प्रबंधन: प्रबंधन पर निबंध का संकलन | Here is a compilation of essays on ‘Management’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Management’ especially written for college and management students in Hindi language.
प्रबंधन पर निबंध | Essay on Management
Essay Contents:
- प्रबन्ध-एक कला अथवा विज्ञान के रूप में (Management- As an Art or a Science)
- प्रबन्ध-एक पेशे के रूप में (Management – As a Profession)
- प्रबन्ध-एक जन्मजात प्रतिभा के रूप में (Management- As an Inborn Ability)
- प्रबन्ध-एक सार्वभौमिक प्रक्रिया के रूप में (Management- As an Universal Process)
- प्रबन्ध-एक सामाजिक दायित्व के रूप में (Management- As a Social Responsibility)
- प्रबन्ध-एक प्रणाली के रूप में (Management-As a System)
- प्रबन्ध-एक प्रक्रिया के रूप में (Management-As a Process)
Essay # 1. प्रबन्ध-एक कला अथवा विज्ञान के रूप में (Management- As an Art or a Science):
प्रबन्ध कला है या विज्ञान यह मतभेद का विषय रहा है । किन्तु प्रबन्ध के अनेक विद्वानों ने प्रबन्ध को कला तथा विज्ञान दोनों माना है ।
(i) प्रबन्ध-कला के रूप में (Management as an Art):
किसी कार्य को करने की सर्वोत्तम विधि को कला कहते है । जॉर्ज आर. हैरी के अनुसार- “चातुर्य के प्रयोग से इच्छित परिणाम प्राप्त करना ही कला है ।” इस प्रकार कला को “उपलब्ध ज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग की विधि” के रूप में परिभाषित किया जा सकता है कला निरन्तर अभ्यास तथा अनुभव द्वारा अर्जित की जाती है ।
इसालिए कला का सफलता कला के प्रयोग करने वाले व्यक्ति की योग्यता व निपुणता पर निर्भर करती है । प्रोफेसर हेमैन के अनुसार कला से तात्पर्य “यह जानना है कि कोई कार्य किस प्रकार किया जा सकता है और वास्तव में उसी प्रकार करना । यह काम करने का तरीका प्रबन्धक के लिए जानना आवश्यक है और इसे केवल अनुभव तथा व्यवहार से जाना जा सकता है ।”
चातुर्य अथवा कौशल के प्रयोग से वांछित परिणाम प्राप्त करना कला है । कला में अनुभव व निरन्तर अभ्यास का अत्यन्त महत्व होता है, कला की सफलता कलाकार की योग्यता पर निर्भर करती है । कला एक व्यक्तिगत किया हैक्योंकि प्रत्येक कलाकार का कार्य करने का ढंग अलग-अलग होता है ।
एक चित्रकार द्वारा चित्र बनाना तथा एक मूर्तिकार द्वारा मूर्तियों का बनाया जाना कला के ब्याहरण हैं । कला एक सृजनात्मक (Creative) किया है । साधारण शब्दों में किसी भी कार्य को सर्वोत्तम ढंग से करना हो कला है ।
उपरोक्त परिभाषाओं एवं विचारों से कला में निम्नलिखित छ: विशेषताएँ होनी चाहिए:
(i) व्यावहारिक ज्ञान (Practical Knowhow);
(ii) व्यक्तिगत निपुणता (Personal Skill);
(iii) सार्थक परिणाम (Concrete Results);
(iv) रचनात्मक उद्देश्य (Constructive Objective);
(v) अभ्यास द्वारा विकास (Perfection Through Practice);
(vi) कला का हस्तांतरण सम्भव नहीं (Transfer of Art is not Possible) |
प्रबन्ध कला की उपरोक्त वर्णित विशेषताओं पर खरा रता है । प्रथम, प्रबन्ध एक व्यावहारिक ज्ञान है और व्यवसाय में प्रबन्धक का महत्व इस बात से जाना जाता है कि वह व्यवसाय को कितनी कुशलता से चलाता है, न कि इस बात से कि उसे प्रबन्ध के विषय में कितना ज्ञान है । प्रबन्ध का कार्य चलाने के लिए प्रबन्धक में व्यवहार-कुशलता, निर्णय विवेक तथा नेतृत्व के गुणों की आवश्यकता होती है और ये सभी गुण व्यावहारिक ज्ञान के प्रतीक हैं ।
द्वितीय, प्रबन्ध एक व्यक्तिगत निपुणता भी है क्योंकि प्रत्येक प्रबन्धक की कार्य करने की अपनी विशिष्ट शैली होती है जो दूसरे प्रबन्धकों से अलग होती है । प्रबन्ध के कार्य के लिए निर्णय, समझ तथा लोच की आवश्यकता होती है और ये भिन्न-भिन्न प्रबन्धकों में भिन्न होते हैं । परिणामस्वरूप, उनकी काम लेने की शैली भी भिन्न-भिन्न होती है और जो शैली एक प्रबन्धक के लिए प्रभावशाली सिद्ध होती है, दूसरे प्रबन्धक के लिए समान रूप से प्रभावशाली सिद्ध होनी आवश्यक नहीं है । इसका यह अर्थ है कि प्रस्फ करने का कोई एक सर्वोत्तम तरीका नहीं है ।
तृतीय, कला की भाति प्रबन्ध का आधार भी सार्थक परिणामों को प्राप्त करना है । प्रबन्ध के ये सार्थक परिणाम हैं: कम-से-कम विनियोग व श्रम से अधिकतम उद्देश्य पूर्ति (Goal Satisfaction) प्राप्त करना । प्रबन्धक की सफलता या असफलता का सबसे बड़ा मापदंड यही है कि वह इच्छित उद्देश्यों को कितनी कुशलता मितव्ययिता तथा सफलता से प्राप्त कर पाता है । प्रबन्ध भी, कला की भाँति, पूर्व-निर्धारित लक्यों को प्राप्त करने का प्रयास करता है ।
चतुर्थ, प्रबन्ध एक रचनात्मक ज्ञान है । इसका उद्देश्य एक ऐसा वातावरण बनाना है जिससे कि संस्था में काम कर रहे व्यक्ति अपने-अपने कर्त्तव्यों को ईमानदारी तथा लगन के साथ पूरा कर सकें । कोई भी प्रबन्धक कितना भी अधिक निपुण क्यों न हो, प्रबन्ध की सभी समस्याओं को बराबर कुशलता से नहीं सुलझा पाता ।
कारण यह है कि व्यवहार में प्रबन्ध का वातावरण गतिशील होता है, इसमें नित्य नये-नये परिवर्तन होते रहते हैंतथा परिस्थितियां निरन्तर बदलती रहती है । परिणामस्वरूप प्रबन्ध को नित्य नई सूझ-बूझ का परिचय देना पड़ता है । इस प्रकार प्रबन्ध किसी कला की भाति सृजनात्मक (रचनात्मक) है । प्रबन्ध ऐसी नई परिस्थितियों का सृजन करता है जो और अधिक सुधार के लिए आवश्यक होती हैं ।
पंचम, “अभ्यास द्वारा विकास” “करत करत अभ्यास जड़मति होय सुजान” | यह पंक्तियां प्रबन्धकों पर पूर्ण रूप से लागू होती है । प्रबन्धकों की कुशलता निरन्तर अभ्यास द्वारा निखरती है क्योंकि उन्हें परिवर्तनशील वातावरण में काम करना होता है । उन्हें प्रबन्धकीय सिद्धान्तों को परिवर्तनशील परिस्थितियों के अनूकुल ढलना पड़ता है ।
