Here is an essay on ‘International Business Environment’ especially written for school and college students in Hindi language.
Essay # 1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक पर्यावरण का अर्थ (Meaning of International Business Environment):
अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण का सृजन घरेलू पर्यावरण व विदेशी पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्ध (Interaction of Domestic and Foreign Environment) से होता है । इसके अन्तर्गत आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, कानूनी, तकनीकी आदि पर्यावरण सम्मिलित किए जाते हैं जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार व वित्त को प्रभावित करते हैं ।
इन सभी तत्वों में अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक पर्यावरण सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक पर्यावरण के अन्तर्गत मोटे तौर से जिन तत्वों को सम्मिलित करते हैं वे हैं विदेशी विनियोग, आर्थिक नीतियाँ, अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था, आर्थिक स्थितियाँ, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समझौते व अन्तर्राष्ट्रीय संगठन आदि ।
महत्व (Importance):
संचार एवं यातायात की सुविधाओं के तेजी से बढ़ते जा रहे माध्यमों के कारण विश्व का आकार बहुत छोटा हो गया है फलतः विदेशी बाजारों में आने वाली मन्दी और तेजी सभी अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करने लगी है । उदाहरण के लिए, अन्तर्राष्ट्रीय तेल के मूल्यों की वृद्धि ने सभी देशों की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित कर दिया और कार बनाने वाले निर्माताओं को ऐसी कार बनाने के लिए मजबूर कर दिया जो तेल उपभोग की दृष्टि से कम खर्चीली हो ।
अतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से सम्बद्ध व्यावसायिक इकाई की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि बदलते हुए अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण के अनुसार अपनी नीतियों में उपर्युक्त परिवर्तन किया जाये ।
विगत वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण का अध्ययन निम्नलिखित कारणों से बढ़ गया है:
a. विदेशी व्यापार में वृद्धि
b. विदेशी विनियोग में वृद्धि
c. तकनीक का स्वतन्त्र प्रवाह
d. बढ़ती हुई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की संख्या
e. वस्तुओं का स्वतन्त्र प्रवाह ।
f. अन्तर्राष्ट्रीय संगठन, जैसे – I.M.F., विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अंकटाड का बढ़ता योगदान ।
g. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक समझौतों में वृद्धि ।
h. एक देश के आर्थिक संकट, व्यापार चक्रों, आतंकवाद, युद्ध आदि का अन्य देश पर प्रभाव ।
Essay # 2. अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक पर्यावरण: वर्तमान वैश्विक स्थिति (International Business Environment: Present Global Position):
2001 में वैश्विक आर्थिक गिरावट सर्वत्र देखने को मिली तथा जो 2001 के अन्त तक शुरू हो गयी थी । ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक ऑफ द इंटरनेशनल मॉनीटरी फण्ड’ द्वारा जारी किये गये अनुमान के अनुसार 2001 में विश्व उत्पादन में मात्र 2.4 प्रतिशत वृद्धि होने की सम्भावना थी, जबकि यह वृद्धि वर्ष 2000 में 4.7 प्रतिशत थी । इस प्रकार 2001 में 2000 की तुलना में विश्व उत्पादन में 2 प्रतिशत की कमी आयी ।
