Here is an essay on ‘Industrial Disputes’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Industrial Disputes’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay on Industrial Disputes
Essay Contents:
- औद्योगिक विवाद की परिभाषाएँ (Definition of Industrial Disputes)
- औद्योगिक विवाद के निवारण की व्यवस्था (Settlement Machinery for Industrial Disputes)
- श्रमिकों या श्रमिकों की ट्रेड यूनियनों की ओर से (Trade Unions of Workmen and Strikes)
- औद्योगिक सम्बन्धों में कीर्तिमान (Milestone in Industrial Relations)
Essay # 1. औद्योगिक विवाद की परिभाषाएँ (Definition of Industrial Disputes):
औद्योगिक विवाद की विभिन्न परिभाषाएँ हैं, जिनमें से मुख्य निम्नलिखित है:
(1) औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 21 (K) के अनुसार:
”औद्योगिक विवाद वे हैं, जो नियोक्ता एवं नियोक्ता के मध्य, नियोक्ता और कर्मचारियों के मध्य राव श्रमिक तथा श्रमिक के मध्य विवाद अथवा मतभेद के रूप में प्रकट होते हैं, तथा जो किसी व्यक्ति को रोजगार देने या न देने अथवा रोजगार की शर्तों अथवा श्रम की दशाओं से सम्बन्धित होता है ।”
(2) वी.वी.आर्य के अनुसार:
” ‘औद्योगिक विवाद’ शब्द साधारणत श्रमिकों एवं नियोक्ताओं के मध्य श्रमिकों को रोजगार अथवा उसके रोजगार न रहने की दशाओं से सम्बन्धित असहमति को व्यक्त करता है ।”
(3) कर्ट बाम के अनुसार:
”श्रम विवाद में नियोक्ताओं एवं कर्मचारियों के मध्य या नियोक्ताओं एवं श्रम संघों के मध्य या श्रम संघों के मध्य विचार की भिन्नताओं को सम्मिलित किया जाता है ।”
(4) पैटरशन के अनुसार:
“Industrial strikes constitutes militant and organized protest against existing industrial conditions. They are symptoms of industrial unrest in the same way that boils are symptoms of a destroyed body”. – Patterson)
Essay # 2. औद्योगिक विवाद के निवारण की व्यवस्था (Settlement Machinery for Industrial Disputes):
जब परिवाद रोकथाम के सभी प्रयास (जैसे कार्य समितियाँ, अनुशासन संहिता, सामूहिक सौदेबाजी, लाभ सहभागिता, संयुक्त विचार-विमर्श आदि) असफल या निष्क्रिय सिद्ध हो चुके हों और हड़ताल अथवा तालाबन्दी जैसी अप्रिय घटनाएँ भड़क उठी हों, तो उस दशा में समस्या का हल यथाशीघ्र खोजना आवश्यक होता है ।
बड़े उद्योगों में श्रम संघ तथा नियोक्ता संघ अधिक सबल होते हैं तथा सामान्य विवाद उग्र रूप धारण नहीं करते । वे आपसी समझौतों तथा विचार-विमर्श द्वारा तय कर लिए जाते हैं । बड़ी समस्याओं को लेकर मतभेद होते हैं, अत: उनके निवारण के लिए अधिक सक्षम व्यवस्था की आवश्यकता होती है ।
औद्योगिक परिवाद निवारण पाँच विधियाँ हैं:
(1) जाँच-पड़ताल,
(2) समझौता,
(3) मध्यस्थता,
(4) पंच निर्णय, तथा
(5) अधिनिर्णयन व्यवस्थाएँ ।
(1) जाँच-पड़ताल (Investigation):
समस्या की जाँच-पडताल किसी दल या सरकार द्वारा की जाती है । यदि इस दल की नियुक्ति दोनों पक्षों में से किसी की प्रार्थना पर की जाती है, तो उसे ऐच्छिक जाँच-पड़ताल (Voluntary Investigation) कहा जाता है ।
यदि यह जाँच पड़ताल सरकार द्वारा, दोनों पक्षों को बिना पूर्व सलाह एवं अनुमति के प्रारम्भ की जाती है, तो उसे अनिवार्य जाँच-पड़ताल (Compulsory Investigation) कहा जाता है ।
इन जाँच पड़तालों का उद्देश्य केवल तथ्यों का पता लगाना है, जो कालान्तर में प्रकाशित किए जाते हैं, तथा जिन पर जनता की राय माँगी जाती है । यह जाँच-पड़ताल निष्पक्ष रूप से की जाती है, जिसमें नियोक्ता तथा श्रमिक का कोई हस्तक्षेप नहीं होता । अत: यह अप्रत्यक्ष रूप से विवाद निवारण की विधि है ।
(2) समझौता (Conciliation):
विवाद निवारण की दृष्टि से समझौता प्रणाली सर्वश्रेष्ठ कही जा सकती है । समझौते का अर्थ विवाद से सम्बन्धित दोनों पक्षों को समीप लाना तथा एकमत करने का प्रयास करने से है ।
दूसरे शब्दों में, यह एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा श्रमिकों तथा नियोक्ताओं के प्रतिनिधि किसी तीसरे व्यक्ति अथवा समूह के सम्मुख किसी निर्णय पर पहुँचने की दृष्टि से विचार-विमर्श करते हैं ।
समझौते का मूलतन्त्र यह है, कि दोनों पक्ष हड़ताल अथवा तालाबन्दी करने के लिए कटिबद्ध है, मुख्यत: उस दशा में जब दोनों की सौदेबाजी क्षमता समान हो । अत: ऐसी स्थिति उत्पन्न होने से पूर्व ही समझौता द्वारा निर्णय लेने का प्रयास किया जाता है ।
तीसरे पक्ष की उपस्थिति से वाद-विवाद, भावुक तथा गर्मागर्म बहस कम होने की सम्भावना रहती है । मध्यस्थ एक प्रकार से श्रोता का कार्य करता है । कई बार उसे परिवाद निवारण के क्षेत्र में चिकित्सा का उड़नदस्ता (Flying ambulance squad) कहा जाता है ।
