Here is an essay on ‘Industrial Unrest’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Industrial Unrest’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay on Industrial Unrest


Essay Contents:

  1. औद्योगिक अशान्ति की परिभाषा (Introduction to Industrial Unrest)
  2. तालाबन्दी (Lockout)
  3. औद्योगिक विवादों के चौंकाने वाले लक्षण (Striking Features of Industrial Conflicts)
  4. औद्योगिक शान्ति की स्थापना के लिये उपाय (Measures for the Establishment of Industrial Peace)
  5. औद्योगिक विवादों के नये आयाम (New Dimensions in Industrial Conflicts)
  6. नई आर्थिक नीति तथा औद्योगिक सम्बन्ध (New Economic Policy and Industrial Relation)
  7. औद्योगिक शान्ति प्राप्ति के तरीके (Ways of Achieving Industrial Peace)


Essay # 1. औद्योगिक अशान्ति की परिभाषा (Introduction to Industrial Unrest):

औद्योगिक अशान्ति से आशय उद्योग में शान्ति के अभाव से है । यह अशान्ति कर्मचारियों की माँगो एवं उनकी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा न करने के कारण उत्पन्न होती हैं । यह अशान्ति प्रारम्भ में किसी कर्मचारी की व्यक्तिगत होती है, जो शीघ्र ही पूरे उद्योग को अपना शिकार बना लेती है ।

सामान्यत: श्रमिक उच्च मजदूरी, कम कार्य तथा अच्छी कार्य सुविधाएँ चाहते हैं । जबकि नियोक्ता अधिक कार्य, कम मजदूरी पर श्रमिकों को कार्यरत रखना चाहते हैं ।

ऐसी स्थिति में श्रमिक का असन्तुष्ट रहना स्वाभाविक ही है । यदि श्रमिक असन्तुष्ट रहता है, तो उद्योग में हड़ताल, तालाबन्दी, घिराव, प्रदर्शन एवं नारेबाजी होती है, जो औद्योगिक अशान्ति का प्रतीक है ।

अशान्ति (Unrest) को कतिपय मौलिक मानवीय आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए असफलता से उत्पन्न असंतोष या असंतुष्टि द्वारा उत्पन्न एक व्यक्ति के दिमाग को एक वितरित स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है ।

डेल योडर ने अशान्ति को एक ऐसे व्यवहार के रूप में परिभाषित किया है, जो पर्याप्त अभिव्यक्ति पाने के लिए मूल मानवीय इच्छाओं या अभिप्रेरणाओं की असफलता की अभिव्यक्ति करता है ।

पीटरसन के अनुसार, “यह सुधार के लिए मानव जाति के अन्त: द्वन्द्व का एक आयाम भी होता है ।” अशान्ति एक व्यक्ति से प्रारम्भ हो सकती है, तथा तेजी से फैलती जाती है । जब तक यह एक सामाजिक बीमारी (Social Disease) नहीं बन जाती ।

अत: औद्योगिक अशान्ति से कार्य-स्थल के ऊपर किन्हीं कमजोरियों के बारे में श्रमिकों के वितरित मस्तिष्क में या अपनी मजदूरी या सुरक्षा या किन्हीं अन्य

रोजगार-सम्बद्ध शर्तों के बारे में पल रही असतुष्टि या असंतोष का संदर्भ लिया जाता है । श्रमिक सदैव ही आशावादी होते हैं, कि असंतुष्टि या अशान्ति के ये कारण उनकी सामूहिक शक्ति को समाप्त कर सकते हैं ।

अत: वे अपने-अपने संगठन बनाते हैं, तथा कुछ कदमों का सहारा लेते हैं, जिनके माध्यम से वे अपना भविष्य देखने का प्रयत्न करते हैं, चूंकि औद्योगिक अशान्ति में सही और गलत के अधिकार का प्रश्न शामिल रहता है, तथा साथ ही यह समाज के प्रत्येक वर्ग को प्रभावित करती है । यह समाज के ध्यान पर स्वयं को थोप देती है, तथा एक सामाजिक समस्या बन जाती है ।

प्रबन्ध का आधार भूत उद्देश्य सदैव ही मानवीय संसाधनों की संतुष्टि रहेगा । इनकी अनदेखी करना पूर्ण अराजकता होगी । उद्योग में अशान्ति तथा हड़ताल सामान्य हो जायेगी ।

ऐसी लापरवाही के दोहरे प्रभाव होते हैं:

(1) दृश्य कारण (Tangible Causes):

औद्योगिक अशान्ति के दृश्य कारण निम्न के लिए माँग के रूप में हो सकते हैं:

(a) मजदूरी में वृद्धि ।

(b) ओवरटाइम भत्ते में वृद्धि ।

(c) बोनस का भुगतान ।

(d) Leave Rules में और अधिक सुविधाएं ।

(e) प्रबन्ध में श्रम का प्रतिनिधित्व ।

(f) श्रम संघ को मान्यता ।

(g) उद्योग के लाभों में श्रमिकों की भागीदारी ।

(h) अन्य संस्थानों या उद्योगों में कर्मचारियों के लिए सहानुभूति ।

(i) राजनीतिक नेतृत्व ।

(2) अदृश्य कारण (Intangible Causes):

अमूर्त कारणों को मानवीय प्रकृति के अध्ययन के साथ गहनता से जोड़ा जाता है । व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को संतुष्ट करना चाहता है, लेकिन वह मार्ग जो संतुष्टि के लिए अपनी खोज में वह अपनाता है, काफी जटिल होता है, तथा कारणों, तर्कों एवं मनोभावों से संचालित होता है ।

बहुधा मार्ग अविवेकपूर्ण तथा अनैतिक-सा जान पड़ सकता है, लेकिन व्यक्ति के लिए यह पूरी तरह से विवेकपूर्ण तथा तर्क संगत लगता है । एक ही तथ्य के प्रति विभिन्न लोगों के अलग-अलग रुझान होते हैं ।

अत: मानवीय व्यवहार के साथ निपटते समय प्रबन्ध को मान लेना चाहिए कि ये मनोभाव (Sentiments) ही होते हैं, जिनको देखा जा रहा होता है । जब प्रबन्ध समान स्तर पर कर्मचारियों के कल्याण की बात करने में असफल हो जाता है, तो बहुधा टकराव विकसित हो जाते हैं ।

