Here is an essay on ‘Collective Bargaining in India’ especially written for school and college students in Hindi language.
भारत में पंचवर्षीय योजना में बताया गया, ”यद्यपि सामूहिक सौदेबाजी जैसा कि इसको जाना जाता है, भारत में वस्तुत: अपरिचित रही है, सैद्धान्तिक रूप में राज्य द्वारा यूनियन-प्रबन्ध सम्बन्धों में उपयोग हेतु स्वीकार किया गया है ।..राज्य का प्रयास सदा यही रहा है कि पारस्परिक समझौतों सामूहिक सादेबाजी तथा स्वैच्छिक पंच निर्णयों को अधिकतम मात्रा तक बढ़ावा दें तथा इस तरह से उसके हस्तक्षेप के लिए कम-से-कम अवसर छोड़े ।…श्रमिकों का सम्बद्धता संगठन तथा सामूहिक सौदेकारी का अधिकार पारस्परिक तौर पर संतोषजनक सम्बन्ध के आधारभूत आधार के रूप में बिना किसी आपत्ति के स्वीकार किया जाना होगा । लेकिन राजनीतिक तथा आर्थिक घटको की विवशता के कारण राज्य स्वैच्छिक विचार विनिमयों को बढ़ावा थे, के लिए तैयार नहीं किये हुए तथा दोनों पक्षकारों द्वारा इसी कारण show of strength चलता रहा । अत: यह स्वय को श्रम तथा प्रबन्ध की ओर से एक पारस्परिक तौर पर स्वीकार्य ठहराव तक पहुँचने में असफलता की दशा में वैधानिक शक्तियों से पूर्ण बनाता है, जो विवादों को पंच निर्णायक को सौंपने या न्यायीकरण में भेजने में समर्थ बनाता है । लेकिन अनेक श्रम नेतागण अनिवार्य पंच निर्णय का विरोध करते रहे हैं, क्योंकि उनको विश्वास था कि इससे भारत में औद्योगिक सम्बन्धों की तस्वीर हणइमल हो जायेगी ।”
इस मुद्दे पर वी.वी.गिरि ने 1952 में आयोजित Indian Labour Conference में कहा, “Compulsory Arbitration” उन्होंने घोषित किया, ने ट्रेड यूनियन संगठन की जड़ों को काट डाला है…..यदि श्रमिक देखते है, कि उनके हितो को केवल एकजुट होकर ही पाया जा सकता है, तो उनके बीच एकता तथा ताकत के किसी बॉण्ड को बनाने की ओर अधिक आवश्यक ही नहीं है ।
लेकिन अनिवार्य पंच निर्णय इसके प्रति देखता है, कि ऐसा एक बॉण्ड जाली नहीं हो जाता….यह वहाँ एक पुलिसमैन की परह खड़ा रहता है, जो असंतोष के चिह्नों पर नजर रखता है, तथा हल्के से भड़काव पर ही पक्षकारों को महँगे लेकिन पूर्णत: संतोष प्रदान होने वाले न्याय की एक खुराक दिलाने के लिए अदालतो में ले जाता है ।
लेकिन ज्यों ही पुलिसमैन की पीठ मुड़ती है, पक्षकार दोहरे निश्चय के साथ फिंर आमने-सामने होते हैं, तथा मुकदमेबाजी का सम्पूण चक्र फिर शुरू हो जाता है । ट्रेड यूनियनों को मजबूत तथा आत्म-विश्वस्त बनने दें तथा पुलिसमैन की सहायता के बिना कुछ पाना सीखें ।
वे तब जान पायेंगे कि स्वयं को संगठित किया जाता है, तथा अपनी निजी ताकत तथा संसाधनो के माध्यम से जो चाहा गया है, वह किसी प्रकार प्राप्त किया जाता है ।
जब तक पक्षकारों को सामूहिक सौदेबाजी की तकनीक समझ नहीं आ जाती तब तक अनावश्यक शक्ति प्रदर्शन चलते जाते हैं । लेकिन ऐसे किसी व्यक्ति को किमने सुना है जिसने पानी की कुछ घूँटों को निगले बिना तैरना सीखा हो? लेकिन इस विवाद के बावजूद सामूहिक सौदेबाजी को भारत में पहली बार 1952 में लागू किया गया; तथा इसने धीरे-धीरे आने वाले वर्षों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया ।
यद्यपि सामूहिक सोदेबाजी प्रक्रिया के विकास पर सूचनाएँ बहुत कुछ कम ही रहीं हैं, तथापि Labour Bureau द्वारा दिये गये डाटा ने बताया है, कि सामूहिक सौदेबाजी के माध्यम से मजदूरी की दरों तथा सेवायोजकों की शर्तो के निर्धारण का व्यवहार राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के अधिकांश महत्वपूर्ण प्रखण्डों तक फैला हुआ है । इस सम्बन्ध में, The National Commission on Labour ने कहा है,