वह जब कभी और जहाँ भी विवाद उत्पन्न हो अथवा शान्ति को खतरा उपस्थित हो, तो श्रमिकों तथा नियोक्ताओं के हितों को समझाते हुए आपसी समझौता कराने की चेष्टा करता है ।
यह एक निष्पक्ष सलाहकार का काम करता है, और किसी प्रकार का बल प्रयोग किए बिना विवादग्रस्त दोनों पक्षों के मध्य समझौता कराने की चेष्टा करता है, जिससे न्यूनतम समय में शान्तिपूर्ण वातावरण को शीघ्रातिशीघ्र पुनर्स्थापित करने में सहायता मिले ।
समझौता विधि:
यह विधि ऐच्छक या अनिवार्य हो सकती है । ऐच्छिक विधि के अंन्तर्गत विवादग्रस्त मामला समझौता अधिकारी (Conciliation Officer) को अथवा समझौता बोर्ड (Conciliation Board) को सौंपा जाता है । इसमें दोनों पक्षों की स्वतन्त्र राय होती है, जो अपने आपसी मतभेद किसी बाहरी व्यक्ति की सहायता से मिटाने का प्रयास करने के लिए एकमत होते हैं ।
इस व्यवस्था में किसी प्रकार का वैधानिक नियन्त्रण नहीं होता तथा मध्यस्थ के प्रयास के अनुरूप उसके निर्णय को मानने के लिए भी दोनों पक्ष बाध्य नहीं होते । अनिवार्य समझौता विधि में मामला समझौता बोर्ड को सौंपा जाता है । समझौता परिवाद निवारण का एक प्रभावी संयन्त्र है, परन्तु इसके लिए स्थायी व्यवस्था होनी चाहिए ।
प्रो.पीगू(Pigou) का विचार है कि, “यदि पहले से कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है, तो विवाद उत्पन्न होने पर मध्यस्थ की नियुक्ति का प्रश्न आएगा तथा तत्काल मध्यस्थ खोजना, निर्णय में देरी का कारण बनेगा । इसके अतिरिक्त, यह आपसी मनमुटाव तथा निराशा का कारण भी होगा ।”
प्रो.फॉर्क्सवेल (Forxwell) का कथन है, कि जहाँ व्यक्तिगत सम्बन्धों का निर्माण किया जाता है, तथा जहाँ नैतिक दबाव सक्रिय है, उन दशाओं में से कुछ स्थायित्व होना आवश्यक होगा । स्थायी समझौता बोर्ड का विकास औद्योगिक शान्ति की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । इन बोर्डों में श्रमिकों तथा नियोक्ता का प्रतिनिधित्व होना चाहिए ।
(3) मध्यस्थता (Mediation):
प्राय: मध्यस्थता या ‘समझौता’ शब्द को पर्यायवाची समझकर प्रयोग किया जाता है, किन्तु इसमें अन्तर है । समझौता अधिकारी दोनों की बात सुनने वाला एक सम्प्रेषण की कड़ी तथा दोनों पक्षों के लिए निष्पक्ष आश्वासनदाता है, जो कर्मचारी एवं नियोक्ता दोनों पक्षों को विचार-विमर्श द्वारा समस्या के निवारण के लिए अवसर प्रदान करता है ।
मध्यस्थता एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें तीसरा व्यक्ति दो पक्षों को केवल मतभेद मिटाने के लिए आमना-सामना नहीं करता, वरन् समस्याओं का सही समाधान खोजने एवं विभिन्न विकल्प बताकर निर्णय प्राप्त करने की चेष्टा करता है । दोनों पक्षों की सलाह पर ही मध्यस्थ को आमन्त्रित किया जाता है ।
(4) पंच निर्णय (Arbitration):
पंच निर्णय किसी विवादग्रस्त मामले में निष्पक्ष व्यक्ति द्वारा निर्णय प्राप्त करने की प्रणाली है । इस प्रणाली में विवाद का निवारण किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा किया जाता है, जिसका निर्णय दोनों पक्षों का मान्य होता है । इस प्रकार पंचनिर्णय प्रणाली के अन्तर्गत समस्या का समाधान बाहरी, निष्पक्ष, तीसरे व्यक्ति अथवा समूह द्वारा किया जाता है ।
पंचनिर्णय को समझौता प्रणाली से केवल कारण अलग नहीं समझा जाता है, कि प्रणाली में तीसरे व्यक्ति के निर्णय दोनों पक्षों को मान्य होते हैं, वरन् इसलिए अलग समझा जाता है, कि इसमें समस्या के समाधान की सम्पूर्ण प्रक्रिया ही भिन्न है ।
पंच निर्णय का मुख्य उद्देश्य निर्णय देना है । अत: इसमें समझौते का कोई स्थान नहीं है, यद्यपि दोनों पक्ष इस सम्बन्ध में स्वतन्त्र हैं । समझौता अधिकारी अपना निर्णय दोनों पक्षों पर थोप नहीं सकता किन्तु पंच-निर्णायक ऐसा कर सकता है । पंच निर्णय ऐच्छिक अथवा अनिवार्य हो सकता है ।
(a) ऐच्छिक पंच निर्णय (Voluntary Arbitration):
जब दो पक्ष अपने आप या मध्यस्थता की सहायता से समस्या का समाधान नहीं कर पाते तो विवाद पंच को सौंप दिया जाता है । पंच का निर्णय दोनों पक्ष ऐच्छिक रूप से स्वीकार करने के लिए तैयार होते हैं ।
ऐच्छिक पंच निर्णय के लिए विवाद प्रस्तुत करते समय दोनों पक्षों की सहमति होती है । इसमें गवाह आदि भी प्रस्तुत किए जाते हैं । इस व्यवस्था से प्राप्त निर्णयों को स्वीकार करना एवं लागू करना आवश्यक नहीं है ।
(b) अनिवार्य पंच निर्णय (Compulsory Arbitration):