इस प्रकार प्रबन्धकों का निरन्तर, विभिन्न व जटिल रूप परिस्थितियों का सामना करते रहने से उनकी प्रबन्धकीय कला का विकास होता रहता है । प्रबन्धकी को पग-पग पर महत्वपूर्ण निर्भय लेने होते हैं जो उसके व्यक्तिगत अनुभव, ज्ञान, दक्षता, अभ्यास, चातुर्य एवं दूरदर्शिता पर निर्भर करते है ।
षष्टम, प्रबन्ध कला का हस्तान्तरण किसी अन्य कला की भाति सम्भव नहीं है । प्रबन्ध कला को व्यक्ति स्वयं विकसित करता है । उपरोक्त से स्पष्ट है कि प्रबन्ध में कला की सभी विशेषताएं पाई जाती हैं ।
(2) प्रबन्ध: एक विज्ञान के रूप में (Management as a Science):
पिछले कुछ वर्षों से प्रबन्ध को विज्ञान मानने पर बल दिया जा रहा है । इन प्रबन्ध विद्वानों के अनुसार जिस तरह से एक वैज्ञानिक, तथ्यों को संग्रह तथा विश्लेषण के बाद निर्णय पर पहुंचता है, उसी प्रकार एक प्रबन्धक को भी अपने कार्यों के सम्पादन में विज्ञान को आधार बनाना होगा ।
विज्ञान, ज्ञान का व्यवस्थित और एक क्रम-बद्ध अध्ययन है जो कारण एवं परिणाम में सम्बन्ध स्थापित करता है । किसी विषय को विज्ञान तभी कहा जा सकता है जब वह व्यवस्थित है, वह तथ्यों के संग्रह, विश्लेषण एव प्रयोग पर आधारित हैतथा वह सामान्य सत्यों का प्रतिपादन करता है तथा मिसकी स्वीकृति सार्वभौमिक हो । जॉर्ज आर. टैरी के अनुसार, “विज्ञान किसी भी विषय, उद्देश्य अथवा अध्ययन का सामान्य सत्यों के सन्दर्भ में संग्रहीत तथा स्वीकृत व्यवस्थित ज्ञान है ।
इस प्रकार विज्ञान की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) विज्ञान व्यवस्थित ज्ञान है,
(ii) इसमें कारण एवं परिणाम में सम्बन्ध पाया जाता है,
(iii) विज्ञान के सिद्धान्त प्रयोग तथा अवलोकन पर आधारित होते हैं तथा सर्व-प्रयुक्त (सार्वभौमिक) होते हैं एवं विज्ञान के सिद्धान्त व्यवहार की कसौटी पर परखे तथा सिद्ध किए जा सकते हैं ।
आज प्रबन्ध में विज्ञान की लगभग सभी विशेषताएँ पायी जाती हैं ।
प्रथम, प्रबन्ध एक संगठित एवं व्यवस्थित ज्ञान है जिसने अपने निरन्तर प्रयासों से अनेक सिद्धान्तों, अवधारणाओं एवं तकनीकों का विकास किया है ।
द्वितीय, वर्तमान प्रबन्ध व्यवस्था “प्रणाली विचारधारा” पर आधारित है, जो प्रत्येक परिस्थिति के कारण एवं परिणाम पर बल देती है । अपने विभिन्न निर्णयों, अभिप्रेरणा, सन्तुष्टि, नियन्त्रण, मनोबल कार्य-निष्पादन, लागत-लाभ विश्लेषण आदि में प्रबन्धक कारण एवं परिणाम के सम्बन्ध को ध्यान में रखकर कार्य करता है जैसे उचित अभिप्रेरण देने से श्रमिकों से अधिक कार्यकुशलता प्राप्त होना आदि ।
तृतीय, प्रबन्ध के सिद्धान्त भी व्यापक प्रयोग अवलोकन शोध एवं परीक्षण के बाद प्रतिपादित किए गए हैं और ये सिद्धान्त सभी व्यावसायिक सस्थानों में समान रूप से प्रयोग मै लाए जाते हैं जैसे आदेश की एकता का सिद्धान्त अथवा निर्देश की एकता का सिद्धान्त अधिकार व उत्तरदायित्व में सन्तुलन आदि । इस प्रकार प्रबन्ध के अनेक सिद्धान्त सार्वभौमिक है जो सभी देशों व सभी संगठनों में सामान्य रूप से लागू होते हैं ।
अन्तत: प्रबन्ध के सिद्धान्त व्यवहार की कसौटी पर परखे तथा जांचे जा सकते है और सामान्य रूप से सही उतरते हैं । प्रबन्ध विज्ञान के द्वारा सीमित क्षेत्रों में परिणामों का पूर्वानुमान करना भी सम्भव है ।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि प्रबन्ध भी एक विज्ञान है । किन्तु इसे भौतिक-शास्त्र, रसायन-शास्त्र, गणित आदि प्राकृतिक विज्ञानों के क्षेत्रों में नहीं रखा जा सकता है । प्रबन्ध शुद्ध अथवा वास्तविक विज्ञान नहीं है क्योंकि इसका सम्बन्ध मानवीय व्यवहार से होता है ।
प्रबन्ध की विषय-सामग्री मनुष्य है, जिसके व्यवहार एवं स्वभाव के बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना कठिन है । मानव का व्यवहार परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है । फिर प्रबन्धक को निरन्तर बदलते हुए मूल्यों, नये सामाजिक परिवेश एवं बदली हुई दशाओं में काम करना होता है ।
अत: उसकी प्रबन्धकीय शैली एवं पद्धति स्थिर नही अपितु परिस्थितिजन्य (Situational) होती है । अतएव प्रबन्ध एक सामाजिक एवं व्यावहारिक विज्ञान है । पीटर एफ. ड्रकर ने इसी कारण लिखा है कि- “प्रबन्ध कभी शुद्ध विज्ञान नहीं हो सकता ।” अर्नेस्ट डेल के अनुसार, “प्रबन्ध एक सरल (Soft) विज्ञान है जो कोर नियमों से रहित है ।”
प्रबन्ध विज्ञान की सीमाएँ (Limitations of Management Science):
प्रबन्ध की विज्ञान के रूप मे कुछ सीमाएँ हैं, जो इस प्रकार हैं:
(i) प्रबन्ध के निष्कर्ष विशुद्ध विज्ञानों की तरह कठोर व स्थिर नहीं होते:
प्रबन्ध का विज्ञान मनुष्यों से सम्बन्धित है और मानवीय व्यवहार सदैव स्थिर बने रहने की आशा नही की जा सकती ।
(ii) शुद्ध विज्ञान की तरह प्रथम्र में निश्चित रूप में कोई भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती:
इसका कारण यह है कि प्रबन्ध के सिद्धान्त समय, परिस्थितियों तथा मनुष्यों की प्रकृति के साथ बदलते रहते हैं ।
(iii) प्रबन्ध के सामान्य नियमों व सिद्धान्तों की प्रत्येक परिस्थिति में अनुकूलता संदिग्ध (Doubtful) है:
उदाहरण के लिए हेनरी फेयोल ने प्रबन्ध के सामान्य सिद्धान्त तो बताए, परन्तु हर परिस्थिति में उनका उपयोग सम्भव नहीं है । इस प्रकार प्रबन्ध के कोई सर्वमान्य (सार्वभौम) सिद्धान्त नहीं बनाए जा सकते ।
(iv) विज्ञान की तरह प्रबन्धकों के कार्य का वास्तविक माप (Actual Measurement) करना भी सम्भव नहीं है:
इसका कारण यह है कि प्रबन्ध मानवीय व्यवहार का किया जाता है जो अत्यन्त गतिशील है ।
(v) विज्ञान तो ऐसे तत्वों को आधार बनाता है जो गतिशील न हों अर्थात् स्थिर हों । परन्तु प्रबन्ध के साधन तो मानव, मशीन, मुद्रा तथा पद्धति हैं जिनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है ।