औद्योगिक शान्ति क्यों ? (Why Industrial Peace):

चाहे जो भी कारण हो सर्वत्र यह माना गया है, कि औद्योगिक विवाद उद्योग तथा समाज के प्रति खतरे होते हैं, क्योंकि हड़तालों के दौरान फासिस्ट तथा हिंसक प्रवृत्तियाँ बढती हैं ।

जैसे:

(i) द्वार सभाएँ आयोजित करना तथा हाथापाई करना,

(ii) Non-Strikers तथा प्रकथकर्मियों के साथ हिंसक गतिविधियाँ करना,

(iii) सभी प्रकार के नारों के साथ आन्दोलन,

(iv) जुलूस तथा प्रदर्शन निकालना सेवायोजकों के पुतले जलाना,

(v) प्रबन्धकर्मियों का घिराव करना,

(v) गैर-यूनियनीकृत कर्मचारियों पर हमला करना या छुरेबाजी करना,

(vi) (प्रबन्धकर्मियों सहित), अधिकारियों के बच्चों के अपहरण के लिए धमकी देना,

(vii) गुमनाम टेलीफोन करके कर्मचारियों या उनके परिवार के सदस्यों को डराना ।

सार्वजनिक सम्पत्ति को हानि तथा कारखाने की मशीनों से तोड़-फोड़ तथा यहाँ तक कि उन भवनों में आग लगाना जिनमें कारखाने हैं, या कारखानों में पूरी तरह से काम को ठप्प करना ।

इसी प्रकार की स्थिति औद्योगिक तथा सामाजिक अस्थिरता की ओर ले जाती है, इसलिए औद्योगिक शान्ति के अनुरक्षण हेतु आवश्यकता उत्पन्न होती है ।

”औद्योगिक शान्ति मात्र एक नकारात्मक विचारधारा नहीं है, जो औद्योगिक अशान्ति की अनुपस्थिति को उजागर करे, या बर्बादी वाली हड़ताल के निराकरण हेतु हमलावर ताकतों से समझौता करे लेकिन यह ऐसी अभिव्यक्ति करती है, कि एक उद्योग में साझेदारों के बीच समंजस्य तथा ख्याति उत्पन्न करने वाले सुखद तथा अच्छे औद्योगिक सम्बन्धों की सक्रिय विद्यमानता है, जो एक ऐसी शर्त है, जो फलदायक सहयोग का कारण तथा परिणाम दोनों ही है ।”

‘औद्योगिक शान्ति’ का एक उचित विकास ऐसी आवश्यक अपेक्षाओं द्वारा चिह्नित सुखद औद्योगिक सम्बन्धों की उपयुक्त पृष्ठभूमि की माँग करता है, जैसे राज्य द्वारा उचित मानदण्डों की स्थापना, कर्मचारियों के साथ समान शर्तों पर सौदेबाजी करने की सेवायोजकों की इच्छा अपने कर्मचारियों के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए सेवायोजकों की ओर से उत्सुकता तथा जनसामान्य की वास्तविक सहानुभूति ।

शान्तिपूर्ण श्रम सम्बन्धों के लिए विशेष उत्तरदायित्व, पूर्ण उत्पादन तथा स्थिर अर्थव्यवस्था उनके कंधों पर निहित है, जो उद्योग के परिचालन हेतु उत्तरदायी हैं, अर्थात् श्रम तथा पूंजीपति । श्रम तथा पूँजी द्वारा बिना सरकार के हस्तक्षेप के एक साथ मिलकर चलने के लिए अपने-अपने उत्तरदायित्व की मान्यता का विशेष है ।

इस सम्बन्ध में प्रो.पीगू ने ठीक ही कहा है, ”औद्योगिक समझौतों में, तंत्र व्यवस्था की पूर्गता सद्‌भावना तथा ख्याति से कहीं दूर रही है ।” यह इस तथ्य को सेवायोजकों की ओर से महसूस करने की अपेक्षा करता है ।

इस सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन कहता है, ”श्रम खरीदे तथा बेचे जाने वाली एक वस्तु नहीं है । श्रम प्रथमत: तथा अन्तत: एक मानव होता है ।”

गांधी जी ने भी बड़ी दृढ़ता के साथ कहा, ”एक श्रमिक मात्र उत्पादन का एक साधन ही नहीं है, वह अपने परिवार उद्योग तथा देश के प्रति उत्तरदायित्व का एक भाव रखने वाला अनिवार्यत: एक व्यक्तित्व है । अत: वह एक कर्तव्य प्रबुद्ध पति एक अच्छा पड़ोसी तथा एक बुद्धिमान नागरिक के रूप में आर्थिक उत्थान की अभिलाषा करता है ।”

जब इस तथ्य की अनदेखी की जाती है, तो औद्योगिक टकराव की समस्या उत्पन्न होती है । हितों के टकराव का तत्व सेवायोजक जो ‘श्रम’ का सस्ता खरीदना चाहता है, तथा श्रमिक जो उसको महँगा बेचना चाहता है के बीच विद्यमान रहता है ।

अत: सेवायोजकों तथा कर्मचारियों के बीच सहयोग औद्योगिक शान्ति का महत्वपूर्ण पहलू है । जब तक साझेदारी की भावना औद्योगिक सम्बन्धों की भावना नहीं बन जाती, उद्योग के विद्यमान उत्पाद के विभाजन के प्रति टकराव अपेक्षाकृत अधिक उत्पादकता के लिए सहयोग की आवश्यकता को अस्पष्ट कर देंगे ।

अत: सहयोग के बिना राज्य सेवायोजकों तथा कर्मचारियों की अच्छी गतिविधियों तथा भावनाओं को अनुचित हस्तक्षेप के रूप में समझा जा सकता है ।


Essay # 2. तालाबन्दी (Lockout):

एक ‘तालाबन्द’ का अर्थ है व्यवसाय के एक स्थान का अस्थायी बन्द होना या रोजगार का अस्थायी समापन या काम का स्थगन या एक सेवायोजक द्वारा रोजगार को चलाये रखने से मनाही तथा उसके द्वारा रखे गये अनेक लोगों को रोजगार न दे पाना ।