इस प्रणाली में सभी आवश्यक गवाह अनिवार्य रूप से प्रस्तुत करने पड़ते हैं । जाँच-पड़ताल का पूरा अधिकार निर्णायक को दिया जाता है, तथा उसे निर्णय देने एवं निर्णय नहीं मानने पर सम्बद्ध पक्षों को दण्ड देने का अधिकार दिया जाता है |
इस प्रणाली में दोनों पक्ष निर्णायक के निर्णय को मानने के लिए बाध्य होते हैं । जब ऐच्छिक प्रणाली से किसी निर्णय पर पहुँचने में असफल रहते हैं, तो इस अनिवार्य प्रणाली का प्रयोग किया जाता है ।
(5) अधिनिर्णयन व्यवस्थाएँ (Adjudication Machinery):
जब उपर्युक्त विधियाँ समझौता कराने में असफल रहती हैं, तो ऐसी दशा में अनिवार्य अधिनिर्णय व्यवस्थाएं लागू होती हैं,
जो निम्न हैं:
(i) श्रम न्यायालय (Labour Courts):
इन न्यायालयों का कार्य औद्योगिक संघर्ष से सम्बन्धित ऐसे छोटे-छोटे मामलों पर अधिकृत निर्णय देना है, जो कि उन्हें उपयुक्त सरकार द्वारा सौंपे जाते हैं ।
(ii) राज्य या औद्योगिक न्यायाधिकरण (State or Industrial Tribunals):
यह न्यायाधिकरण अवकाश प्राप्त उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता में स्थापित होता है, जिसे ऐसे सभी मामले जो कि 100 या इससे अधिक श्रमिकों से सम्बन्धित होते हैं, और जो राष्ट्रीय महत्व के हैं सौंपे जाते हैं ।
(iii) राष्ट्रीय न्यायाधिकरण (National Tribunals):
इसकी नियुक्ति राष्ट्रीय महत्व के मामले के सम्बन्ध में होती है । इसके अतिरिक्त इसे उन उद्योगों से सम्बन्धित मामले जो विभिन्न राज्यों में हैं सौंपे जाते हैं ।
यह न्यायाधिकरण उन सभी मामलों पर अपना निर्णय देता है, जो इसे सरकार द्वारा सौंपे जाते हैं, सरकार को इसके परिनिर्णयों को संशोधित करने का अधिकार है । सरकार चाहे तो उसे रद्द भी कर सकती है ।
Essay # 3. श्रमिकों या श्रमिकों की ट्रेड यूनियनों की ओर से (Trade Unions of Workmen and Strikes):
(1) अधिनियम के अन्तर्गत अवैधानिक समझी जाने वाली किसी हड़ताल की सलाह देना, या सक्रिय तौर पर समर्थन करना या उकसाना ।
(2) आत्म-संगठन के उनके अधिकार या एक ट्रेड यूनियन में शामिल होने या किसी ट्रेड यूनियन में शामिल होने से परहेज करने के उनके अधिकार के अनुभाव में श्रमिकों का उत्पीड़न करना ।
अर्थात्:
(a) एक ट्रेड यूनियन या उसके सदस्यों के लिए ऐसे तरीके से पिकैटिंग करना कि गैर-हड़ताली कर्मचारियों को कार्य स्थलों में दाखिल होने से शारीरिक तौर पर रोकना;
(b) शक्ति या हिंसा की गतिविधियों में शामिल होना या गैर-हड़ताली श्रमिकों के विरुद्ध या प्रबन्धकीय स्टाफ के विरुद्ध एक हड़ताल के सम्बन्ध में दमन की धमकी देना ।
(3) सेवायोजकों के साथ सद्भावना में सामूहिक तौर पर सौदेबाजी करने से एक मान्य यूनियन के लिए मना करना ।
(4) सेवायोजक के साथ सद्भावना में सामूहिक तौर पर एक सौदेबाजी के प्रमाणन के विरुद्ध उत्पीड़क गतिविधियों में शामिल होना ।
(5) उत्पीड़क गतिविधियों के ऐसे स्वरूपों को कार्य रूप देना, बढ़ावा देना या भड़काना जैसे स्वैच्छिक ”Go Slow” वर्किंग घण्टों के बाद कार्य भवनों में घूमते फिरना या प्रबन्धकीय या अन्य स्टाफ सदस्यों में किसी का ‘घिराव’ |
(6) सेवायोजकों या प्रबन्धकीय या अन्य स्टाफ के घरों पर प्रदर्शन करना ।
(7) उद्योग से जुड़ी सेवायोजक सम्पत्तियों के प्रति स्वैच्छिक हानि में शामिल होना या उकसाना ।
(8) हिंसा या शक्ति की गतिविधियों में शामिल होना या किसी कर्मचारी के विरुद्ध उसको कार्य से रोकने के विचार से दमन की धमकियाँ देना ।
Essay # 4. औद्योगिक सम्बन्धों में कीर्तिमान (Milestone in Industrial Relations):
भारत में औद्योगिक सम्बन्धों के निम्न महत्वपूर्ण कीर्तिमान है:
1. 1947:
(a) औद्योगिक विवादों के निपटान की स्थायी व्यवस्था के साथ औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 को लागू किया जाना ।
(b) औद्योगिक शान्ति बनाये रखने तथा सहयोग जुटाने के लिए श्रम तथा प्रबन्ध के प्रति अपील की व्यवस्था के साथ “Industrial Truce Resolution” किया जाना ।
2. 1947-1956:
(a) अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के समान संस्था के रूप में Indian Labour Conference व्यवस्था की गई जहाँ सरकारी कर्मचारियों के तथा श्रमिकों के प्रतिनिधि नियमित तौर पर मिलते हैं, तथा वैधानिक उपायों की सिफारिशें देते हैं । यह एक त्रिपक्षीय संस्था है ।
(b) अनेक वैधानिक उपायों को ILC से प्राप्त सिफारिशों के आधार पर भारतीय संसद द्वारा लागू किया गया ।
3. 1957-65:
(a) 1957 में औद्योगिक सम्बन्धों का मुख्य जोर ‘Legalism’ से हटकर ‘Voluntarism’ की ओर आया । इस अवधि में अधिक-से-अधिक श्रम कानूनों को लागू करने के स्थान पर ILC ने श्रम तथा प्रबन्ध के बीच स्वैच्छिक समझौते पाने के प्रति काम किया जैसे Code of Discipline, JMC आदि ।