”अधिकाश सामूहिक सौदेबाजी (ठहराव) संयंत्र स्तर पर रही है, यद्यपि महत्वपूर्ण वस्त्र उद्योग केन्द्रों में जैसे मुम्बई तथा अहमदाबाद में उद्योग स्तरीय समझौते भी सामान्य रहे है….ऐसे ठहरावों को दक्षिण में तथा असम में बागवानी उद्योग में तथा कोयला उद्योग में भी देखा जा सकेगा ।
इनके अतिरिक्त नये उद्योग में रासायनिक, पेट्रोलियम, ऑयल रिफाईनिंग तथा वितरण, एल्युमिनियम तथा इलेक्ट्रीकल उपकरण, ऑटोमोबाइल रिपेयरिंग- स्वैच्छिक समझौतों के माध्यम से विवादों के निपटान हेतु प्रबन्ध हाल के वर्षों में सामान्य रहे हैं । बन्दरगाहों तथा गोदियों में सामूहिक समझौते व्यक्तिगत केन्द्रों के नियम बने रहे हैं ।
कुछ मामलों में सभी बन्दरगाहों को प्रभावित करने वाले मामलों में, All India Agreement भी हुए हैं । बैंकिग उद्योग में अनेक निर्णयों के बाद, सेवायोजक तथा यूनियनों ने हाल के वर्षों कि में एक-दूसरे के पास आकर सामूहिक समझौते किये हैं ।
जीवन बीमा निगम (LIC) में स्वचालन को लागू करने के प्रति सेवायोजक निर्णय को छोड्कर, जिसने कुछ केन्द्रों में औद्योगिक एकता को व्यथित किया, विवादों के निपटान हेतु पक्षकारों द्वारा टेबल पर बैठकर विचार-विमर्श का उचित उपाय बना रहा ।
विगत वर्षों में भारतीय ट्रेड यूनियनों की सौदेबाजी रणनीतियों में धीरे-धीरे किन्तु निश्चय ही व्यापक परिवर्तन आया है । आज Bargaining Table पर विचार विनिमय परम्परागत मुद्दों के ईद-गिर्द ही नहीं घूमता है; जैसे- मजदूरी, महँगाई भत्ता, रोजगार की परिस्थितियाँ आदि वरन् वैधानिक विषयों के अतिरिक्त कई गैर परम्परागत मुद्दे, भी इसमें जुड़े हुए हैं ।
जैसे अतिरिक्त तथा अच्छी कल्याण सुविधाएं, अनुषंगी अनुलाभ (Fringe Benefits) भी सामने आये हैं ।
इसके शायद निम्न कारण रहे होंग:
(A) ऐसे उद्योग जहाँ सौदेबाजी चलन में है, श्रमिकों को उचित तौर पर मौद्रिक क्षतिपूर्ति की जाती है, या अन्यथा ठीक कर लिया जाता है । यहाँ के श्रमिक भी उद्योग में अच्छी भूमिका के प्रति सजग हैं । ऐसी परिस्थितियों में जब श्रमिकों की आर्थिक आवश्यकताएँ पर्याप्तत: संतुष्ट हो जाती हैं, जो यूनियन के प्रतिनिधियों को सौदेबाजी सत्रों के लिए शायद ही कोई मुद्दे मिलें ।
(B) देश में MNCs के प्रवेश के साथ जो भारतीय कम्पनियों की तुलना में कहीं अच्छे PAY MASTERS हैं, वे भी श्रमिकों को और अच्छी कम्पनियों में रोकने के इरादे से और अच्छे पे पैकेट्स (Pay Packets) देने लगी हैं, तथा अपने श्रमिकों को आकर्षक सुविधाएँ उपलब्ध कराने लगी हैं ।
अत: अब परम्परागत मुद्दों पर ‘डील’ करने के स्थान पर सामूहिक सौदेबाजी विचार-विमर्श सामान्यत: कहीं अधिक महत्वपूर्ण मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमने लगा है, जैसे आधुनिकीकरण तथा रोजगार की परिस्थितियाँ, उत्पादकता, परिवर्तन प्रबन्धन, आदि ।
(C) कर्मचारी अपेक्षाकृत अधिक लाभों (अधिलाभों तथा कल्याण सुविधाओं) की माँगों से हटने की ओर इच्छूक होते हैं, उनमें से अधिकांश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष वित्तीय सन्निहिता के लिए माँग नहीं करती ।
सामूहिक सौदेबाजी पर राष्ट्रीय आयोग की सिफारिशें (The National Commission on Labour on Collective Bargaining):
(1) श्रम संघों की वैधानिक मान्यता की व्यवस्थाओं के अभाव में, कुछ राज्यों को छोड्कर हमारा देश सामूहिक ठहरावों तक कोई विशेष आगे नहीं बढ़ सकता है । यही नहीं, सामूहिक ठहरावों का रिकॉर्ड भी उतना संतोषजनक नहीं रहा है, जितना सामान्यत: विश्वास किया जाता है । अपेक्षाकृत व्यापक क्षेत्र तक इसका विस्तार नितान्त आवश्यक है ।