(vi) प्रबन्ध बाह्य घटकों से प्रभावित होता है; जैसे: सामाजिक, राजनैतिक अथवा सांस्कृतिक तत्वों में परिवर्तन होना ।
प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों ही है (Management is Both a Science and an Art):
निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते है कि प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों ही है इसका कारण यह है कि प्रबन्ध में कला एवं विज्ञान दोनों के लक्षण विद्यमान हैं । वास्तव में प्रबन्ध कला एवं विज्ञान का सम्मिश्रण है कला और विज्ञान दोनों ही प्रबन्ध को पूर्णता देने का कार्य करते हैं, उन्हें एक-दूसरे का पूरक माना जाता है ।
एक प्रबन्धक केवल एक वैज्ञानिक नहीं होता, वह कलाकार भी होता है । एक वैज्ञानिक के रूप में वह प्रबन्ध के सिद्धान्तों, अवधारणाओं व दर्शन (Philosophy) पर निर्भर रहता है तथा प्रबन्ध के नये आयामों सिद्धान्तों व विचारधाराओं का विकास करता है ।
दूसरी ओर एक कलाकार के रूप में संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक कोई भी निर्णय लेते समय स्वयं के अनुभव, अन्तर्ज्ञान, चातुर्य एवं विवेक से काम लेता है अत: जॉर्ज आर. टैरी का यह कथन सही है कि, “एक प्रबन्धक वैज्ञानिक एवं कलाकार दोनों है । किसी विशेष परिस्थिति में प्रबन्ध विज्ञान प्रबन्धकीय कला की मात्रा को कम कर सकता है, किन्तु यह कला की आवश्यकता को समाप्त नहीं कर सकता । प्रबन्ध में कला सदैव विद्यमान रहती है ।”
अतएव: प्रबन्ध कला एवं विज्ञान का व्यावहारिक संयोजन (Practical Fusion) है । जेम्स ए.एफ. स्टोनर ने लिखा है कि प्रबन्ध आंशिक रूप से कला है और आशिक रूप से विज्ञान । प्रबन्ध के कुछेक पहलू ही विज्ञान बन पाए हैं । अभी प्रबन्ध का एक बहुत बड़ा भाग विज्ञान बनना बाकी है । अन्तत: व्यवहार रूप में प्रबन्ध करना एक कला है और इस व्यवहार को श्रेष्ठ बनाने के लिए संगठित व तर्क संगत ज्ञान को आधार बनाना विज्ञान है । अतएव प्रबन्ध प्राचीनतम कला है और नवीनतम विज्ञान है ।
Essay # 2. प्रबन्ध-एक पेशे के रूप में (Management – As a Profession):
प्रबन्ध को अब एक पेशे के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है । आज विश्व के अनेक विकसित देशों में प्रबन्ध एक पेशे के रूप में विकसित हो चुका है हमारे देश में भी अब पूंजीपति प्रबन्धकों का स्थान पेशेवर प्रबन्धक ग्रहण करते जा रहे है ।
प्रबन्ध एक पेशा है अथवा नहीं यह जानने के लिए हमें पेशे के अर्थ तथा विशेषताओं पर दृष्टिपात करना होगा सी.एस.जॉर्ज के अनुसार- ”आज हम पेशे को क्य क्षेत्र के रूप में परिभाषित करते हैं जिसका ज्ञान-भंडार सुपरिभाषित है; जो विद्वतापूर्ण बौद्धिक तथा संगस्ति हैजहाँ शिक्षा और परीक्षा के बिना प्रवेश सम्भव नहीं है और जिसका प्रमुख उद्देश्य आत्म-पारितोषिक प्राप्त करने की बजाय दूसरों की सेवा करना है । पेशा एक ऐसा आजीविका का साधन है जिसके लिए प्रारम्भिक प्रशिक्षण आवश्यक होता है, जिसमें प्रबन्धकीय ज्ञान तथा कार्य-कौशल का समन्वय होता है, जो केवल व्यक्तिगत स्वार्थपोषण पर ही आधारित न होकर दूसरों के सेवाभाव पर आधारित होता है तथा जिसकी सफलता का एकमात्र माप केवल वित्तीय प्रतिफल नहीं होता ।”
डी. ई. मैकफारलैंड ने पेशे की निम्न पाँच विशेषताएँ बतायी हैं:
(i) व्यवस्थित तथा विशेष संचित ज्ञान का होना (Existence of Systematised and Specialised and Body of Knowledge)
(ii) औपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था का होना (Formalised Methods of Acquiring Training)
(iii) पेशे के सदस्यों के लिए एक प्रतिनिधि संस्था का होना (Existence of Professional Association for its Members)
(iv) सदस्यों के लिए आचार-संहिता (Code of Conduct for its Members) का होना एवं
(v) सेवा की प्रकृति एवं मात्रा के अनुसार पारिश्रमिक, किन्तु पेशे का उद्देश्य सेवा करना होता है ।
यदि हम प्रबन्ध को पेशे की उपरोक्त विशेषताओं के सन्दर्भ में देखें तो आज प्रबन्ध में पाँचों बातें पायी जाती हैं:
प्रथम, आज प्रबन्ध का व्यवस्थित रूप में विकास हो चुका है तथा इसका विशेष ज्ञान भंडार भी उपलब्ध है प्रबन्ध ने बहुत कुछ ऐसे सिद्धान्तों और अवधारणाओं का विकास किया है जिन्हें जटिल एवं बड़े संगठनों के अच्छे प्रबन्धन में सफलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध पेशे की पहली विशेषता को पूरा करता है ।
द्वितीय, पेशे की दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता है कि कोई व्यक्ति किसी पेशे में तभी प्रवेश कर सकता है जब वह उसमें क्यैंपचारिक शिक्षण एवं प्रशिक्षण के माध्यम से समुचित ज्ञान तथा कुशलता प्राप्त कर ले इस दृष्टि से प्रबन्ध को पेशे के रूप में चेकसित करने के लिए विभिन्न प्रबन्ध प्रशिक्षण संस्थाओं की देश-विदेश में स्थापना व्यापक पैमाने पर की जा रही है । आज क्यनग्क बनने के इच्छ व्यक्ति इन प्रशिक्षण सस्थाओं में प्रशिक्षण प्राप्त करके प्रबन्ध को पेशे के रूप में विकसित करने में सहायता प्रदान कर रहे हैं । जैसे भारत में भारतीय प्रबन्ध संस्थान, अहमदाबाद, कोलकाता आदि तथा बिटेन में हारवर्ड विजिनिस स्कूल आदि ।
तृतीय, पेशे का विकास करने के लिए प्रतिनिधि संस्था का होना आवश्यक है जो पेश के प्रमाप (Standards) निर्धारित कर सके तथा पेशे के क्षेत्र में आए नये विचारी का समन्वय तथा प्रसार कर सके ।
आज प्रबन्ध के क्षेत्र में अनेक प्रतिनिधि संस्थाएं बिद्यमान है । उदाहरणार्थ, भारत में अखिल भारतीय प्रबन्ध परिषद् (All India Management Association) एक प्रमुख प्रतिनिधि संस्था है । इसी तरह विदेर्शो में भी प्रबन्धकी की अनेक परिषर्दे कार्यरत हैं । अतएव आज बड़ी सख्या में प्रबन्ध परिषदो तथा संघों का गठन हो चुका है ।