वैश्विक उत्पादन में मन्दी के साथ-साथ विश्व व्यापार की मात्रा में भी तीव्र गिरावट आयी है । विश्व व्यापार में 2001 में केवल 0.1 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि वर्ष 2000 में यह अंक 12.4 प्रतिशत था ।
इसके विपरीत वर्ष 2001 में वैदेशिक वातावरण में आर्थिक गिरावट का परिदृश्य था । 11 सितम्बर, 2001 की अमेरिका की आतंकवादी घटना के बाद आर्थिक गिरावट में और भी तेजी आई ।
इस हमले ने विश्व के लगभग सभी मुख्य आर्थिक क्षेत्रों के लिए अल्पावधिक अभिवृद्धि पूर्वानुमानों (वर्ष 2001 और 2002) को अधोगामी संशोधन करने के लिए बाध्य किया । संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था में अधोगामी प्रवृत्ति का दीर्घावधिक होना अनुमानित था, जबकि जापान के लिए सम्भावनाएँ बहुत खराब हो गयीं ।
संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था में निवेश स्तरों से सम्बन्धित अनिश्चितताओं एवं उत्पादकता वृद्धि और व्यय में उपभोक्ता के विश्वास से सम्बन्धित प्रत्यक्ष बोध के रूप में कई जोखिमों के कारण व्यापारिक वातावरण बहुत खराब हो गया था ।
2001 तथा 2002 के लिए अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर क्रमशः 1 तथा 0.7 प्रतिशत थी । वैश्विक आर्थिक गिरावट के कारण पूँजी का अन्तर्प्रवाह तथा अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी बाजार तक पहुँच कम हो जाने के कारण अर्थव्यवस्थाओं के उबरने की सम्भावना भी क्षीण नजर आती थी । विकासशील एशिया की अर्थव्यवस्थाओं में भारत तथा चीन पर वैश्विक आर्थिक मन्दी का कम प्रभाव पड़ा क्योंकि इन देशों के सकल घरेलू उत्पाद में बाह्य क्षेत्र का हिस्सा बहुत कम है ।
भारत पर लगाये गये आर्थिक प्रतिबन्ध तथा पूर्वी एशियाई देशों में छायी मन्दी के कारण 1998-99 में भारत में आने वाली पपूँजी में काफी गिरावट आ गयी थी जो कि 1999-2000 में तथा पुनः 2000-01 में सुधर गयी । 2000-01 में भुगतान सन्तुलन के पूँजी खाते में निवल अन्तर्प्रवाह 9.02 बिलियन डॉलर का था जो कि पिछले वर्ष के 10.44 बिलियन डॉलर की अपेक्षा कम है ।
पूँजी अन्तर्प्रवाह में आयी गिरावट का मुख्य कारण वाणिज्यिक उधारों पर पुनर्भुगतान तथा बैंकिंग पूँजी के अन्तर्गत काफी मात्रा में पूँजी का देश से बाहर जाना था । इस प्रकार 2001-02 तक समूची विश्व अर्थव्यवस्था में मन्दी का असर रहा ।
लगभग तीन वर्षों के मन्द निष्पादन के बाद 2003 से वैश्विक आर्थिक गतिविधि में अन्ततः बहाली के विशेष संकेत दिखाई देने लगे हैं । उत्साहवर्द्धक वैश्विक अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में आशा का संचार मुख्य रूप से अमेरिकी कारोबार तथा एशिया के पक्ष में उभरते तीव्र आर्थिक दृष्टिकोण की वजह से हुआ है ।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अद्यतन विश्व आर्थिक दृष्टिकोण (डब्ल्यू.ई.ओ. अप्रैल 2004) में विश्व व्यापार संवृद्धि में वर्ष 2004 में तेजी दिखाई गयी है और यह प्रवृत्ति 2005 व 2006 तक बनी रही है, परन्तु सेवाओं और वस्तुओं का विश्व व्यापार जो 2006 में 9.2 प्रतिशत था वह 2007 में गिरकर 6.6 प्रतिशत हो गया और वर्ष 2008 में भी उसके आस-पास रहने का अनुमान है ।