(b) अनुशासन संहिता को 1957 में लागू किया गया ।
(c) संयुक्त प्रबन्ध परिषद् (JMC) की स्थापना की गई ।
(d) कार्य समिति की स्थापना की गई ।
4. 1962-71:
(a) इस अवधि के दौरान सामाजिक तथा राजनीतिक आपदाओं के कारण भारत में औद्योगिक सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न हुई । महत्वपूर्णघटनाएँ थीं: 1962 का चीनी आक्रमण, 1964 में पंडित नेहरू का निधन, 1965 तथा पुन: 1971 में पाकिस्तान से युद्ध तथा 1969 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का विभाजन ।
(b) National Commission for Labour (NCL) की 1966 में नियुक्त की गई । इसने 1969 में अपनी सिफारिशों को अन्तिम रूप दिया । NCL की कुछ सिफारिशों जिनको ILC द्वारा देखा गया तथा नीति विषयक निर्णय लिए गए यथा Bargaining Agent की मान्यता, ट्रिब्युनल आदि के स्थान पर Industrial Relations Commission का गठन, आदि । वैसे इन सिफारिशों के बाद की सरकारों ने कभी लागू नहीं किया ।
5. 1975-76:
(a) इस अवधि के दौरान व्यापक औद्योगिक अशान्ति बनी रही ।
(b) जून 1975 में आपातकाल की घोषणा हुई तथा मौलिक अधिकारों पर प्रहार हुआ ।
(c) National Apex Body (NAB) तथा State Apex की NLC के स्थान पर स्थापना की गई जो बीस सूत्री कार्यक्रम पर आधारित था । NAB तथा SAB द्विपक्षीय थे जिनमें सेवायोजकों तथा श्रमिकों के प्रतिनिधि शामिल थे ।
6. 1977-80:
(a) 1977 में आपातकाल को हटाया गया तथा जनता सरकार केन्द्र में सत्ता में आई तथा काँग्रेस को पहली बार सत्ता से हटना पड़ा ।
(b) 1977 में पुन: NCL को खड़ा किया गया ।
(c) आम विचार-विमर्श का दौर शुरू हुआ ।
(d) Draft IR Bill तैयार किया गया । वैसे यह कभी लागू नहीं किया गया ।
7. अस्सी के दशक के बाद:
(a) Trade Unionism के उग्रवाद ने 1980-81 मे तबाही मचा दी जब Labour Leader जैसे हिन्द मजदूर सभा के सभापति तथा Bombay Tyres के प्रबन्धक निदेशक, आदि का खून हुआ तथा हमले बोले गये ।
(b) सरकार के पास 70 हजार से अधिक औद्योगिक विवाद अनसुलझे पड़े थे तथा मूल्यों तथा बेरोजगारी का बढ़ता ग्राफ औद्योगिक अशान्ति का मूल कारण बना रहा ।
(c) सरकार ने स्थिति को सभालने के लिए 1981 में ESMA लागू कर दिया ।
औद्योगिक टकराव/विवाद उद्योग के महत्वपूर्ण भाग हैं । विभिन्न उपायों से इनका समाधान खोजे जाने की आवश्यकता है । भारत में विवाद समाधान के विभिन्न उपायों को व्यापक तौर पर बाँटा जा सकता हैं- वैधानिक उपाय, गैर-वैधानिक उपाय, तथा सरकार समर्थित गाइड लाइन्स ।
वैधानिक उपाय (Statutory Measures):
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अन्तर्गत सरकार द्वारा स्थापित तंत्र के विभिन्न प्रकारों से सम्बन्ध रखते हैं, जैसै (Labour Courts,, Industrial and National Tribunals) आदि जो विशेष विवादों के लिए हैं, जिनको सरकार उनको संदर्भित करती है । (साथ ही Works Committees) आदि की स्थापना भी वैधानिक तौर पर की गई यह देखने के लिए कि विवादों को समय रहते निपटा लिया जाता है ।)
अनेक गैर-वैधानिक उपाय (Non-Statutory Measures) जैसे Code of Discipline, Workers’ Participation in Management तथा Collective Bargaining जो स्वैच्छिक प्रकृति के हैं, तथा सरकार का समर्थन उनको प्राप्त है, ताकि विवादों के निपटान में सहायता मिले ।
ये गैर-वधानिक उपाय दोनों पक्षकारों के बीच विचार विमर्श के माध्यम से समाधान को बढ़ावा देते हैं । तथा इस प्रकार अपनी प्रकृति के कारण प्रक्रिया में तेजी लाते हैं, तथा लम्बी चौड़ी कार्यवाही को छोटा कर देते हैं ।
साथ ही, तृतीय पक्षकार का हस्तक्षेप काफी कम किया जा सकता है । तथा पूरी तरह से हटाया भी जा सकता है । केन्द्र तथा राज्यों दोनों स्तरों पर सरकारी श्रम विभागों की औद्योगिक शान्ति बनाये रखने में महत्वपूर्ण रही है ।
गैर-वैधानिक उपाय (Non-Statutory Measures):
अनुशासन की संहिता (Code of Discipline):
इसमें स्वैच्छिक तौर पर सेवायोजकों तथा श्रमिकों के केन्द्रीय संगठन द्वारा निर्मित आत्म-प्रभारित दायित्वों का समावेश है जो जून, 1958 से प्रभावी हुआ जब सरकार ने Code of Discipline को लागू करने के लिए केन्द्र तथा राज्य स्तर पर विाभिन्न संस्थाएँ स्थापित कीं । केन्द्र में यह Central Industrial Relations Machinery के रूप में है ।
अनुशासन संहिता सेवायोजकों श्रमिकों तथा यूनियनों को गाइडलाइन्स की व्यवस्था करती है । यह बताती है कि सरकार तथा यूनियनों को अपने विवादों का निपटान हेतु विद्यमान तंत्र व्यवस्था का ईमानदारी से प्रयोग करना चाहिए । उनको हड़तालों या तालाबन्दी या अनुचित श्रम व्यवहारों का कदापि सहारा नहीं लेना चाहिए ।