(धारा 2 (L)) अत:

(1) एक तालाबन्दी एक औद्योगिक संस्थान को बन्द होना है, क्योंकि किसी औद्योगिक विवाद हिंसा तथा सम्पत्ति की हानि की विद्यमानता या पूर्व सम्भावना के कारण ।

(2) यह रोजगार का स्थगन है, जहाँ तक सेवायोजक कर्मचारी को काम देने से मना करता है, जब तक वे उसकी माँग के प्रति झुक नहीं जाते या उस पर डाली गई माँगों को हटा नहीं लेते, या किसी रोजगार स्थान को बन्द करने के कारण तथा काम के स्थगन के कारण ।

(3) एक तालाबन्दी एक हड़ताल के विपरीत स्थिति है । जिस प्रकार हड़ताल पर कर्मचारी चले जाते हैं, उसी प्रकार सेवायोजक के पास यह हथियार होता है, कि अपने भवनों से कर्मचारियों को बाहर कर देना तथा काम पर वापस न लौटने देना ।

(4) एक तालाबन्दी को किसी इरादे के साथ किया जाता है, अर्थात् श्रमिकों को उत्पीड़ित या विवश करना कि उसकी शर्तो पर आ जाये । अत: तालाबन्दी में अनिवार्यत: सेवायोजकों की ओर से over-act का समावेश होता है, तथा दुर्भावना की विचारधारा का एक तत्व रहता है ।

इस over-act की अनुपस्थिति में, काम का अस्थायी स्थगन एक तालाबन्दी को जन्म नहीं देगा तथा कर्मचारी बन्द रहने की अवधि के लिए मजदूरी की माँग नहीं कर सकते है ।

लेकिन निम्न में तालाबन्दी उत्पन्न नहीं होगी:

(a) एक व्यक्तिगत श्रमिक को मनाही करना तालाबन्दी नहीं है ।

(b) छँटनी द्वारा रोजगार की समाप्ति तालाबन्दी के समान नहीं है ।

(c) एक ही समय पर एक व्यक्ति से अधिक की सेवाओं की समाप्ति तालाबन्दी नहीं होगी ।

(d) एक सेवायोजक मात्र एक आधार पर तालाबन्दी की घोषणा कि कर्मचारी काम करने के लिए उपस्थित होने से परहेज कर गये तालाबन्दी नहीं है ।

तालाबन्दी तथा हड़ताल के दुष्परिणाम कुल मिलाकर उद्योग के प्रति घातक होते हैं, तथा सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था कुप्रभावित होती है, क्योंकि इससे उत्पादन की हानि होती है ।


Essay # 3. औद्योगिक विवादों के चौंकाने वाले लक्षण (Striking Features of Industrial Conflicts):

औद्योगिक विवादों के कुछ चौंकाने वाले लक्षण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं:

(1) वर्तमान समय के अनेक विवाद श्रम की ओर से पूरी तरह से लागत-लाभ प्रबुद्धता से वंचित होते हैं । अनेक विवाद कालातीत होचुके हैं । हड़तालों द्वारा उठाये गये विषय तथा यहाँ तक कि सम्पूर्ण सफलता के मामलों में परिमाणात्मक लाभ, जब श्रम की लागत द्वारा त्याग के प्रति भारित किये जाते हैं, तो श्रम की हानियों के प्रति अनुपात की कमी दिखाते हैं ।

अर्थात् श्रम हेतु लाभों की अपेक्षा सेवायोजक के प्रति यद्यपि हानि तथा क्षति रहती है, तो विवादों तथा संघर्षो का कारण रहा है ।

(2) एक अन्य महत्वपूर्ण प्रवृत्ति जो इन विवादों में देखी गई है, वह है आवृत्ति जिसके साथ व्यवस्था ने ‘Labour pressure to strike’ के साथ ‘management pressure’ का सामना किया है ।

(3) अधिकांश हड़तालें ‘राजनीतिक हड़तालें रही हैं’ अर्थात् वे किसी सही अर्थ में औद्योगिक विवाद का परिणाम नहीं रही हैं । इनमें शामिल हैं भौतिक बाधाएँ (बंद, घिराव, धरने, आदि, go-slow तथा work-to-rule) । ये सभी व्यवहार दिखाते हैं, कि टकरावों के आयाम औद्योगिक विवादों को बढ़ा रहे हैं ।

ये मानव दिवसों की हानि के कारण हो रहे हैं । उदाहरण के लिए, एक एकाकी दिन का बन्द लगभग एक मिलियन मानव दिवसों की हानि औद्योगिक राज्यों जैसे केरल, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, गुजरात, तमिलनाडु तथा आन्द्र प्रदेश में पैदा कर सकता है ।

(4) एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य है कि तालाबन्दी खोये गये अधिकतम संख्या में मानव दिवसों के लिए जिम्मेदार रहे हैं ।

ऐसी तालाबन्दी पूर्वी क्षेत्रों में अधिक रही हैं, तथा निम्न के कारण हो रही हैं:

(a) घिराव, हिंसा तथा सम्पत्ति की हानि, गाड़ियों में आग लगाना, टेलीफोन के तार काटना या छुरेबाजी तथा कल्ल करना सहित गतिविधियों में झलक रही एक उत्पाती औद्योगिक परिस्थिति के प्रति सेवायोजकों की प्रतिक्रिया ।

(b) प्रबन्ध, श्रम की परम्परागत या अधिनायकवादी शैली की आदतन प्रक्रिया (अर्थात् रोजगार को रोककर श्रम को एक सबक सिखाने का इरादा) |

एक तालाबन्दी की औसत अवधि हड़ताल की तुलना में कहीं अधिक रही है, क्योंकि तालाबन्दी सेवायोजक का प्रतिनिधित्व करती है, तथा उसका विरोध दर्शाती हैं, जो स्पष्टत: अपने संसाधनों के कारण रोकों की अवधि के दौरान कुशलता से काम चला सकता है ।


Essay # 4. औद्योगिक शान्ति की स्थापना के लिये उपाय (Measures for the Establishment of Industrial Peace):