जैसा कि सारणी 1 में दर्शाया गया है:
2007 में अमेरिका से प्रारम्भ सब प्राइम संकट ने शीघ्र ही सारे विश्व को भीषण आर्थिक मंदी की ओर धकेल दिया था । 2009-10 के दौरान जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी से सुधार के चिह्न परिलक्षित होने लगे तभी यूरोप के कई देशों में सम्प्रभु ऋण संकट के सिर उठाने के साथ इस पर पुनः संकट के बादल गहराते दिखाई दिए ।
यद्यपि उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर इस मंदी का प्रभाव अपेक्षाकृत कम पड़ा था । अभी भी वैश्विक आर्थिक स्थिति में विशेष सुधार नहीं हुआ है तथा उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी वृद्धि दर मंद है ।
जनवरी, 2013 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा जारी वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक (WEO) के नवीनतम संस्करण में वर्ष 2013 के लिए विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के अनुमान को पूर्व के आकलन 3.6% से घटाकर 3.5% कर दिया गया । इस कमी का प्रमुख कारण वैश्विक मंदी की छाया का अभी तक न हट पाना है ।
वर्ष 2013 में उभरती अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि के पूर्वानुमान को भी 5.6% से घटाकर 5.5% कर दिया गया है । इससे स्पष्ट है कि इनकी वृद्धि पर भी वैश्विक मंदी के प्रभाव परिलक्षित होने लगे हैं, फिर भी ये वृद्धि विकसित अर्थव्यवस्थाओं के 1.4 प्रतिशत की अपेक्षा काफी अधिक है ।
विश्व बैंक ने अपने प्रकाशन ‘ग्लोबल इकनॉमिक प्रोस्पेक्ट्स’ जनवरी 2013 में प्रमुखता से दर्शाया है कि कई देशों में भावी नीतियों में अनिश्चितता और आवश्यक वित्त एवं वित्तीय पुनः संरचना में वृद्धि काफी कम ही रहेगी ।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के अधोमुखी जोखिमों में शामिल है – संयुक्त राज्यों में यूरो क्षेत्र संकट, ऋण एवं वित्तीय मुद्दे, चीन में निवेश में तेजी से कमी की सम्भावनाएँ एवं वैश्विक तेल आपूर्ति में व्यवधान तथापि, इन जोखिमों और उनके सम्भाव्य प्रभाव की सम्भावनाओं में कमी आई है और उच्च आय वाले देशों में प्रत्याशित को सुदृढ़तर बहाली में बढ़ोत्तरी हुई है ।
आई.एम.एफ. ने जनवरी 2013 में अपने विश्व आर्थिक आउटलुक अपडेट में वैश्विक विकास का पूर्वानुमान अक्टूबर, 2012 का अनुमान 3.3% से घटकर वर्ष 2012 के लिए 3.2% हो गया । उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के 2013 में 1.4% की दर से विकास की आशा है, जबकि उदयमान एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के 2013 में 5.5% विकास दर का लक्ष्य है ।
हाल के वर्षों की भाँति, विकासशील एशिया में विकास की अगुआई चीनी अर्थव्यवस्था ने की जो निवेश तथा क्रेडिट में तीव्र बढ़ोतरी की वजह से ठोस रूप में विस्तरित होती रही है । भारत जो विकासशील एशिया की दूसरी मुख्य अर्थव्यवस्था है, ने भी क्षेत्र की विकास गति को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