अधिनियम के अन्तर्गत अधिसत्ताएँ (Authorities under the Act):
औद्योगिक विवाद अधिनियम का मुख्य उद्देश्य औद्योगिक विवादों का अनुसंधान तथा प्रबन्ध करना है ।
अधिनियम में बतायी गयी औद्योगिक विवादों के निपटान की विभिन्न विधियों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है:
(I) समझौते (Conciliations):
(a) कार्य समिति (Works Committee),
(b) समझौता अधिकारी (Conciliation Officer),
(c) समझौता बोर्ड (Board of Conciliation),
(II) पंचनिर्णय (Arbitration)
Court of Enquiry
(III) न्यायीकरण (Adjudication)
(a) श्रम अदालत (Labour Court),
(b) औद्योगिक ट्रिब्यूनल (Industrial Tribunal),
(c) राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल (National Tribunal) ।
इस निपटारा मशीनरी में पहली व्यवस्था को ‘अर्द्ध प्रशासकीय तंत्र’ (Quasi-Administrative Machinery) कहा जा सकता है । क्योंकि यह प्रशासनिक सिद्धान्तों तथा नीतियों द्वारा मुख्यत: निर्देशित तथा संचालित होती है ।
इन तंत्रों का सृजन करने वाले व्यक्तियों को प्रशासनिक अनुभव तथा गुणवत्ता वाले व्यक्तियों में से चुना जाता है । वे विवादों के समाधान के लिए अपनी प्रशासनिक प्रतिभा का प्रयोग करते हैं । अन्तिम दोनों तंत्र अर्द्ध न्यायिक तत्र (Quasi-Judicial Machineries) हैं क्योंकि ये मुख्यत: न्यायायिक सिद्धान्तों से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं । इनके लिए न्यायिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को चुना जाता है ।
(I) समझौते (Conciliation):
समझौते तृतीय पक्षकार के हस्तक्षेप के माध्यम से औद्योगिक विवादों के निपटान हेतु एक महत्वपूर्ण तरीके से होते हैं । विवाद के पक्षकारों के विचारों के समाधान हेतु प्रयत्न किया जाता है ताकि वे समझौते पर आ सकें । समझौते को सामान्यत: किसी विवाद में शान्तिपूर्ण तरीके से उनके मतभेदों के समाधान हेतु पक्षकारों की सहायतार्थ एक तटस्थ व्यक्ति के मित्रमय हस्तक्षेप के रूप में देखा जा सकता है ।
वस्तुत: यह ”एक ऐसा व्यवहार है जिसके द्वारा उनके मतभेदों की मात्रा को कम करने तथा एक सहमत समाधान या मान्य समझौते तक पहुँचने के लिए विवाद के पक्षकारों की सहायता के एक माध्यम के रूप में काम लाया जाता है। यह एक Conciliator के मार्गदर्शन में किसी विवाद के पक्षकारों के बीच मतभेदों के विवेकपूर्ण तथा व्यवस्थित विचार-विमर्श की प्रक्रिया होती है।”
(a) कार्य समिति (Works Committee):
अधिनियम की धारा 3 के अन्तर्गत इन समितियों के निम्न उद्देश्य हैं:
(1) सेवायोजक तथा श्रमिकों के बीच मधुर सम्बन्ध बनाने तथा बनाये रखने के लिए उपाय विकसित करना ।
(2) सेवायोजकों तथा कर्मचारियों के बीच पारस्परिक हित के मामलों के सम्बन्ध में मतभेदों को न्यूनतम करना । इसका अर्थ है, कि सेवायोजक तथा श्रमिकों के बीच Sence of Partnership या Comradeship उत्तपन्न किया जाए ।
कार्य समिति का निर्णय न तो एक समझौता है, और न ही एक ठहराव । साथ ही यह पक्षकारों पर न तो बाध्यकारी है, तथा न ही अधिनियम के अन्तर्गत प्रवर्तनीय है ।
(b) समझौता अधिकारी (Conciliation Officer):
अधिनियम के अन्तर्गत (धारा 4) उपयुका सरकार को अधिकार है, कि औद्योगिक विवादों के निपटान के लिए सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा अपेक्षित सख्या में समझौता अधिकारियों की नियुक्ति करे ।
उसका कर्त्तव्य है विवाद में मुद्दों पर एक उचित तथा सौहार्द्रपूर्ण निर्णय के प्रति पक्षकारों को प्रोत्साहित करना । वह एक ऐसा निष्पक्ष व्यक्ति होता है, जो विवादों तथा उनको प्रभावित करने वाले मामलों का अनुसंधान करता है । वह एक न्यायिक अधिसत्ता नहीं है, वरन् मात्र एक सुझावात्मक संस्था है ।
वह कैम्प से कैम्प तक जाता है, तथा ठहराव के सर्वाधिक सामान्य उपायों को ढूँढता है । उसको औद्योगिक विवादों के निपटान में मध्यस्थता तथा विकास के कर्तव्य से प्रसारित किया जाता है ।
(c) समझौता बोर्ड (Board of Conciliation):
Industrial Disputes Act की धारा 5:
समझौता बोर्ड का उपयुक्त सरकार द्वारा एक तदर्थ संस्था के रूप में गठन किया जाता है । इसका उद्देश्य पक्षकारों को उचित तथा सौहार्दपूर्ण समझौते तक लाने के लिए मध्यस्थता देना तथा प्रोत्साहित करना है ।
अत: उपयुक्त सरकार को आपराधिक कार्यवाहियों के संदर्भ के उद्देश्यथि एक बोर्ड के गठन करने का अधिकार नहीं है । बोर्ड निर्णयों को लागू नहीं करा सकता है । यह विवाद की अपनी शर्तों को विवाद के पक्षकारों पर थोप भी नहीं सकता है ।