हड़ताल और तालाबन्दी को रोकने तथा औद्योगिक विवादों को सुलझाने के लिए 1929 में श्रम विवाद अधिनियम (Labour Disputes Act) पारित किया गया । अधिनियम के अन्तर्गत हड़ताल की घोषणा से 14 दिन पूर्व सूचना देना आवश्यक है ।

इस संघर्ष को मित्रतापूर्वक सुलझाने के लिए जाँच न्याय (Court of Enquiry), तथा समझौता अधिकारी (Board of Conciliation) की व्यवस्था की गई थी । यह अधिनियम पहले केवल 5 वर्ष के लिए था, परन्तु 1934 में स्थायी हो गया ।

इस अधिनियम के अनुसार एक स्थायी समझौता परिषद् का निर्माण हुआ, परन्तु इसके निर्णय अनिवार्य रूप से लागू करने की व्यवस्था नहीं थी और साधारणत: राज्य सरकारों ने इसका उपयोग नहीं किया ।

1938 में बम्बई औद्योगिक विवाद अधिनियम (Bombay Industrial Disputes Act) पास हुआ । द्वितीय विश्व युद्ध में हड़तालों को रोक कर औद्योगिक उत्पादन में रुकावट न आने देने की दृष्टि से भारत सुरक्षा कानून (Defence of India Rule) की धारा 91 लागू की गई ।

औद्योगिक शान्ति के लिए अखिल भारतीय स्तर पर यह पहला कदम था । इसके अनुसार सरकार किसी भी उद्योग से सम्बन्धित हड़तालों पर रोक लगा सकती थी या उन झगड़ों के कारणों की जाँच करने के लिए मध्यस्थों को सौंप सकती थी । इन मध्यस्थों का निर्णय मिल मालिकों और श्रमिकों को स्वीकार करना अनिवार्य था ।

युद्ध समाप्त होते ही यह धारा समाप्त हो गई । इसके बाद 1947 में औद्योगिक विवाद अधिनियम (Industrial Disputes Act) झगड़ों की स्थायी व्यवस्था के लिए स्वीकृत हुआ । इसमें समय-समय पर अनेक संशोधन किये गये ।

औद्योगिक शान्ति की स्थापना के लिए निम्न व्यवस्था है:

(1) कार्य समितियाँ (Work Committees):

प्रत्येक कारखाने में जिसमें 100 या इससे अधिक श्रमिक काम करते हैं, कार्य समिति की स्थापना होनी चाहिए जिसमें श्रमिकों के प्रतिनिधियों की संख्या नियोक्ताओं के प्रतिनिधियों की संख्या कम नहीं होनी चाहिए । इन समितियों द्वारा उद्योगपति एवं श्रमिकों को अपने मतभेद दूर करने में सहायता मिलती है, तथा उसमें पारस्परिक सद्‌भावना का विकास होता है ।

(2) समझौता अधिकारी (Conciliation Officer):

विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा समझौता अधिकारी नियुक्त किये गये हैं । जहाँ स्थायी व्यवस्था नहीं है, वहाँ समय-समय पर किसी संघर्ष के लिए या किसी उद्योग विशेष के लिए ऐसे अधिकारी नियुक्त किए जाते है, जो दोनों पक्षों में मतभेद दूर कराने एवं समझौता कराने का प्रयत्न करते हैं ।

(3) समझौता बोर्ड (Board of Conciliation):

सरकार आवश्यकता पड़ने पर समझौता बोर्ड की नियुक्ति कर सकती है । इसमें एक निष्पक्ष अध्यक्ष के अतिरिक्त दोनों पक्षों की ओर से एक-एक या अधिक सदस्य हो सकते हैं । बोर्ड दोनों पक्षों में समझौता कराने का प्रयत्न करता है, तथा साधारणत: दो महीने के अन्दर अपनी रिपोर्ट सरकार को दे देता है ।

(4) जाँच न्यायालय (Court of Enquiry):

राज्य सरकार किसी विवाद को किसी जाँच न्यायालय के सुपुर्द कर सकती है । इसके लिए एक या एक से अधिक व्यक्ति नियुक्त किये जा सकते हैं । यदि इनमें एक या एक से अधिक सदस्य हैं, तो उनमें से एक का अध्यक्ष होना आवश्यक है । जाँच न्यायालय को सामान्यत: 6 महीने के अन्दर अपनी रिपोर्ट सरकार को देनी होती है ।

(5) श्रम न्यायालय (Labour Court):

यह न्यायालय यथाशीघ्र अपनी कार्यवाही को पूरा करके अपना निर्णय सरकार को देता है । संघर्ष से सम्बन्धित किसी वैधानिक पहलू (Legal Aspect of the Conflict) पर विचार करने या वैधानिक स्थिति से अवगत होने के लिए राज्य सरकार इस प्रकार के श्रम न्यायालय नियुक्त कर सकती है ।

(6) औद्योगिक न्यायालय (Industrial Court):

अनिवार्य रूप से संघर्ष निपटाने के लिए सरकार एक औद्योगिक न्यायालय भी नियुक्त कर सकती है, जिसमें एक या दो उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय के न्यायाधीश होंगे । इस न्यायालय की नियुक्ति तब होती है जब समझौता बोर्ड संघर्ष निपटाने में असफल हो जाता है । इस न्यायालय का निर्णय दोनों पक्षों को मान्य होता है ।

(7) समझौता तथा निर्णय अवधि में हड़ताल या तालाबन्दी को वर्जित कर दिया गया ।

(8) लोक-हित वाले उद्योगों में हड़ताल घोषित करने से 6 सप्ताह पूर्व सूचना देना अनिवार्य कर दिया गया ।

(9) अवैध हड़तालों में सम्मिलित होने वालों तथा आर्थिक सहायता देने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था कर दी गई है ।

1951 में सकरार ने श्रम सम्बन्धी अधिनियम (Labour Relations Act) पास किया । इसके अनुसार सरकार कई प्रकार के अधिकारियों की नियुक्ति व न्यायालय स्थापित कर सकती है । जब कोई संघर्ष हो या होने की सम्भावना हो तो कोई भी पक्ष दूसरों को संघर्ष निपटाने की सूचना दे सकता है ।