चतुर्थ, प्रत्येक पेशे में उसके सदस्यों को कुछ आचार-संहिता का पालन करना पड़ता है । पेशेवर व्यक्तियों के लिए नैतिक आचार-संहिता (Moral Code of Conduct) इसलिए जरूरी हो जाता है कि वे अपने ज्ञान व विशेषज्ञता के कारण उस विशेष क्षेत्र में विशेष शक्ति प्राप्त कर लेते है । अत: इस विशेष शक्ति का उपयोग समाज के हित में हो, इसके लिए जरूरी है कि उनके सम्पर्क में आने वालो को यह पता हो कि उनका आचरण किस प्रकार का होना चाहिए ।
प्रबन्ध के क्षेत्र में भी नैतिक आचार-संहिताओं का निर्माण किया गया है जिसका पालन प्रबन्धक कर रहे हैं । भारत में भी अखिल भारतीय प्रबन्ध परिषद् ने अपने सदस्यों की ईमानदारी, सच्चरित्रता तथा पेशेवर नैतिकता के आश्वासन के लिए लिखित तथा अलिखित आचार संहिता बनाई हुई है ।
अन्तत: पेशे का मूलउद्देश्य सेवा (Service) होता है और वहसेवा की प्रकृति एवं उसकी मात्रा के अनुसार पारिश्रमिक प्राप्त करता है । इस रूप में यह कहा जा सकता है कि किसी पेशे की सफलता तथा सार्थकता का मापन धन-उपार्जन के सन्दर्भ में न होकर प्रदान की गयी सामाजिकसेवाके सन्दर्भ र्मे किया जाता है ।
प्रबन्ध के बारे में भी यह सच है कि प्रबन्ध के योगदान को मुद्रा में मापा नहीं जा सकता । इसके योगदान को इस प्रकार देखा जा सकता है कि इसके द्वारा सामाजिक संसाधनों को एकत्रित करके उन्हें किस प्रकार से समाज के लिए उपयोगी बनाया है । आज प्रबन्धकों में धीरे-धीरे सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना बलवती हो रही है ।
उपरोक्त विवेचन से यहस्पष्ट है कि प्रबन्ध में पेशे की लगभग सभी विशेषताएंपायी जाती हैं और वर्तमान में यह तेजी से पेशे के रूप में विकसित हो रहा है । परन्तु कुछ प्रबन्ध विद्वान् प्रबन्ध को अभी पेशा नहीं मानते । हाज तथा जानसन के अनुसार- “प्रबन्ध का वर्तमान में पेशे की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है । अत: इसे पूर्ण रूप से पेशे की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है ।”
मैकफारलैण्ड भी इसी मत के हैं । उनके अनुसार- “प्रबन्ध का पेशाकरण अभी भी पूर्णता से दूर है ।”
प्रबन्ध को पेशे के रूप में स्वीकार न करने के कारण हैं:
(i) डॉक्टर, वकील तथा चार्टर्ड एकाउन्टैन्टस की भांति प्रबन्धकों के लिए कोई सामान्य आचार-संहिता का न पाया जाना ।
(ii) आज भी प्रबन्ध के सिद्धान्त, तकनीकें, चातुर्य तथा विशिष्ट ज्ञान पूरी तरहसे विकसित नहीं हैं ।
(iii) आज भी प्रबन्धक बनने के लिए किसी औपचारिक प्रबन्ध शिक्षण, प्रशिक्षण एवं ज्ञान का होना अनिवार्य नहीं है । कोई भी व्यक्ति, जो प्रबन्ध का थोड़ा-सा ज्ञान रखता है, प्रबन्धक बन सकता है । भारत में आज भी अनेक औद्योगिक घरानों में इस प्रकार के प्रबन्धक देखने को मिलते हैं ।
(iv) प्रबन्धकों द्वारा सामाजिक उत्तदायित्व को न समझना । दूसरे शब्दों में, प्रबन्धकों में सेवा-भावना का अभाव होना है । ये केवल अपनी संस्था के हितों को देखते हैं ।
(v) पेशेवर व्यक्ति की सफलता उसकी सेवाओ तथा ख्याति के आधार पर आंकी जाती है, परन्तु प्रबन्धकीय कुशलता का मुख्य मापदंड लाभ हैं ।
(vi) अधिकतर देशों में प्रबन्धकीय सेवाएँ एक स्वतन्त्र धन्धे के रूप में प्रदान नहीं की जाती हैं अपितु प्रबन्धक नौकरी द्वार ही अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं ।
(vii) आज भी प्रबन्धकों की औपचारिक संस्थाओं की संख्या अधिक नहीं पायी जाती है । इससे प्रबन्धक किसी संस्था का सदस्य बन कर लाभ नहीं स्स पाते हैं ।
प्रबन्ध पेशा बनता जा रहा है (Management is becoming a Profession):
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यद्यपि प्रबन्ध आज भी एक पेशे केरूप में पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाया है, फिर भी वह निरन्तर पेशे की ओर अग्रसर है । ग्रे तथा स्मेल्टज के अनुसार- “प्रबन्ध पेशेकरण की ओर अग्रसर है ।” लारेन्स एप्पले के अनुसार- “प्रबन्ध एक पेशा बन चुका है ।” अतएव यह कहना उचित होगा कि प्रबन्ध आज तेजी से एक पेशे के रूप में विकसित हो रहा है तथा भविष्य में प्रबन्ध पूरी तरह से एक पेशे के रूप में स्वीकार किया जाएगा ।
भारत में प्रबन्ध एक पेशे के रूप में (Management as a Profession in India):
भारत में भी प्रबन्ध एक पेशे के रूप में विकसित हो रहा है । जेप्स लिण्डसे के अनुसार- ”भारत में जिस रूप में औद्योगिक संगठनों का विकास हो रहा है, उससे यह प्रतीत होता है कि भारत में पेशेवर प्रबन्ध केवल अस्तित्व में खई नहीं आया है अपितु शीघ्रता से विकास को प्राप्त कर लेगा ।”
इसके प्रमुख कारण है:
(i) भारत में प्रबन्धकीय शिक्षण तथा प्रशिक्षण की सुविधाओं में निरन्तर विस्तार ।
(ii) भारतीय उद्योगपतियों का बदलता दृष्टिकोण ।
(iii) सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों में पेशेवर प्रबन्धकों की बढ़ती मांग ।
(iv) प्रबन्धक परामर्श-सेवाओं की बढ़ी माँग ।
(v) विशिष्टीकरण के कारण प्रबन्धकीय कार्यो में जटिलता का आना ।
(vi) प्रबन्ध का स्वामित्व से अलग होते जाना ।
(vii) अखिल भारतीय प्रबन्ध परिषद् तथा अन्य प्रबन्धकीय संस्थानों के एक पेशे के रूप में विकसित करने के निरन्तर प्रयास ।
(viii) अर्थव्यवस्था के उदारीकरण तथा भूमण्डलीकरण के कारण अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए पेशेवर प्रबन्ध को अपनाने का दबाव ।
(ix) भारत के अनेक अग्रणी (Leading) उद्योगपतियों एवं व्यवसायियों ने उच्चस्तरीय पेशेवर प्रबन्ध के मापदण्डों को अपनाना है जिसके कारण भी भारत में प्रबन्ध को पेशेवर बनाने में व्यावहारिक सहयोग मिला
है । उपरोक्त तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में प्रबन्ध एक पेशे के रूप में विकसित हो रहा है ।
Essay # 3. प्रबन्ध-एक जन्मजात प्रतिभा के रूप में (Management- As an Inborn Ability):