यह केवल तभी कार्यवाही कर सकता है, जब सरकार द्वारा उसको विवाद संदर्भित किया जाता है । बोर्ड को उसको विवाद संदर्भित किये जाने की तिथि के 2 माह के भीतर या उतनी अल्प अवधि के दौरान, जिसे सरकार तयकरे, अपनी रिपोर्ट देनी चाहिए ।
लिखित में दोनों पक्षकारों की सहमति से सरकार द्वारा इस अवधि को 2 माह तक और बढ़ाया जा सकता है । रिपोर्ट पर सभी सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए । कोई भी सदस्य dissenting minute दाखिल कर सकता है । उपयुक्त सरकार द्वारा मिलने के 3 दिन के भीतर इसका प्रकाशन किया जाना चाहिए ।
यदि कोई समाधान नहीं मिल पाता तो सरकार मामले को Labour Court, Tribunal या National Tribunal को भेज सकती है ।
(II) पंचनिर्ण (Arbitration):
Court of Inquiry (धारा 6) एक जाँच अदालत को, जब भी अवसर उत्पन्न हो, उपयुक्त सरकार द्वारा एक तदर्थ संस्था के रूप में निर्मित किया जाता है । यह औद्योगिक विवाद से सम्बद्ध किसी भी विषय की जाँच कर सकती है, वरन् स्वयं विवाद की नहीं ।
न्यायालय का गठन सरकारी गजट में प्रकाशित करना होता है । इसमें एक निष्पक्ष व्यक्तिया इतने निष्पक्ष व्यक्ति हो सकते हैं जितने सरकार ठीक समझे । यदि दो से अधिक व्यक्ति हों तो एक को चेयरमैन बनाया जायेगा । इस अदालत से विवादों के निपटान हेतु किसी भी सिफारिश को देने की अपेक्षा नहीं की जाती ।
यह शायद ही कभी नियुक्त हो क्योंकि यह अतिरंजित है, तथा मात्र एक तदर्थ संस्था है । इसको पक्षकारों पर कोई निपटान थोपने का अधिकार नहीं है । यह तो मात्र एक Fact-Finding Machinery है । यह विवादों के निपटान के संवर्द्धन के लिए कोई विशेष प्रयास नहीं करता ।
(III) न्यायीकरण (Adjudication):
उच्चतम न्यायालय द्वारा न्यायीकरण की महत्ता पर निम्न प्रकार प्रकाश डाला गया:
”जैसा कि इस प्रकार के सांविधानिक प्रश्न के निर्णय की बात है, न्यायीकरण में यह दो परस्पर विरोधी दावों के बीच उचित समायोजन करने का सदैव ही एक विषय रहा है । व्यक्तिगत नागरिक को आधारभूत अधिकार की गारन्टी है, तथा इसकी उचित प्रतिबाधा आम जनता के हित में स्वीकार्य है । अत: आम जनता के हित के दावों को उसके अधारभूत अधिकार के सम्बन्ध में व्यक्तिगत नागरिकों के दावों के प्रति तोला जाना होगा तथा संतुलित किया जायेगा । अत: न्यायीकरण की दशा में भी अनुबन्ध की स्वतंत्रता पर आधारित सेवायोजक के दावों को सामाजिक न्याय के लिए औद्योगिक श्रमिकों के दावों के साथ समायोजित किया जाना होता है ।”
न्यायीकरण की विभिन्न विधियाँ हैं:
(a) श्रम अदालत (Labour Court):
(धारा 7) अधिनियम की द्वितीय अनुसूची में निर्दिष्ट किसी मामले के सम्बन्ध में औद्योगिक विवादों पर न्यायीकरण हेतु ऐसे अन्य कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जैसा उनको संदर्भित किया जाये, सरकारी गजट में अधिसूचना द्वारा उपयुक्त सरकार द्वारा श्रम अदालत गठित किया जा सकता है ।
द्वितीय अनुसूची (Second Schedule) में एक निर्दिष्ट विषय है:
(1) स्थायी आदेशों के अन्तर्गत एक आदेश देने के लिए एक सेवायोजक की वैधानिकता या औचित्य;
(2) स्थायी आदेशों का लागू होना तथा निर्वचन;
(3) गलती से हटाये गये श्रमिकों को सहायता देने या पुन: नियुक्ति सहित निष्कासन (Discharge or Dismissal or Termination of Service)
(4) किसी विशेषाधिकार को हटाना (Withdrawal of any Costomary Concession or Privilege)
(5) एक हडताल या तालेबन्दी की अवैधानिकता या अन्यथा;
(6) तृतीय अनुसूची में निर्दिष्ट मामलों के अतिरिक्त अन्य सभी विषय तथा अन्य सभी कार्यों को करना जो इसे सौंपे जा सके ।
(b) औद्योगिक ट्रिब्यूनल [Industrial Tribunal (Section 7A)]:
एक औद्योगिक ट्रिब्यूनल को स्थायी तौर पर या एक तदर्थ आधार पर सीमित अवधि के लिए नियुक्त किया जा सकता है ।
तृतीय अनुसूची में निर्दिष्ट मामले हैं:
(1) मजदूरी, भुगतान की अवधि तथा तरीके सहित;
(2) क्षतिपूरक तथा अन्य भत्ते;
(3) काम के घण्टे तथा आराम के अन्तराल;
(4) मजदूरी के साथ छुट्टियाँ तथा अवकाश;
(5) बोनस, लाभ विभाजन, भविष्य निधि तथा ग्रेच्युटी;
(6) स्थायी आदेश के अनुसार न होकर अन्यथा Shift Working;
(7) ग्रेडों का वर्गीकरण;
(8) अनुशासन के नियम (Rules of Discipline);
(9) विवेकीकरण (Rationalisation);
(10) कर्मचारियों की छँटनी तथा किसी संस्थान या संस्था का बन्द होना; तथा
(11) कोई अन्य विषय अधिनियम के अन्तर्गत सौंपा जा सके ।