यदि संघर्ष साधारण उद्योग में 7 दिन में तथा लोक हित उद्योग में 14 दिन के अन्दर तय नहीं होता तो सरकार इसे बोर्ड न्यायालय को सौंप सकती है । यदि फिर भी समझौता न हो तो रिपोर्ट सरकार को सौंप दी जाएगी ।

अपील का सर्वोच्च न्यायालय अपील न्यायाधिकरण (Appellate Tribunal) है, जिसका निर्णय दोनों पक्षों को मान्य होगा । अपील न्यायालय के निर्णय 30 दिन के अन्दर समाप्त करने या परिवर्तन करने का अधिकार है ।

नियम विरुद्ध हड़ताल या तालाबन्दी के लिए भड़काना एक अपराध होगा । जो श्रमिक नियम के विरुद्ध हड़तालों में भाग लेंगे उन्हें हडताल अवधि का वेतन, छुट्टी व बोनस, आदि से वंचित कर दिया जाएगा ।

उचित कारणों से श्रमिकों की छँटनी (Retrenchment) करने पर श्रमिकों को क्षतिपूर्ति मिलेगी जो एक वर्ष की नौकरी के पीछे 15 दिन की मजदूरी भत्ते सहित मिलेगी ।

1956 के एक अधिनियम के अनुसार श्रम अपील न्यायाधिकरण (Labour Appellate Tribunal) समाप्त कर दिया गया है ।

उसके स्थान पर निम्न तीन न्यायालय की व्यवस्था की गई है:

(1) श्रम न्यायालय (Labour Court):

यह न्यायालय श्रमिकों को काम पर से अलग करने या हटाने, हड़ताल या तालाबन्दी होने पर श्रमिकों की काम करने की दशाओं आदि के झगड़ों को तय करेगा ।

(2) औद्योगिक न्यायाधिकरण (Industrial Tribunals):

इस न्यायाधिकरण में निम्न झगड़े सुलझाये जायेंगे:

(i) 100 से अधिक श्रमिकों को प्रभावित करने वाले झगड़े ।

(ii) मजदूरी सम्बन्धी झगड़े ।

(iii) क्षतिपूर्ति तथा अन्य भत्ते सम्बन्धी झगड़े ।

(iv) बोनस तथा प्रॉविडेण्ट फण्ड सम्बन्धी झगड़े ।

(v) मजदूरों की छँटनी सम्बन्धी झगड़े ।

(vi) अनुशासन एवं विवेकीकरण सम्बन्धी झगड़े ।

(3) राष्ट्रीय न्यायाधिकरण (National Tribunals):

यह न्यायाधिकरण राष्ट्रीय महत्व के झगड़ा को सुलझायेगी । इसके निर्णय के विरुद्ध कोई अपील नहीं होगी । श्रमिक व मिल मालिक स्वत: इच्छा से लिखित समझौते द्वारा अपना झगड़ा मध्यस्थ को सौंप सकते हैं । वे झगड़े जिनसे उत्पादन में रुकावट होती है, ऐसे झगड़े जल्द निपटाये जायेंगे ।

1957 में भारतीय सम्मेलन द्वारा अनुशासन संहिता (Code of Discipline) का प्रतिपादन किया गया जिसका उद्देश्य श्रमिकों एवं नियोक्ताओं को आत्मसंयम से बाँधना है, जिससे कि वे अपने कारखाने में पारस्परिक सद्व्यवहार एवं सहयोग का वातावरण रख सकें और मतभेदों को स्वैच्छिक बातचीत, समझौते या पंच निर्णय के द्वारा तय कर सकें ।

1962 में उद्योगपतियों एवं श्रमिकों के प्रतिनिधियों ने औद्योगिक शांति प्रस्ताव पास किया । इस प्रस्ताव में यह कहा गया है, कि आपातकालीन स्थिति में कोई ऐसा काम किसी भी पक्ष के द्वारा नहीं उठाया जायेगा जिससे कारखानों आदि में काम बन्द हो तथा उत्पादन को हानि पहुँचे ।

साथ ही उत्पादन में अधिक-से-अधिक वृद्धि करने एवं मूल्यों को स्थिर रखने तथा बचत अभियान में पूरा सहयोग दिया जायेगा । वास्तव में इस प्रस्ताव को पास करके श्रमिकों एवं उद्योगपतियों ने एक अत्यन्त ही सराहनीय कार्य किया है ।

औद्योगिक संघर्षों को रोकने सम्बन्धी उपाय:

औद्योगिक संघर्ष उत्पन्न ही न हो, इस सम्बन्ध में निम्न प्रयास किये गये है:

(1) अनुशासन संहिता:

भारतीय श्रम-सम्मेलन ने 1957 में एक अनुशासन संहिता सम्बन्धी प्रस्ताव पारित किया जिसका उद्देश्य था कि श्रमिक और नियोक्ता पारस्परिक विचार-विमर्श द्वारा अपनी समस्याओं एवं मतभेदों का समाधान करेंगे ।

(2) संयुक्त प्रबन्ध परिषदें:

श्रमिकों के प्रबन्ध में भागीदारी की योजना लागू करने के संदर्भ में अनेक औद्योगिक उपक्रमों में संयुक्त प्रबन्ध परिषदों की स्थापना की गई है ।

(3) संयुक्त विचार-विमर्श:

पारस्परिक विचार-विमर्श द्वारा एक-दूसरे पक्ष की स्थिति और कठिनाई समझने तथा आपसी द्वेष एवं सन्देह को समाप्त करने के लिए संयुक्त विचार-विमर्श की प्रथा प्रारम्भ की गई । राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह के बोर्ड की स्थापना 1952 में “Joint Consultative Board of Industry” के नाम से की गई ।

(4) मजदूरी मण्डल:

औद्योगिक संघर्षों का महत्वपूर्ण कारण मजदूरी व भत्ते की समस्या है । अत: 1957 के भारतीय श्रम सम्मेलन में देश के प्रमुख उद्योगों में मजदूरी मण्डलों की स्थापना का निर्णय लिया गया । देश के प्रमुख उद्योगों में मजदूरी मण्डल स्थापित किये जा चुके हैं ।

(5) ऐच्छिक मध्यस्थता:

ऐच्छिक मध्यस्थता द्वारा औद्योगिक संघर्षों को निपटाने की भी व्यवस्था की गई । 1979 के अन्त तक मजदूरी एवं मालिक के बीच 16,970 में से 9,621 मामले स्वैच्छिक पंच निर्णय द्वारा निपटाये गये एवं विभिन्न राज्यों में राष्ट्रीय पंच निर्णय प्रोत्साहन मण्डल एवं मध्यस्थला प्रोत्साहन मण्डलों की स्थापना हुई ।

(6) जबरन की और छँटनी पर प्रतिबन्ध:

सरकार ने 1947 के नियमो में जबरन छुट्टी एवं छँटनी के लिए 1976 में संशोधन करके इस पर आवश्यक प्रतिबन्ध लगा दिया । अब किसी भी उपक्रम में जिसमें 300 या अधिक श्रमिक कार्य कर रहे हों उसमें बिना 3 माह पूर्व अनुमति लिए जबरी छुट्टी या तालाबन्दी नहीं हो सकेगी ।

(7) औद्योगिक विभ्रान्ति प्रस्ताव:

नवम्बर, 1962 में नियोजक एवं श्रमिकों द्वारा एक संयुक्त बैठक में औद्योगिक विभ्रान्ति का प्रस्ताव किया गया इस प्रस्ताव में उत्पादन कार्य में विघ्न न डालने, उत्पादन को अधिकतम करने, प्रतिरक्षा प्रयासों को प्रोत्साहित करने का संकल्प किया गया ।

(8) आवश्यक सेवा अध्यादेश, 1981:

जुलाई 1981 में केन्द्रीय सरकार ने आवश्यक सेवाओं में हड़तालों पर रोक लगाने, गैर-कानूनी हड़ताल न करने अथवा ऐसी हड़ताल करने के लिए भड़काने वाले व्यक्तियों को दण्ड देने की व्यवस्था करने के उद्देश्य से एक अध्यादेश पास किया जिसे अधिनियम का रूप दे दिया गया है । इस अधिनियम के माध्यम से सरकार आवश्यक सेवाओं पर प्रतिबन्ध लगा सकती है ।


Essay # 5. औद्योगिक विवादों के नये आयाम (New Dimensions in Industrial Conflicts):

विभिन्न घटक औद्योगिक विवादों के नये आयामों को स्पष्ट करते हैं । ये हैं श्रम की बदलती छवि सामाजिक परिदृश्य में परिवर्तन तथा देश में आर्थिक अन्त निर्भरता का विकास ।

श्रम की बदलती छवि एक महत्वपूर्ण घटक रहा है । आधुनिक श्रमिक पिछले 48 वर्षों में शोषित, अशिक्षित, गरीबी से पीड़ित, ग्राम्य सम्बद्ध ग्रुप से काफी जूझकर ऊपर उठे हैं । आज का औद्योगिक श्रम कल के उस घुमक्कड़ ग्रामीण श्रमिक से एकदम बदल चुका है, जो अपने गाँव से नगर तथा शटलिग करता रहता था । आज आर्थिक नजरिये में वह पूरी तरह शहरी बना है ।

सामाजिक तौर पर भी श्रमिक बदल चुके हैं । वे शहरी औद्योगिक संस्कृति को आत्मसात कर चुके हैं, वे अर्द्ध निपुण तथा अत्यन्त निपुण औद्योगिक गतिविधियों को संभालने में सक्षम हैं ।

सर्वोपरि है कि वे आज बड़े संयुक्त परिवारों में एकमात्र भरण-पोषक नहीं रहे हैं । श्रमिकों के जीवन में परिवर्तन ने नये रुझानात्मक तथा व्यवहारात्मक पैटर्न को जन्म दे दिया है ।

भारतीय समाज का भी भारी बदलाव देखा गया है- एक प्रजा के समाज (Society of Subjects) से वे नागरिकों (Citizens) के दर्जे तक पहुँचे हैं । अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण ने अपने दौर में प्रौद्योगिकी में विकास, संगठनात्मक जटिलताओं तथा बढती आर्थिक अन्त:निर्भरता को जन्म दिया है ।

परिणामस्वरूप श्रमिकों को पुरानी शैली वाले बाँसों के आदेशों हेतु प्रतीक्षा के स्थान पर विवेक, पहल तथा आत्मप्रबन्धन पर भरोसा करने के लिए सशक्त तरीके से कहा जा रहा है । अपरिहार्य तौर पर परम्परागत संस्कृति को ठीक वैसे ही देखा जा रहा है, जैसे Subject एक ऐसे व्यक्ति के प्रति स्थान छोड़ चुके है, जिसमें औद्योगिक श्रम स्वयं को देखना चाहता है ।

फिर भी एक अन्य परिवर्तन जिसकी चुनौती पर सामना करने के स्थान पर हमला बोला जा रहा है, वह है एक तकनीकी तौर पर परिष्कृत उद्योग में शामिल ऊँचे हितों के कारण शीघ्र निर्णय लेने की आवश्यकता हमारे उद्योग, विशेषत: वे जो सार्वजनिक क्षेत्र में हैं, शीघ्र व्यूहरचनात्मक निर्णय लेने के लिए स्वतंत्रता या पर्याप्त सक्षमता के बिना तंत्र को प्रबन्धित तथा नियंत्रित करने पर जोर देते हुए मालिकों की व्यापक दुर्भावना से पीड़ित रहते हैं ।

यह स्वाभाविक तौर पर संकट को बढा देता है । उपगमन में एक आधारभूत परिवर्तन की जरूरत है, यदि इन चुनौतियों का सामना करना है । जिसकी माँग है, कि वर्तमान उपगमन की सम्पूर्ण पर्याप्तता की एक प्रबुद्धता है, तथा इन चुनौतियों के लिए एक मशीनरी की स्थापना की आवश्यकता है ।

जहाँ तक विवाद निदान तंत्र व्यवस्था का सवाल है । उल्लेखनीय है कि Industrial Disputes Act, 1947 को केन्द्रीय सरकार द्वारा लागू किया गया तथा यह युद्ध काल के दौरान उद्योग के प्रबन्ध हेतु ब्रिटिश भारतीय सरकार द्वारा बनाई गई Defence of Indian Rules तथा 62 पर आधारित है ।