परम्परागत प्रबन्ध विद्वानों का यह मानना है कि- “प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा है ।” अर्थात् “प्रबन्धक जन्म लेते हैं, बनाए नहीं जा सकते ।” इस विचारधारा के अनुसार कुछ व्यक्तियों में प्रबन्धकीय कौशल तथा गुण जन्मजात होते हैं । उन्हें प्रबन्ध करने लिए औपचारिक शिक्षण एवं प्रशिक्षण नहीं मिलता ।
इन व्यक्तियों में कुशलता, पहलपन, निर्णय, शक्ति, दूरदर्शिता तथा कल्पना-शक्ति जन्मजात होती है । अन्य शब्दों में कुछ व्यक्ति जन्म से ही योग्य तथा प्रतिभा-सम्पन्न होते है, वे दूसरों को कुशलतापूर्वक नेतृत्व करने की क्षमता रखते हैं ।
इस विचारधारा के आधार पर ही परम्परागत एवं पैतृक (विरासत वाले) औद्योगिक मस्थाओं का विकास हुआ । अतएव यह विचारधारा कुछ सीमा तक उचित प्रतीत होती है क्योंकि व्यक्ति का साहस, जोखिम लेने की क्षमता तथा वंशागत सस्कार उसे कुशल प्रबन्धक बनाने में अवश्य सहायता प्रदान करते हैं ।
लगता है इस विचारधारा के पीछे निम्नलिखित कारण रहे हैं:
(i) एकाकी स्वामित्य (Sole Proprietorship) तथा साझेदारी संगठनों का अधिक होना:
ऐसे सगठनों में स्वामी नथा प्रबन्धकों के बीच अन्तर नहीं होता । इन सगठनों का स्वामित्व तथा प्रबन्धन पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होता रहता है । इससे ग्ह आभास होता है कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा है ।
(ii) उदाहरणों का होना:
देश-विदेश में अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा है । विश्व में अनेक ऐसे सफल व्यवसायी हुए हैं जिन्होंने कभी भी औपचारिक प्रबन्धकीय शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया । यहाँ तक कि उनमें से कुछ तो पाठशाला तक नहीं गए ।
परन्तु उन्होंने महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की । हमारे देश में जमशेदजी टाटा, घनश्यामदास बिड़ला, जमनालाल बजाज, धीरू भाई अम्बानी आदि ऐसे उद्योगपति हैं जिन्हें औद्योगिक जगत् के आधार स्तम्भ कहा जा सकता है । इन्होंने कभी भी औपचारिक रूप से प्रबन्ध की शिक्षा प्राप्त नहीं की ।
(iii) राज व्यवस्था:
सदियों तक लोगों ने राजा-महाराजाओं का राज ही देखा सुना है । ऐसी शासन व्यवस्था में राजा का पुत्र ही राजा बनता है । इस तरह की परम्परा ने भी इस विचाराधारा को बढ़ावा दिया कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा है ।
(iv) प्रबन्ध को अलग से विधा (Discipline) न मानना:
प्रबन्ध का विकास एक अलग शास्त्र के रूप में हाल की घटना है । बीसवीं शताब्दी से पूर्व इसे सहज बुद्धि (Commonsense) माना जाता है । अत: लोगों की यह धारण बन गयी कि इसके लिए अलग से पढ़ने-पढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है । उपरोक्त कारणों से यह धारणा बनती चली गयी कि प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा होती है । परन्तु समय के साथ-साथ यह धारणा अप्रचलित होती जा रही है ।
इसके प्रमुख अग्र कारण हैं:
(i) संयुक्त पूँजी वाली कम्पनियों के विकास तथा विस्तार होने के साथ-साथ स्वामित्व तथा प्रबन्ध अलग हो रहे हैं ।
(ii) प्रबन्ध के औपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण का तेजी से विकास तथा विस्तार हो रहा है ।
(iii) प्रबन्ध का विकास एक पृथक् शास्त्र के रूप में हुआ है तथा यह तेजी से पेशा बनता जा रहा है ।
आज के युग में प्रबन्ध एक जन्मजात प्रतिभा न होकर- “अर्जित प्रतिभा” माना जाने लगा है वास्तविकता तो यह है कि प्रबन्ध एक अर्जित प्रतिभा है, यद्यपि व्यक्तिगत रुचि तथा सस्कार कुशल प्रबन्धक बनने में सहायक अवश्य है ।
Essay # 4. प्रबन्ध-एक सार्वभौमिक प्रक्रिया के रूप में (Management- As an Universal Process):
हेनरी फेयोल तथा टेलर जैसे प्रबन्ध विद्वानों ने प्रबन्ध को एक सार्वभौमिक क्रिया माना है । कोई भी संस्था, जिसका उद्देश्य सामूहिक प्रयत्नों (Group Efforts) के द्वारा अपने उद्देश्यों को प्राप्त करना है, वहाँ प्रबन्ध लागू होता है ।
भले ही ये सामूहिक प्रयत्न सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक क्षेत्र में किए जाएं अथवा मानव जीवन के किसी अन्य क्षेत्र में किए जाएँ । इस प्रकार प्रबन्ध एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है जो प्रत्येक संस्था में समान रूप से सम्पन्न की जाती है । थियो हैमन (Theo Haimann) के अनुसार- “प्रबन्ध के सिद्धान्त सार्वभौमिक हैं…वे किसी भी उपक्रम पर लागू होते हैं जहाँ भी मनुष्यों का समन्वित प्रयास होता है ।
एफ.डब्ल्यू.टेलर (F.W. Taylor) के शब्दों में- ”वैज्ञानिक प्रबन्ध के आधारभूत सिद्धान्त सभी प्रकार की मानवीय क्रियाओं-सरलतम व्यक्तिगत प्रयत्नों से लेकर, महान निगमों तक के कार्यों पर लाग होते हैं ।” लारेन्स ए.एप्पले (Lawrence A. Appley) का मत है कि- “जो प्रबन्ध कर सकता है, वह किसी का भी प्रबन्ध कर सकता है ।” हेनरी फेयोल (Henry Fayol) लिखते हैं कि- “प्रबन्ध के सिद्धान्त लचीले होते हैं तथा उन्हें आवश्यकतानुसार प्रयुक्त किया जा सकता है ।”
उपरोक्त वर्णित विभिन्न प्रबन्ध विद्वानों के विचारों से यह स्पष्ट है कि प्रबन्ध के सिद्धान्त सभी प्रकार के संगठनों में चाहे सैनिक संगठन हो शिक्षण संस्थान हो अस्पताल हो औद्योगिक प्रतिष्ठान हो गैर-व्यावसायिक संस्था हो, विश्वविद्यालय हों, नगर निगम हों, बैंक हों बीमा कम्पनी हों मन्दिर-मस्जिद ही छोटा हो या बड़ा, देश में हो या विदेश में सफलतापूर्वक सार्वभौमिक रूप से लागू किए जा सकते है अतएव जहाँ भी हमें समूह के रूप में लक्ष्यों की प्राप्ति के कार्य में लगे व्यक्तियों के प्रयत्नों को नियोजित, संगठित, संगठित समन्वित एवं नियन्त्रित करना होता है, वहाँ पर प्रबन्धकीय प्रक्रिया आवश्यक रूप से लागू होती है ।