(2) सामूहिक सौदेबाजी पर भरोसे तथा अत्यधिक व्यापक क्षेत्र तथा जोर दबाव में औचित्य विद्यमान है । सामूहिक सौदेबाजी की प्रणाली द्वारा न्यायीकरण को प्रतिस्थापित करने का कोई अचानक परिवर्तन न तो अभियाचित है और न ही व्यावहारिक ।
(3) सामूहिक सौदेबाजी को बढ़ावा देने के लिए परिस्थितियाँ तैयार करनी होंगी । एकमात्र सौदेबाजी वाहक के रूप में एक प्रतिनिधिक यूनियन की वैधानिक मान्यता उनमें सबसे महत्वपूर्ण है । वह स्थान जिसमें हड़ताल/तालेबन्दी औद्योगिक सम्बन्धों की सर्वांगीण योजना में होने चाहिए फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है, सामूहिक सौदेबाजी हडताल/तालेबन्दी के अधिकार के बिना विद्यमान नहीं रह सकता है ।
सौदेबाजी की असफलता के कारण (Reasons for Bargaining Failure):
भारत में सामूहिक सौदेबाजी पर गम्भीर बल दिये जाने के बावजूद भी यह असफल रही है । कुछ लोगों का यहाँ तक कथन है कि सामूहिक सौदेबाजी व्यवस्था की कोई आवश्यकता नहीं है । यह व्यवस्था नई समस्याओं को जन्म देती है ।
इसकी असफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:
(1) श्रम संघों का बाहुल्य (Multiplicity of Unions):
भारत में आज भी श्रम संघों का बाहुल्य है । अधिकांश श्रम संघ राजनीतिक दलों से सम्बन्धित हैं । संगठन अथवा उद्योग स्तर पर कोई मान्यता प्राप्त श्रम संघ समझौता कर लेता है, तो अन्य संघ इसका विरोध करते हैं ।
कई संघ होने के कारण वे कमजोर स्थिति में हैं, और नियोक्ताओं पर दबाव बनाने में असफल हैं । श्रम संघों के पदाधिकारियों की आपसी कलह तथा एक संघ से दूसरे की लड़ाई भी सामूहिक सौदेबाजी की विफलता का कारण है ।
(2) निपटारे में विलम्ब (Delayed Settlements):
सामूहिक सौदेबाजी के अन्तर्गत विवादों के निपटारे में काफी समय लग जाता है । शीघ्र निपटारे में अनेक बाधाएँ आती हैं, इसलिए देरी के कारण सौदेबाजी असफल है ।
(3) नियोक्ता की पक्षपात मनोवृत्ति (Biased Attitude of Employer):
भारत में नियोक्ता सामूहिक सौदेबाजी के प्रति सदैव उदासीन रहे हैं । वे सौदेबाजी को अपनी स्वतंत्रता पर अंकुश समझते हैं, अत: वे इससे दूर रहने की चेष्टा करते हैं । वे कर्मचारियों का शोषण कर अधिक लाभ अर्जित करना चाहते हैं । इसके अतिरिक्त संघो की बाहुलता अन्तरसंघीय विवाद भी नियोक्ताओं के उदासीनता के कारण हैं ।
(4) सरकार की उदासीनता (Laxity of State):
सरकार की सामूहिक सौदेबाजी के प्रति उदासीनता एवं ढिलाई भी इसकी असफलता का कारण है । सरकार ने सामूहिक सौदेबाजी की सफलता के लिए कोई ठोस कदम आज तक नहीं उठाया है, कोई वैधानिक प्रावधान नहीं है । अत: सामूहिक सौदेबाजी गतिविहीन हो गई है ।
(5) समझौते की अवहेलना (Disregard to Agreement):
भारत में सामूहिक समझौते इकाई एवं स्थानीय स्तर पर हुए हैं । समझौते हो जाते हैं, मगर लागु नहीं होते । इतना ही नहीं समझौतों का खुलकर उल्लंघन और दुरुपयोग किया जाता है । अत: समझौतों की अवहेलना भी सामूहिक सौदेबाजी की असफलता का कारण है ।
(6) अन्य (Others):
भारत में सामूहिक सौदेबाजी की विफलता पक्षकारों की अनभिज्ञता प्रबन्धकों की तनाशाही प्रवृत्ति अनिवार्य पंच निर्णय पर अधिक बल वैधानिक प्रावधानों की कमी आदि के कारण भी हैं ।
अगर उपर्युका खामियों को दूर करने का प्रयास हो तथा प्रबन्धक एवं कर्मचारी तथा संघ आपसी विश्वास एवं परस्पर सहयोग की भावना से काम करें तो सामूहिक सौदेबाजी को नया आयाम प्राप्त हो सकता है ।