आपातकालीन प्रावधानों के प्रति ‘अनिवार्य न्यायीकरण’ के तीसरे आयाम तथा तृतीय पक्षकार (सरकारी) हस्तक्षेप को और जोड़ा गया । सम्पूर्ण प्रक्रिया का राजनीतिकरण किया गया । अत: जब तक D.I.R. के इन प्रावधानों को समाप्त नहीं किया जाता औद्योगिक अशान्ति का कोई भी टिकाऊ समाधान नहीं मिल पायेगा ।

यह स्पष्ट है कि औद्योगिक सम्बन्धों को तंत्र व्यवस्था को फ्रेमवर्क के भीतरी विवादों को हल करना चाहिए तथा एक गतिशील द्विपक्षीय व्यवस्था की भावना हो जैसे पति तथा पत्नी शादी के ढाँचे के भीतर स्वय अपनी समस्याओं को हल करते हैं ।

औद्योगिक शान्ति के तरीके (The Ways of Industrial Peace):

आधुनिक औद्योगिक तंत्र के प्रभावी संचालन के प्रति महत्वपूर्ण चुनौतियों में एक जान पड़ती है, बढ़ती औद्योगिक अराजकता जो सेवायोजक तथा श्रमिकों के बीच बिगडते सम्बन्धों से लीक्षत होती है । सेवायोजक तथा कर्मचारी के बीच खाई पहले से कहीं अधिक चौड़ी हुई है ।

वितरणात्मक विसंगतियाँ और बिगड़ी हैं । अपेक्षाकृत निचले स्तर पर असंतोष तथा नैराश्य काफी बढ़ा है । अत: यदि चीजों को उनके उचित ढाँचे में नहीं रखा जाता तो ‘grand’ औद्योगिक तानाबाना सुधारा नहीं जा सकेगा ।

यह ‘औद्योगिक शान्ति’ के अनुरक्षण की महत्ता को उजागर करता है । जैसा कि एक लेखक ने कहा है, “औद्योगिक शान्ति मात्र एक नकारात्मक विचारधारा नहीं है, जो औद्योगिक अशान्ति की अनुपस्थिति को उजागर करे, विप्लवकारी शक्तियों के समाधान ताकि बर्बादी वाले टकराव का निराकरण हो सके वरन् यह अच्छे तथा सुखद औद्योगिक सम्बन्धों की सक्रिय उपस्थिति को भी उजागर करती है, उद्योग में पक्षकारों के बीच एकता तथा ख्याति को उत्पन्न करते हुए एक शर्त जो लाभपूर्ण सहयोग का कारण तथा परिणाम दोनों हैं ।”

सन् 1931 में Royal Commission on Labour ने औद्योगिक सम्बन्धों को स्थिर बनाने के निम्न तीन तरीके सुझाये:

(1) श्रमिकों के कल्याण को देखने के लिए तथा सेवायोजकों के समक्ष उनकी शिकायतों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सस्थानों में labour officer की नियुक्ति श्रम तथा प्रबन्ध के बीच विकास के इरादे से स्वस्थ सम्पर्कों की स्थापना विकास के इरादे से ।

(2) औद्योगिक सस्थानों में Works Committees का गठन तथा विाइ भन्न उद्योगों के Joint Consultative Councils की स्थापना ।

(3) स्थायी तथा उत्तरदायी ट्रेड यूनियनों का विकास ।


Essay # 6. नई आर्थिक नीति तथा औद्योगिक सम्बन्ध (New Economic Policy and Industrial Relation):

1991 में New Economic Policy (NEP) की घोषणा से औद्योगिक, राजकोषीय तथा व्यापारिक सुधारों की एक श्रृंखला की सरकार द्वारा घोषणा की गई । ऐसा माना गया कि ये संरचनात्मक परिवर्तन बढ़ते जाडांक को तोड़ेंगे जो कुप्रबन्ध तथा विगत चार दशाब्दियों से अधिक से अवास्तविक आर्थिक नीतियों की निरन्तरता के कारण अर्थव्यवस्था में गहरी पैठ कर चुके हैं ।

यह स्पष्ट करना स्मरणीय होगा कि NEP में कुल मिलाकर एक नये व्यावसायिक वातावरण को उत्पन्न कर दिया है, जिसमें निजी क्षेत्र को अत्यधिक सरकारी नियंत्रणों की जाल से मुक्त कराया गया, PSUs अपनी एकाधिकारी स्थितियाँ खो चुके हैं, उद्योगों को टैरिफों तथा कस्टम शुल्कों से मुक्त किया गया, MRTP की अधिकतम सीमा को हटाया गया, FERA को काफी उदार बनाया गया, विदेशी पूँजी की पहुँच को उदार बनाया गया आदि ।

मनोहारी औद्योगिक सम्बन्धों की उत्पत्ति अपेक्षा करती है, कि सभी भागीदारों को तंत्र को क्रियान्वित रखने के लिए पूरे मन के साथ काम करने के लिए उत्साहित किया जाये । लेकिन यह स्पष्ट करना दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि भले ही वे सभी किसी गतिविधि योजना के प्रति सहमति जताते हैं, तथापि व्यावसायिक वातावरण की अराजकता तथा जीवटता गम्भीर तौर पर उनकी प्रभावोत्पादकता को खतरे में डाल देगी ।

अत: ऐसे एक परिवेश में यह कठिन हो जाता है, यदि असम्भव नहीं तो, कि इस सम्बन्ध में किसी रणनीति को अपनाया जाए ।

लेकिन नीचे दिये गये कुछ गतिविधि मार्गों को पर्याप्त विचार की आवश्यकता है:

(1) यांत्रिक अभिकल्पना को दूर रखते हुए एक अधिक मानवीय संगठनात्मक अभिकल्पना की ग्राह्यता ।

(2) Career growth के लिए योजनाओं का प्रवेश तथा नियमित प्रशिक्षण के एक तंत्र के माध्यम से उनके अप्रचलन को न्यूनतम करना ।

(3) अनुचित श्रम व्यवहारों को परहेज करना ।

(4) यूनियन तथा प्रबन्ध के बीच विश्वास विकसित करना ।

(5) प्रबन्ध तथा संगठनात्मक कामकाज के प्रभार में यूनियन समर्थन को उजागर करना ।

(6) प्रबन्ध के मानवीयकरण तथा व्यक्तिकरण के माध्यम से एक उचित कार्य संस्कृति को विकसित करना ।