अत: प्रबन्ध की सार्वभौमिकता का अर्थ है कि प्रबन्ध-ज्ञान को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक, एक ही देश में एक फर्म से दूसरी फर्म तथा एक देश से दूसरे देश तक हस्तान्तरित किया जा सकता है ।
प्रबन्ध की सार्वभौमिकता के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जा सकते है:
(i) प्रबन्ध के मुख्य कार्यों की सर्व-व्यापकता:
प्रबन्धक को सभी प्रकार के संगठनों में, चाहे वे व्यावसायिक हों या गैर-व्यावसायिक प्रबन्ध के प्रमुख कार्यों नियोजन संगठन समन्वय अभिप्रेरण तथा नियन्त्रण को, सम्पन्न करना ही पड़ता है । इस प्रकार प्रबन्ध के ये कार्य सर्व-व्यापक है ।
(ii) हस्तान्तरण-योग्यता:
प्रबन्ध की सर्व-व्यापकता इसलिए भी है कि प्रबन्ध चातुर्य एवं ज्ञान का हस्तान्तरण किया जा सकता है । प्राय: एक ज्ञान क्षेत्र एवं देश में योग्य प्रबन्धक दूसरे क्षेत्र स्थान तथा देश में भी अपने आप को योग्य सिद्ध करता है ।
(iii) सिद्धान्तों का लचीलापन:
प्रबन्ध के सिद्धान्त विशान की तरह कठोर नहीं हैं बल्कि सरल तथा समझने योग्य हैं जिन्हें बदलती परिस्थितियों एवं परिवेश में आवश्यकतानुसार उपयोग किया जा सकता है । प्रबन्धक अपने ज्ञान तथा अनुभव के आधार पर प्रबन्ध के सिद्धान्तों को लागू करते समय सम्बन्धित देश तथा स्थान की परिस्थिति के अनुसार इनमें थोडा बहुत परिवर्तन कर सकते हैं । यही कारण है कि प्रबन्ध के सिद्धान्तों के प्रयोग को सर्वव्यापक माना जाता है ।
(iv) महत्व की व्यापकता:
जो सिद्धान्त, कार्य तथा वस्तु स्थिति एक स्थान पर महत्वपूर्ण होते हैं, वे दूसरे स्थानों पर भी उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं । हाँ, डिग्री का अन्तर अवश्य हो सकता है ।
सार्वभौमिकता के विपक्ष में तर्क-प्रबन्ध की सार्वभौमिकता के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क दिए जाते हैं:
(a) प्रबन्ध के सिद्धान्त परिस्थिति मूलक हैं (Principles of Management are Situational):
इस तर्क के अनुसार प्रबन्ध के सिद्धान्त सार्वभौमिक न होकर पूरी तरहसे परिस्थिति जनक होते है । इसलिए प्रबन्धक के लिए कोई एक सर्वोत्तम तरीका या मार्ग नहीं है जिसके अनुसार वह अपना प्रबन्धकीय कार्य कर सके ।
(b) प्रबन्ध सम्बन्धित उपक्रम के उद्देश्यों पर निर्भर करता है (Management Depends Upon the Objectives of Concerned Enterprise):
प्राय: यह कहा जाता है कि प्रबन्ध सभी प्रकार के संगठनों के लिए आवश्यक है । परन्तु यह प्रबन्ध किस प्रकार का होना चाहिए यह सम्बन्धित उपक्रम के उद्देश्यों पर निर्भर करता है । व्यावसायिक तथा गैर-व्यावसायिक संगठनों के उद्देश्यों में पर्याप्त भिन्नता होती है व्यावसायिक संस्थानों का उद्देश्य लाभ कमाना होता है, जबकि गैर-व्यावसायिक संस्थाओं का उद्देश्य सेवा करना अथवा सुविधा प्रदान करना होता है । अत: उद्देश्यों की भिन्नता का प्रभाव प्रबन्ध पर भी पड़ता है ।
(c) प्रबन्ध संस्कृतिबद्ध है (Management is Culture-Bound):
प्रबन्ध के सिद्धान्तों का लागू किया जाना विशिष्ट परिस्थिति या संस्कृति पर निर्भर करता है । संस्कृति किसी समाज के मूल्यों, विश्वासों व मनोवृत्तियों से सम्बन्धित होती है । प्रबन्ध, वास्तव में व्यक्तियों से सम्बन्धित है तथा व्यक्ति समाज से अत: प्रबन्ध उन घटकों से प्रभावित होता है ।
(d) दर्शन में भिन्नता (Difference in Philosophy):
विभिन्न सगठनों के दर्शनों में भी भिन्नता पाई जाती है जिसके कारण कोई व्यक्ति सभी प्रकार के संगठनों में एक श्रेष्ठ प्रबन्धक नहीं बन सकता उदाहरण के लिए, यदि एक फर्म का दर्शन शीध्र लाभ कमाना तथा दूसरी फर्म का दर्शन दीर्घकाल आधार पर लाभ कमाना हो तो इस दार्शनिक भिन्नता का प्रभाव इन फर्मो के कर्मचारियों के मनोबल, उत्पादकता, संगठन-ढाँचे भारार्पण, प्रबन्ध-विस्तार (Span of Management) तथा सन्देशवाहन के रूपों पर भिन्न-भिन्न ढंग से होगा अर्नेस्ट डेल के अनुसार भिन्न-भिन्न उपक्रमों का भिन्न-भिन्न दर्शन होने के कारण एक संस्था का प्रबन्धक अन्य सभी प्रकार की संस्थाओं में सफल नहीं हो सकता ।
(e) प्रबन्ध कला तथा विज्ञान दोनों (Management is both an Art and a Science):
प्रबन्ध केवल विज्ञान ही नहीं है बल्कि कला भी है और कला में परिस्थितियों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है । प्रबन्ध की कला में प्रबन्ध की प्रक्रिया, सिद्धान्त एवं तकनीकों के प्रयोग को व्यावहारिक परिस्थितियों मै समझना जरूरी है । इसलिए प्रबन्ध प्रक्रिया का प्रयोग सर्वव्यापक नहीं हो सकता ।
निष्कर्ष (Conclusion):
प्रबन्ध की सार्वभौमिकता के पक्ष व विपक्ष के तकों के उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि यद्यपि भिन्न-भिन्न देशों संस्कृतियों व संगठनों में और विभिन्न संगठन के स्तरों पर प्रबन्धकीय व्यवहारों में भिन्नता हो सकती है, परन्तु प्रबन्ध के मूलधार व सिद्धान्त एक जैसे होते हैं, सार्वभौमिक होते हैं । अत: प्रबन्धकीय ज्ञान का एक देश से दूसरे देश में हस्तान्तरण करना सम्भव है । आज प्रबन्ध किसी एक देश, वर्ग या जाति से सम्बन्धित नहीं है, बल्कि उसकी उपयोगिता सर्वव्यापक एवं सार्वभौमिक है ।
Essay # 5. प्रबन्ध-एक सामाजिक दायित्व के रूप में (Management- As a Social Responsibility):
सामाजिक दायित्व का अर्थ है समाज की इच्छाओं, भावनाओं व आकाक्षाओं को समझना तथा उनको पूरा करने में सहयोग देना । प्रबन्धकों को उनके संगठनों को चलाने तथा उनका प्रबन्ध करने के लिए उन्हें समाज की अनुमति प्राप्त होती है । वे इसके लिए समाज से ही अधिकार प्राप्त करते हैं ऐसे में उनका समाज के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व उत्पन्न हो जाता है ।