औद्योगिक ट्रिब्यूनल एक न्यायिक संस्था है, तथा कम-से-कम एक अर्द्ध न्यायिक संस्था तो है ही । अत: इसको पक्षकारों को नामजद नोटिस जारी करने चाहिए । उचित नोटिस दिये बिना दिया गया कोई भी निर्णय मूलत: गलत हो जाता है ।
अधिनियम से यह स्पष्ट है कि ट्रिब्यूनल की तब स्थापना की जाती है जब एक औद्योगिक विवाद उत्पन्न होता है, तथा यह एक सामान्यत: तब तक काम करता है, जब तक विवाद निपट नहीं जाता ।
जब भी एक नया ट्रेब्यूनल नियुक्त किया जाता है, यह अपेक्षा की जाती है, कि नये सिरे से सुनवाई हो, विशेषत: जब पक्षकार अनुभव करें कि किसी पक्षकार के प्रति कोई पक्षपात हो सकता है । ट्रिब्यूनल से आशा की जाती है कि बिना किसी भी पक्षपात के मामलों पर निर्णय दे ।
(c) राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल (National Tribunal) (धारा 7B):
केन्द्रीय सरकार, सराकरी गजट में अधिसूचना द्वारा ऐसे औद्योगिक विवादों के न्यायीकरण हेतु एक या अधिक राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल्स की स्थापना कर सकती है ।
(i) राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों वाले विवाद, या
(ii) जो ऐसी प्रकृति के हैं कि उनके विवाद से एक से अधिक राज्यों में उद्योग प्रभावित हो सकते हैं, या हित रख सकते हैं ।
जब कोई मामला राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल को सौंपा जा चुका हो तो कोई भी Labour Court या Industrial Disputes ऐसे विषय पर न्यायीकरण का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं रखेगा ।
The Industrial Disputes Act, की धारा 25T के अन्तर्गत कोई भी सेवायोजक या श्रमिक या ट्रेड यूनियन, जो Trade Union Act में पंजीकृत है, या नहीं है कोई अनुचित श्रम व्यवहार (Unfair Labour Practices) नहीं करेगा ।
धारा 25U के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति जो अनुचित श्रम व्यवहार करता है, ऐसी सजा से दण्डित किया जा सकेगा जो 6 माह तक हो सके या जुर्माने से जोर 1000 तक हो या दोनों से ही दण्डित किया जा सकेगा ।
सेवायोजकों के दायित्व (Obligations of Employer):
अधिनियम के अन्तर्गत सेवायोजकों के निम्न दायित्व हैं:
(i) Works Committee का गठन तथा उसके उचित परिचालन हेतु सभी सुविधाएँ उपलब्ध कराना;
(ii) सभी ठहरावो, समझौतों तथा निर्णयों को क्रियान्वित कराना तथा सभी प्रपत्र पेश करना,
(iii) विवादों के समाधान तथा न्यायीकरण हेतु अन्य सहायता देना,
(iv) कोई अवैधानिक पालेबन्दी, छँटनी तथा निष्कासन को घोषित करने से परहेज करना, क्षतिपूर्ति तथा पुनः नियुक्ति हटाये हुए तथा छँटनी किये गये श्रमिक को देना,
(v) बिना नोटिस के सेवा या रोजगार की शर्तों में कोई परिवर्तन न करना;
(vi) समझौते तथा न्यायीकरण पर विवादों के लम्बित रहने के दौरान यथास्थिति बनाये रखना तथा विवादों से सम्बद्ध किसी कर्मचारी तथा एक protected workmen के विरुद्ध कोई अनुशासनात्मक कार्य वाही न करना ।
(A protected workmen is a workman who is a member of the executive or other bearer of a registered trade union connected with the establishment.)
(a) सेवायोजकों के अधिकार (Rights of Employers):
सेवायोजकों को निम्न के प्रति अधिकार है:
(i) अधिनियम के अन्तर्गत व्यवस्थानुसार कर्मचारियों की छँटनी करने;
(ii) पंचनिर्णायकों तथा ट्रिम्मुनलों के निर्णयों के विरुद्ध अपील करने;
(iii) जब पहले से ही हड़ताल हो तो बिना नोटिस के तालाबन्दी घोषित करना;
(iv) अधिनियम के अन्तर्गत विभिन्न सत्ताओं की दी गई कुछ सूचनाओं को गुप्त जताना ।
(b) श्रमिकों के दायित्व (Obligations of Workers):
श्रमिक को रहना होगा:
(i) ट्रिब्यूनल तथा पंच-निर्णायकों द्वारा दिये गये निर्णयों तथा समझौतों में निकले ठहरावों या निपटानों का पालन करना;
(ii) किसी अवैधानिक हडताल को घोषित करने या प्रेरित से परहेज करना;
(iii) विवादों के शान्तिपूर्ण निपटान में अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित सभी अधिसत्ताओं को सहयोग देना ।
(c) श्रमिकों के अधिकार (Rights of Workers):
(i) सेवा की शर्तों तथा अपने कामकाज में किसी परिवर्तन का नोटिस पाना;
(ii) छँटनी का हर्जाना पाना;
(iii) एक पंजीकृत ट्रेड यूनियन के एक अधिकारी द्वारा अधिनियम के अन्तर्गत किसी कार्यवाही में प्रतिनिधित्व पाने का अधिकार जिसका वह एक सदस्य है, या किसी उसी उद्योग के किसी अन्य श्रमिक द्वारा प्रतिनिधित्व करा पाना जिससे वह सेवारत है, तथा ऐसे तरीके से अधिकृत हो जैसा कि तय किया जा सके;
(iv) सरकार के माध्यम से अधिनियम के अन्तर्गत किसी ठहराव या निर्णय के अन्तर्गत सेवायोजकों से कानूनी या अन्य देय राशियाँ वसूल करना; उसको उस तिथि के एक वर्ष के भीतर अपना दावा प्रस्तुत करना होगा जब सेवायोजक से राशि देय हो ।