सारांश में, प्रबन्ध तथा श्रमिक दोनों ही को यह महसूस करना होगा कि उनके हित अकाट्‌य तौर पर एक-दूसरे से जुड़े हैं, तथा बाहरी सहायता पर निर्भर होने के स्थान पर-राज्य या एक राजनीतिक दल-उनको स्वयं अपनी सहायता करनी होगी तथा इसमें औद्योगिक टकराव की समस्याओं का समाधान निहित है ।

सभी स्तरों पर श्रमिकों तथा कर्मचारियों के बीच स्वतंत्र तथा निर्बाध संचार; पारस्परिक भरोसा तथा विश्वास; सामूहिक सौदाकारी का विकास तथा किये गये समझौतों से आबद्ध होने की स्वेच्छा, ट्रेड यूनियन की बढ़ती ताकत की मान्यता तथा अच्छी कार्य परिस्थितियों को पाने की उनकी योग्यता कल्याण सुविधाएँ, तथा अपने सदस्यों के लिए और अधिक मजदूरी, अपेक्षाकृत श्रेष्ट श्रम-प्रबन्ध सम्बध तथा यह निश्चय कि सभी मतभेद तथा विवादों को स्वैच्छिक पंच निर्णय द्वारा हल किया जाना चाहिए- ये सभी औद्योगिक सम्बन्धों के एक नये क्षेत्र का तानाबाना है ।


Essay # 7. औद्योगिक शान्ति प्राप्ति के तरीके (Ways of Achieving Industrial Peace):

स्वस्थ औद्योगिक जलवायु को पल्लवित करने का उत्तरदायित्व प्रबन्ध, यूनियनों तथा सरकार पर आता है । राजनीतिक दल समुदाय तथा समाज द्वारा उद्योग में साझेदारों पर नैतिक प्रभाव डालकर देश में विद्यमान औद्योगिक सम्बन्धों की परिस्थिति सुधारने में एक निर्णायक भूमिका भी निभानी चाहिए ।

सुखद सम्बन्धों को बनाये रखना सभी के हित में होता है, कि यदि कोई विवाद या टकराव रहता है, तो उसको पारस्परिक समझौते या विचार-विमर्श या स्वैच्छिक पंच-निर्णय द्वारा तय किया जाना चाहिए ।

प्रबन्धक तथा यूनियनों को सहयोग में, श्रमिक के जीवन के विभिन्न पहलुओं का समावेश करने वाले एक प्रबुद्ध तथा प्रगतिशील विकास कार्यक्रम पर काम करना चाहिए ताकि श्रमिक की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके तथा उसकी सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक संतुष्टि प्राप्त की जा सके ।

इनके बिना, उद्योग टिका नहीं रह सकता है । श्रमिकों को विभिन्न अनुलाभों तथा अन्य लाभों की व्यवस्था हेतु तथा सभी उपलब्ध संसाधनों-वित्तीय तकनीकी मानवीय तथा पेशेवरके पूर्ण तथा प्रभावी उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए इनका उद्देश्य लेकर चलना चाहिये ।

औद्योगिक तनाव के कुछ मूल कारण हैं, जिनको रोका जा सकता है या कम-से-कम प्रभावी प्रबन्ध तथा यूनियन कार्यवाही द्वारा काफी कम किया जा सकता है ।

कर्मचारी सम्प्रेषण, शिकायत प्रक्रिया तथा शिकायतों का शीघ्र निपटान, श्रमिको के शिक्षण कार्यक्रम, स्वस्थ तथा स्थिर ट्रेड यूनियन Code of Discipline का ईमानदारी से पालन, मूल्य सूचकांकों के स्तर के संदर्भ में मजदूरी का संशोधन, काय दशाओं में सुधार तथा अपेक्षाकृत बड़े पैमाने पर श्रम कल्याण सुविधाओं की व्यवस्था, श्रमिकों तथा उनके परिवारों के लिए परिवहन, शिक्षा, आवास तथा स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सुविधाओं सहित-ये सभी औद्योगिक शान्ति की अभिप्राप्ति में काफी सिद्ध होते हैं ।

हड़ताल की रूपरेखा (Typology of Strikes):

सामान्य: एक हड़ताल को काम पर व्यक्तियों के मनोविज्ञान के निर्धारण हेतु कार्यवाही के एक मार्ग के रूप में या किसी राजनीतिक साध्य के निर्वहन हेतु या किसी आर्थिक उद्देश्य के लिए एक कार्यवाही के रूप में विभिन्न तरीकों से देखा जा सकता है । हड़ताल का उद्देश्य स्वरूप चाहे कोई भी क्यों न हो व्यापक तौर पर हड़तालों को प्राथमिक तथा द्वितीयक हड़तालों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है ।

प्राथमिक हड़ताल (Primary Strikes) को सामान्यत:

सेवायोजक के विरुद्ध किया जाता है, जिसके साथ विवाद विद्यमान होता है । वे Stay-away strike, stay-in, sit-down, pen-down, या tool-down हड़ताल, lightning या cat-call strike, picketing या boycott का स्वरूप ले सकते हैं ।

द्वितीयक हड़ताल (Secondary Strikes):

ऐसी हड़तालों द्वारा न केवल प्राथमिक सेवायोजक पर दबाव बनाया जाता है, जिनके साथ प्राथमिक श्रमिकों का कोई विवाद है, वरन् किसी तृतीय पक्षकार के विरुद्ध भी जिसके उसके साथ अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध हैं, तोडने का प्रयास किया जाता है, जिससे प्राथमिक सेवायोजक को हानि उठानी पड़ती है ।

ऐसी हड़ताले अमेरिका में अत्यन्त लोकप्रिय हैं । भारत में इस प्रकार की हड़ताल लोकप्रिय नहीं है, क्योंकि यहाँ ऐसा विश्वास किया जाता है, कि तीसरा व्यक्ति कोई दखल नहीं रखता जहाँ तक अपने सेवायोजक के साथ श्रमिकों के विवाद का प्रश्न है ।


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