19वीं शताब्दी में प्रबन्ध का एक ही उत्तरदायित्व होता था कि वह व्यवसाय के स्वामियों के हितों की रक्षा करें । परन्तु आज प्रबन्ध का सामाजिक उत्तरदायित्व उन सभी दावेदारों के प्रति है जो संगठन से प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए है ।
पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार- “प्रबन्ध का सामाजिक उत्तरदायित्व दोनों के प्रति है- उस उपक्रम के प्रति जिसका कि वह अंग है और क्य समाज केप्रति भी जिसका कि वह उपक्रम अंग है ।” ड्रकर आगे लिखते हैं कि- “यह प्रबन्ध का सामाजिक उत्तरदायित्व हें कि वहल्लैं कार्यो को करे जो जनता के हित में हों । ऐसा करने से वहस्वयं के हित में कार्य करेगा ।” कुछ प्रबन्ध विद्वानों ने तो यहां तक कह दिया है कि- “सामाजिक उत्तरदायित्य का निर्वाह करना प्रबन्ध है ।”
किसी संगठन से सम्बद्ध दावेदारों को दो भागों में बाँटा जा सकता है:
(i) आन्तरिक दावेदार-इसमें स्वामी (अंशधारी) तथा कर्मचारी शामिल हैं ।
(ii) बाह्य दावेदार-इसमें ग्राहक, समाज, सरकार, पूर्तिकर्त्ता व प्रतियोगी शामिल हैं ।
प्रबन्ध के विभिन्न वर्गों (दावेदारों) के प्रति उत्तरदायित्व निम्नलिखित हैं:
(i) स्वामियों (अंशधारियों) के प्रति:
आज प्रबन्धकी के अपने स्वामियों “अंशधारियों” के प्रति अनेक उत्तरदायित्व हो गए है जिनमें से प्रमुख निन्नलिखित हैं:
(a) व्यवसाय में लगी हुइ पूँजी को सुरक्षित रखना उस पर उचित प्रतिफल तथा लाभ प्रदान करना,
(b) विनियोजित पूँजी पर उचित लाभाश देना,
(c) विनियोजित पूँजी का निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए, सदुपयोग करना;
(d) संस्था की प्रगति से अवगत कराते रहना,
(e) विभिन्न वर्ग के अंशधारियों के साथ समानता का व्यवहार करना,
(f) सही लेखे प्रस्तुत करना एवं
(g) स्वामियों के हितों की रक्षा करना ।
(ii) कर्मचारियों के प्रति:
एक सन्तुष्ट कर्मचारी व्यवसाय की प्रगति में सहायक सिद्ध होता है, जबकि एक असन्तुष्ट कर्मचारी व्यवसाय की प्रगति में बाधक सिद्ध होता है । अतएव प्रबन्धकी को कर्मचारियों को अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करने का लगातार प्रयत्न करते रहना चाहिए ।
इसलिए कर्मचारियों के प्रति प्रबन्धकों के निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं:
(a) उचित पारिश्रमिक देना;
(b) नौकरी की सुरक्षा प्रदान करना;
(c) श्रम-कल्याण की योजनाओं को प्राथमिक स्थान देना तथा उन्हें लागू करना;
(d) उचित मान व सम्मान देना;
(e) मानवीय तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना;
(f) विकास व उत्थान के पर्याप्त अवसर प्रदान करना;
(g) श्रम-समस्याओं व कठिनाइयों का उचित निवारण करना;
(h) लाभों में हिस्सा देना;
(i) प्रबन्ध में भाग लेने के अवसर प्रदान करना
(j) अच्छी कार्य-दशाएं प्रदान करना;
(k) सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना,
(l) संस्था की नीतियों, कार्यक्रर्मो आदि के बारे में सूचनाएँ देते रहना एवं
(m) निष्पक्ष भर्ती-नीति को अपनाना ।
(iii) ग्राहकों अथवा उपभोक्ताओं के प्रति:
आज ग्राहक ही व्यवसाय की आधारशिला है । अतएव ग्राहकों अथवा उपभेष्माआrए की सन्तुष्टि करना प्रत्येक व्यवसायी का प्रमुख कार्य है । आज ‘क्रेता का बाजार’ है और वही राजा है इसलिए प्रबन्धकों को चाहिए कि वे ग्राहकों के प्रति अपने उत्तरदायित्वों जो पूरा करें ।
ग्राहकों (उपभोक्ताओं) के प्रति उनके दायित्व निम्नलिखित हैं:
(a) ग्राहकों को अच्छी किस्म की वस्तुएं, उचित समय पर, उचित मात्रा में, उचित मूल्यों पर तथा उचित स्थान पर उपलब्ध कराना,
(b) वस्तुओं एवं सेवाओं की पूर्ति निरन्तर बनाए रखना,
(c) वस्तुओं में मिलावट न करना,
(d) अनैतिक तथा भ्रमिक विज्ञापन न करना,
(e) विक्रय के बाद सेवा (After Sale Service) प्रदान करना,
(f) अच्छे ग्राहक सम्बन्ध स्थापित करना,
(g) ग्राहकों की इच्छा, पसन्द आदि के अनुसार वस्तुओं का निर्माण करना,
(h) वर्तमान वस्तुओं के गुणों में निरन्तर सुधार करते रहना,
(i) वस्तुओं के प्रयोग की विधि की जानकारी देना एवं
(j) ग्राहकों की शिकायतों पर उचित ध्यान देना तथा उनको दूर करने के लिए आवश्यक कदम उठना ।
(iv) समाज के प्रति:
प्रबन्धक जिस समाज में रहता है, उसके समाज के प्रति अनेक उत्तरदायित्व होते है ।
समाज के प्रति उसके दायित्व निमलिखित हैं:
(a) समाज के संसाधनों का उपयोग सामाजिक हित में करना;
(b) समाज के व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध कराना;
(c) स्थानीय वातावरण को दूषित होने से बचाना;
(d) समाज के जीवन-स्तर में वृद्धि करना;
(e) विभिन्न सामाजिक-कल्याण कार्य करना, जैसे- अस्पताल, धर्मशालाएं, विद्यालय, मनोरंजन आदि सुविधाएँ उपलब्ध कराना;
(f) सामाजिक विकास के कार्यक्रमों में सहयोग देना एवं
(g) ऐसा कोई कार्य न करना जो कि समाज की भावनाओं को ठेस पहुंचाए ।
(v) सरकार के प्रति:
प्रबन्धकों के सरकार के प्रति निम्नलिखित दायित्व हैं:
(a) सरकारी करी का ईमानदीरी से भुगतान करना;
(b) सरकारी नियमों व कानूनी का पालन करना;
(c) देश के आर्थिक विकास में सरकार को सहयोग देना;
(d) निजी स्वार्थ के लिए सरकारी कर्मचारी तथा प्रजातन्त्रिक बचे को भ्रष्ट न करना;
(e) अनुचित तरीकों से राजनैतिक संरक्षण प्राप्त न करना एवं;
(f) शत्रु देश से किसी प्रकार का व्यवसाय न करना ।
(vi) पूर्तिकर्त्ताओं के प्रति:
वे व्यक्ति जो व्यवसाय में काम आने वाली वस्तुएँ, जैसे कच्चा माल, मशीनरी तथा अन्य सामग्री उपलब्ध कराते हैं, उन्हें पूर्तिकर्त्ता कहते हैं ।
पूर्तिकर्त्ताओं के प्रति प्रबन्ध के दायित्व निम्नलिखित हैं:
(a) उनकी वस्तुओं एवं सेवाओं का उचित मूल्य देना;
(b) मूल्य का भुगतान समय पर करना;
(c) नये पूर्तिकर्त्ताओं को भी अपने माल को प्रस्तुत करने का अवसर देना;
(d) अपने उपक्रम के भावी विकास की उन्हें सूचना देना;
