देश की आर्थिक समस्याओं में रुचि रखने है निगमों के वित्तीय प्रबन्ध का ज्ञान लाभ पहुंचाना है, जैसे: अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, राजनीतिज्ञ, वाणिज्य एवं व्यवसाय के विद्यार्थी इत्यादि देश की विभिन्न व्यवसायिक कम्पनियों में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों का करोडों रुपये का पूँजी निवेश हुआ है ? वित्तीय विश्लेषण की कसौटी परखने के बाद ही यह कहा जा सकता है कि कोई कम्पनी उसमें विनियोजित पूँजी साधनों का समुचित उपयोग करने में सफल हुई है कि नहीं ।

कम्पनियों के वित्तीय प्रबन्ध का देश की आर्थिक परिस्थितियों से इनना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि किसी भी स्तर इनकी अवहेलना नहीं की जा सकती । इसलिए वित्तीय प्रबन्ध का अध्ययन अब केवल व्यवसाय या वाणिज्य में संलग्न व्यक्तियों के लिए ही नहीं अपितु देश के सभी नागरिकों के लिए वांछनीय हो गया है ।


Essay # 7. वित्तीय प्रबन्ध की सीमाएं (Limitations of Financial Management):

वित्तीय प्रबन्ध की अपनी सीमाएँ है जिनका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है:

1. वित्तीय प्रबन्ध की दक्षता वित्तीय आँकड़ों व वित्तीय विवरणों की सत्यता व पर्याप्तता पर निर्भर करती है वित्तीय आंकडे अधिकतर बीते हुए काल से सम्बन्धित होते है । भविष्य सदैव अनिश्चित होता है । अत: बीते हुए समय से सम्बन्धित वित्तीय आंकड़ों पर आधारित पूर्वानुमान शत-प्रतिशत सही नहीं हो सकते ।

2. एक कम्पनी की वित्तीय स्थिति व निष्पत्ति प्रबन्ध के अन्य क्षेत्र जैसे: उत्पादन, विक्रय इत्यादि में लिये गये निर्णयों से प्रभावित होते है एक वित्तीय प्रबन्धक के लिए इन सभी निर्णयों का पता रखना व इनके प्रभाव का आंकलन करना मुश्किल होता है ।

3. वित्तीय निर्णय अवसर वित्तीय प्रबन्धक के दृष्टिकोण व पूर्वाग्रह से प्रभावित होते है । इस प्रकार वास्तुपरकता (Objectives) का अभाव रहता है व निर्णयों की गुणवत्ता पर असर पड़ता है ।

4. वित्तीय प्रबन्धक को वित्तीय कार्य की कुशल निष्पत्ति के लिए प्रबन्धन के अन्य क्षेत्र- उत्पादन, विक्रय, कार्मिक, अकशास्त्र, सामग्री प्रबन्ध इत्यादि का यथायोग्य ज्ञान होना आवश्यक है जो व्यवहार में सम्भव नहीं हो पाता ।

5. वित्तीय प्रबन्ध आज भी एक विकासशील विषय है अलग-अलग विशेषज्ञों ने अलग-अलग सिद्धांतों का समर्थन किया है तथा वित्तीय प्रावधियों के विषय में कोई निश्चित परिपाटी नही है । लेखा व वित्तीय मानकों में भी कई परिवर्तन हुए है । स्पष्ट मानकों व निर्देशों के अभाव में अधिकतर वित्तीय प्रबन्ध की समर्थता वित्तीय प्रबन्धक की वित्तीय आंकड़ों का विश्लेषण कर भविष्य में व्यवसायिक रुख का पूर्वानुमान करने की योग्यता पर निर्भर रहती है ।

6. छोटी संस्थाओं के लिए एक सार्थक वित्तीय प्रन्बन्ध का संगठन करना लाभकर नहीं होता ओर वह इसके लिए आवश्यक खर्च उठाने में असमर्थ होते हैं ।


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