पाँचवीं अनुसूची (The Fifth Schedule (Section 2):
अशोभनीय श्रम व्यवहार (Unfair Labour Practices):
1. सेवायोजकों तथा उसकी यूनियनों की ओर से
(1) एक ट्रेड यूनियन के रूप में संगठित होने, बनाने, शामिल होने या सहायता करने के उसके अधिकारों के प्रयोग में बाधा डालना रोकना या उत्पीड़न करना अथवा सामूहिक सौदेबाजी या पारस्परिक सहायता या संरक्षण के उद्देश्य से समेकित गतिविधियों में शामिल होने से मना करना ।
अर्थात्:
(a) श्रमिकों को हटाने या निष्कासन की धमकी देना यदि वे ट्रेड यूनियन में शामिल हों;
(b) यदि एक ट्रेड यूनियन संगठित की जाती है, तो तालाबन्दी या बन्द किये जाने की धमकी देना;
(c) ट्रेड यूनियन संगठन की महत्वपूर्ण अवधियों पर श्रमिकों को मजदूरी वृद्धि स्वीकार करना ताकि संगठन पर ट्रेड यूनियन के प्रभावों की अनदेखी की जा सके ।
(2) किसी ट्रेड यूनियन को समर्थन देना, उस पर छा जाना या व्यवधान उत्पन्न करना;
अर्थात्:
(a) अपने श्रमिकों की एक ट्रेड यूनियन के गठन में एक सेवायोजक द्वारा सक्रिय रुचि दिखाना; या
(b) उसके कर्मचारियों या उसके सदस्यों को संगठित करने के लिए प्रयास करते हुए कई ट्रेड यूनियनों में से किसी एक का पक्ष लेना या सेवायोजकों द्वारा भेदभाव बरतना, जहाँ ऐसी ट्रेड यूनियन एक मान्य ट्रेडयूनियन नहीं हो;
(3) श्रमिकों की Employer-Sponsered की स्थापना करना ।
(4) किसी कर्मचारी के विरुद्ध भेदभाव करके किसी ट्रेडयूनियन में सदस्यता प्रोत्साहित या हतोत्साहित करना,
अर्थात्:
(a) एक श्रमिक को निकालना या दण्ड देना क्योंकि उसने एक ट्रेड यूनियन गठित करने या उसमें शामिल होने के लिए अन्य कर्मचारियों से आवेदन किया है;
(b) एक श्रमिक की छुट्टी कर देना व क्योंकि उसने एक कानूनी हड़ताल में भाग लिया है;
(c) ट्रेड यूनियन गतिविधियों के कारण कर्मचारियों की वरिष्ठता रेटिंग में परिवर्तन करना;
(d) उनकी ट्रेड यूनियन गतिविधियों के कारण अपेक्षाकृत ऊँचे पदों पर श्रमिकों की पदोन्नति मना करना;
(e) अन्य श्रमिकों के साथ तनाव पैदा करने या उनकी ट्रेड यूनियन की ताकत को कमजोर करने के लिए किसी श्रमिक को unmerited promotion देना;
(f) उनकी ट्रेड यूनियन गतिविधियों के कारण ट्रेड यूनियनों के सक्रिय सदस्यों को या पदाधिकारियों को निकाल देना;
(g) श्रमिकों का निष्कासन करना या बर्खास्त कर देना:
(i) Victimisation के तरीके से;
(ii) सद्भावना में न होकर, लेकिन सेवायोजकों के अधिकारों के अतिरंजित अनुभाव में;
(iii) झूठी गवाही या मनघडन्त गवाही के आहगर पर किसी कर्मचारी को अपराधिक मामले में फँसाना;
(iv) ठोस झूठे कारणों से;
(v) बिना अवकाश के अनुपस्थिति के मनघड़न्त आरोपों या असत्य आरोपों पर;
(vi) घरेलू जाँच के परिचालन में या अनावश्यक जल्दी में प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों की घोर अवमानना करके;
(vii) हल्के-फुल्के या तकनीकी प्रकृति के किसी दुराचरण के लिए, विशेष दुराचरण की प्रकृति की अनदेखी करके या कर्मचारी की सेवा के विगत रिकॉर्ड को देखे बिना, आवश्यकता से ज्यादा दण्ड देना ।
(5) कर्मचारियों द्वारा किये जा रहे नियमित प्रकृति के काम को समाप्त करना, तथा एक हड़ताल तोड़ने के एक उपाय के रूप में ऐसे काम को ठेकेदारों को देना ।
(6) प्रबन्ध की नीति के पालन के बहकावे पर एक अन्य स्थान को गलत तरीके से किसी कर्मचारी को बदली करना ।
(7) व्यक्तिगत श्रमिकों पर दबाव डालना जो कानूनी हड़ताल पर हों उनको काम पर आने के लिए आज्ञा देने की एक पूर्व शर्त के तौर पर एक ‘good Conduct Bond’ पर हस्ताक्षर करें ।
(8) मैरिट की अनदेखी करके श्रमिकों के एक ‘सैट’ के प्रति पक्षपात या भेदभाव दिखाना ।
(9) कर्मचारी को Badlis, Casuals या Temporaries के रूप में काम पर रखना तथा उनको ऐसे वर्षों तक चलाते रखना ताकि उनको स्थायी श्रमिकों के अधिकार या दर्जे न मिल पायें ।
(10) किसी ओद्योगिक विवाद के सम्बन्ध में किसी जाँच या कार्यवाही में एक सेवायोजक के विरुद्ध चार्ज फाइल कराने या परीक्षण के लिए किसी कर्मचारी के विरुद्ध भेदभाव बरतना ।
(11) ऐसी हड़ताल के दौरान कर्मचारियों की भर्ती कराना जो एक गैर-कानूनी हड़ताल नहीं है ।
(12) निर्णय, समझौते या ठहरावों के क्रियान्वयन में असफलता ।
(13) शक्ति या हिंसा की गतिविधियों में शामिल होना ।
(14) मान्य ट्रेड यूनियनों के साथ सद्भावना में सामूहिक तौर पर सौदेबाजी करने से मना करना ।
(15) अधिनियम के अन्तर्गत गैरकानूनी माने गये एक तालेबन्दी को प्रस्तावित करना या चलाते जाना ।