(e) माल की पूर्ति के लिए पर्याप्त समय देना एवं
(f) बाजार में होने वाले परिवर्तनों (जैसे ग्राहकी की रुचि, आदतों एवं फैशन में होने वाले परिवर्तन) की सूचना देते रहना ।
(vii) प्रतियोगियों के प्रति:
अपने प्रतियोगियों के प्रति प्रबन्ध के दायित्व निम्नलिखित हैं:
(a) स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करना;
(b) बाजार-अनुसन्धान को प्रोत्साहित करना;
(c) व्यापार के विकास केलिए मिलकर कार्य करना;
(d) कृत्रिम सौदों द्वारा मूल्यों में वृद्धि या कमी न करना एवं
(e) आपसी सहयोग बढ़ाना-यह सहयोग तभी बढ़ सकता है जब प्रबन्धक प्रतिद्वन्द्वियों की बुराई न करें, उनके माल को घटिया नप बताएं तथा उनके ग्राहकों को न भड़काएँ ।
(viii) स्वयं के प्रति:
प्रबन्ध का स्वयं के प्रति भी महत्वपूर्ण सामाजिक उत्तरदायित्व है अर्थात् जिस उद्देश्य से व्यवसाय की स्थापना की गई है, वह उसे पूरा करे ।
प्रबन्ध के स्वयं के प्रति निम्नलिखित उत्तरदायित्व है:
(a) व्यवसाय का कुशलता तथा लाभदेयता के साथ संचालन करना;
(b) उपलब्ध मानवीय व भौतिक साधनों का समाज हित में अधिकतम उपयोग करना;
(c) संस्था की साख बनाए रखना तथा उसमे वृद्धि करना;
(d) व्यावसायिक क्षमता का विकास करना;
(e) परिवर्तन की चुनौती का सामना करना,
(f) बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा की चुनौती का सामना करना तथा स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पर बल देना तथा
(g) बाँछित बाजारों में प्रवेश करना ।
Essay # 6. प्रबन्ध-एक प्रणाली के रूप में (Management-As a System):
वर्तमान में प्रबन्ध का एक पद्धति के रूप में अध्ययन किया जाने लगा है । प्रणाली विचारधारा के अनुसार प्रत्येक संस्था में संगठन व्यक्तियों का एक समूह होता है जिनमें परस्पर औपचारिक सम्बन्ध होते हैं । इन व्यक्तियों में से प्रत्येक व्यक्ति अपनीक्रियाएँ अलग-अलग उद्देश्य लेकर नहीं करना अपितु संगठन के सामान्य उद्देश्यों के अनुसार ही अपना कार्य करता है ।
अत: प्रबन्धक को प्रत्येक व्यक्ति की क्रिया को एक अंग के रूप में और सभी क्रियाओं को एक प्रणाली मानना चाहिए और उसी के अनुसार कार्य किया जाना चाहिए, तभी वह उसका कुशलतापूर्वक प्रबन्ध कर पाएगा । प्रणाली विचारधारा की प्रमुख विशेषता यह है कि यहसंस्था के सभी पहलुओं पर एक साथ विचार करती है ।
इसके अन्तर्गत किसी एक भाग के अध्ययन की बजाय सम्पूर्ण भाग का अध्ययन किया जाता है । जिस प्रकार एक डॉक्टर किसी रोगी का इलाज करते समय उसकी सम्पूर्ण शारीरिक संरचना को ध्यान में रखता है, ठीक उसी प्रकार प्रबन्ध करने के लिए सम्पूर्ण संगठन को एक प्रणाली मानकर चलना होगा ।
अतएव सम्पूर्ण रूप में संस्था की क्रियाओं का अध्ययन करके प्रबन्ध करने को ही प्रणाली बद्ध प्रबन्ध विचारधारा (System Approach to Management) कहा जाता है । इसमें सबसे पहले प्रणाली को परिभाषित अर्थात् निश्चित करना है, तत्पश्चात् उद्देश्य-निर्धारण, औपचारिक उप-प्रणालियों का निर्माण तथा एकीकरण करना होता है ।
प्रबन्ध को प्रणाली के रूप में देखने का अर्थ है किसी संस्था के प्रबन्ध को करने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण (Unified Approach) अपनाना । अन्य शब्दों में- प्रबन्ध के प्रबन्धकीय पहलुओं को समग्र रूप में देखने और समझने की योग्यता ।
Essay # 7. प्रबन्ध-एक प्रक्रिया के रूप में (Management-As a Process):
प्रबन्ध एक प्रक्रिया इस अर्थ में है कि निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक कार्यों को एक अनुक्रम (Sequence) में किया जाता है । प्रबन्ध प्रक्रिया के तत्व हैं: नियोजन, संगठन, अभिप्रेरणन, नियुक्तियां निर्देशन तथा नियन्त्रण । इन्हें प्रबन्ध के कार्य भी कहा जाता है । ये कार्य मिल कर प्रबन्ध प्रक्रिया का निर्माण करते हैं ।
अतएव प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका उपयोग उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है । प्रबन्ध प्रक्रिया के माध्यम से संस्था के सीमित साधनों का अधिकतम उपयोग किया जाता है । इस प्रकार प्रबन्ध निर्धारित लर्क्ष्यो को प्राप्त करने के लिए समूह के प्रयासों एवं साधनों के बीच समन्वय स्थापित करने वाली एक विशिष्ट प्रक्रिया है । प्रबन्ध में कुछविशिष्ट कार्य समयानुसार व क्रमबद्ध तरीके से किए जाते हैं ।
प्रबन्ध की प्रक्रिया को निम्न चित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है: संलग्न चित्र से स्पष्ट है कि प्रबन्ध प्रक्रिया में सबसे पहले नियोजन का कार्य किया जाता है । इसके पश्चात् संगठन का ढाँचा तैयार किया जाता है । जिसके अन्तर्गत संस्था में कार्य करने वाले व्यक्तियों के बीच परस्पर सम्बन्ध निर्धारित किए जाते हैं । तीसरी क्रिया निर्देश की आती है जिसके अन्तर्गत कर्मचारियों को कार्य करने के लिए आवश्यक निर्देश दिए जाते हैं ।
इस प्रकार यह क्रिया संगीक प्रयासों को प्रारम्भ करती है, निर्णयों को वास्तविकता का चोला पहनाती है तथा व्यवसाय को अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में अग्रसर करती है । त्गैथी प्रक्रिया अभिप्रेरण की है, जो कर्मचारियों को कार्य करने के लिए प्रेरित करती है, उन्हें कार्य पर बनाए रखती है तथा उन्हें अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करती है ।
प्रबन्धकीय प्रक्रिया में नियन्त्रण अन्तिम चरण है, जिसके अन्तर्गत यह देखा जाता है कि प्रबन्ध अपने लक्ष्यों की प्राप्ति अपनी योजनाओं के अनुसार कर पा रहा है अथवा नहीं । इसके अन्तर्गत वास्तविक प्रगति की समीक्षा की जाती है तथा किसी भी विचलन को देख कर उसे दूर करने के लिए आवश्यक सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है । इस प्रकार यह प्रबन्ध प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है ।