विश्व बैंक के पूर्व प्रमुख वोल्फगैंग ने यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्थ में आयोजित 2006 वैलेस वुर्थ मेमोरियल लैक्चर के दौरान आने वाले भविष्य को चीन और भारत के खाते में दर्ज किया गया । जेम्स वोल्फगैंग ने भारत और चीन के सम्बन्ध में एक आकलन प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारत और चीन आने वाले समय में दुनिया के आर्थिक विकास का इंजन होंगे और समृद्ध देश इस हकीकत से जितनी जल्दी वाकिफ हो जाएँ उनके लिए उतना ही बेहतर होगा ।
आकलन के मुताबिक अगले 25 वर्षों में भारत और चीन का संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद सात अमीर देशों के समूह के संयुक्त सकल घरेलू उत्पाद से काफी अधिक हो जाएगा और 2030-40 तक चीन अमेरिका को पीछे छोड़कर महाशक्ति बन जाएगा ।
पिछले पचास वर्षों को देखा जाए तो डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार धराशयी होता गया । 2002 तक पहुँचते-पहुँचते रुपया डॉलर के मुकाबले 49 के स्तर से आगे निकल गया, अब कुछ समय से उसमें मजबूती आनी शुरू हुई है वस्तुतः रुपया 2002 के बाद से अपनी स्थिति सुधारने में प्रयासरत है । एक कारण तो भारत भुगतान शेष का फायदे में पहुँचना है ।
दूसरा कारण भारत के उन प्रयासों का परिणाम है जिनके चलते अनिवासी भारतवासियों को तरजीह देना शुरू किया गया जिससे अनिवासी भारतीयों की जमाएँ भारत की ओर उमुख हुईं । तीसरा कारण विदेशी निवेश (एफडीआई तथा एफआईआई) आगत में वृद्धि है ।
जिस मात्रा में विदेशी निवेश के तहत डॉलर की भारत में आगत अधिक होगी, उसी अनुपात में भारतीय मुद्रा बाजार में भारतीय रुपये की कीमत में वृद्धि भी आएगी ।
यद्यपि पिछले वर्ष के सराहनीय सुधारों ने गति पकड़ ली है, परन्तु हाल ही के गतिविधि संकेतक वैश्विक अर्थव्यवस्था बहाली के सुदृढ़ीकरण को कुछ अनिश्चितताओं से घिरा बताते हैं ।
जैसे:
(i) वैश्विक असन्तुलन और उनके मुद्रा बाजार पर पड़ने वाले घातक प्रभाव
(ii) ब्याज दरों के बढ़ने
(iii) कच्चे तेल के मूल्यों में अस्थिरता और
(iv) चीन की अर्थव्यवस्था को उदार ऋण की अनिश्चित सम्भावना आदि कुछ प्रमुख अनिश्चितताओं के बने रहने की सम्भावना है और इस जोखिम का सामना विश्व अर्थव्यवस्था को करना पड़ रहा है ।
ऐसे अन्तर्साट्रीय माहौल के होते हुए भी भारत के विदेशी क्षेत्र के एक अच्छे स्रोत के रूप में बने रहने की आशा है, जो इसकी वृहत् आर्थिक नीतियों के व्यवहार में सुखद स्थिति प्रदान करेगा ।
Essay # 3. विश्व व्यापार की प्रवृत्तियाँ (Trends of World Trade):
1. निर्यात व्यापार (Export Trade):
विगत वर्षों में निर्यात के मूल्य में अत्यधिक वृद्धि हुई है ।
जैसा कि निम्नलिखित सारणी के अंकों से स्पष्ट होता है:
सारणी 1 से स्पष्ट है कि:
(i) विश्व के निर्यात व्यापार में तीव्र गति से वृद्धि हुई है । विश्व का निर्यात व्यापार 1970 में 313.8 बिलियन डॉलर था जो 2011 में बढ़कर 18,255 बिलियन डॉलर हो गया अर्थात् निर्यात व्यापार में 22 वर्षों में लगभग 20 गुना वृद्धि हुई है ।
(ii) यद्यपि विश्व में निर्यात व्यापार के मूल्य में वृद्धि हुई है, लेकिन विश्व के निर्यात में भारत का हिस्सा वर्ष 1970 व वर्ष 2000 के बीच 0.7 प्रतिशत के बीच रहा है, परन्तु हर्ष का विषय है कि विश्व के कुल निर्यात में भारत का हिस्सा 2006 में बढ़कर 1.2 प्रतिशत हो गया है ।
2. वस्तु-विश्व-व्यापार में शीर्ष निर्यातक (Top Exporters in Merchandising World Trade):
सारणी के अंकों से स्पष्ट है कि:
(i) विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक देश चीन है जिसका विश्व के कुल निर्यातों में हिस्सा 10.4 प्रतिशत है ।
(ii) विश्व निर्यातकों के क्रम में USA का क्रम दूसरा है जिसका कुल विश्व निर्यातों में योगदान 8.1 प्रतिशत है ।
(iii) वर्ष 2011 में वस्तु-व्यापार में पहले पाँच शीर्ष निर्यातक देशों का हिस्सा, कुल विश्व निर्यात के निर्यात में लगभग 35 प्रतिशत था ।
(iv) जहाँ तक भारत का सम्बन्ध है उसका विश्व निर्यात व्यापार में हिस्सा मात्र 1.4 प्रतिशत और विश्व निर्यातकों में उसका क्रम 19वाँ था ।
3. विश्व के निर्यात व्यापार की संरचना की दिशा (Features of World Export Trade Composition and Direction):
गत 38 वर्षों में एंग्लो-अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देश विश्व का 65 प्रतिशत व्यापार करते थे, किन्तु अनेक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार गृह बन जाने के कारण व्यापार के इस प्रारूप में अन्तर आ गया है । शेष एशियाई देशों (जिनमें विशेषतः भारत और जापान मुख्य हैं) द्वारा किया जाता है ।
रूस परिसंघ, कनाडा और पूर्वी यूरोपीय देशों का व्यापार भी बढ़ा है । अफ्रीकी देश, ऑस्ट्रेलिया अएऐ न्यूजीलैण्ड भी विश्व के मानचित्र में व्यापारिक दृष्टि से उभरने लगे हैं, लेकिन अभी भी सम्पूर्ण व्यापार में यूरोप और एंग्लो-अमेरिकी देशों का प्रभुत्व है ।
विश्व के निर्यात व्यापार की संरचना व दिशा की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) विकासशील देशों से मुख्यतः खाद्यान्न, पेय पदार्थ, कृषिजन्य वस्तुएँ, खनिज एवं अयस्क, तम्बाकू, चाय, कहवा, चमड़ा और खालें आदि विकसित देशों को भेजी जाती हैं । मुख्य निर्यातक मॉरीशस, घाना, कोलम्बिया, श्रीलंका, इक्वेडोर, भारत, अरब गणराज्य, पाकिस्तान एवं इण्डोनेशिया आदि देश हैं ।
(ii) कारखानों में निर्मित विभिन्न वस्तुएँ, भारी मशीनें, इन्जीनियरिंग का सामान, सीमेण्ट, कागज, रसायन, ऊनी एवं रेशमी वस्त्र, मोटर गाड़ियाँ और धातुएँ (टिन, ताँबा, सीसा, जस्ता आदि) विकसित देशों (जर्मनी, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस, इटली, जापान आदि) से मध्य-पूर्वी, पूर्वी एशियाई, लैटिन अमरीकी एवं अफ्रीकी देशों को निर्यात की जाती हैं ।
(iii) यह उल्लेखनीय तथ्य है कि अब परम्परागत वस्तुओं के निर्यात की अपेक्षा कच्चा माल, निर्मित वस्तुएँ, मशीनें, पेट्रोलियम आदि का निर्यात किया जाने लगा है ।
(iv) निर्यात व्यापार की दिशा (Direction) में भी अब परिवर्तन आ गया है । अनेक विकसित देश अब विश्व के विभिन्न देशों से, विकासशील देशों की अपेक्षा, अधिक निर्यात करने लगे हैं ।
निर्यात व्यापार की संरचना एवं उसकी दिशा को संक्षेप में निम्न सारणी में दिया गया है:
4. वस्तु-विश्व-व्यापार में शीर्ष आयातक (Top Importers in Merchandising World Trade):
वस्तु विश्व आयात व्यापार के शीर्ष आयातकों को सारणी 4 में दिखाया गया है:
सारणी 4 के अंकों से स्पष्ट होता है कि:
(i) वस्तु-विश्व-व्यापार में शीर्ष आयातकों में प्रथम व द्वितीय स्थान क्रमशः अमेरिका व चीन का है जिनका विश्व के कुल आयातों में हिस्सा क्रमशः 12.3 प्रतिशत व 9.5 प्रतिशत है ।
(ii) विश्व के पाँच बड़े आयातक देश क्रमशः अमेरिका, चीन, जर्मनी, जापान और फ्रांस हैं जिनका संयुक्त हिस्सा विश्व के आयात व्यापार 40 प्रतिशत है ।
(iii) भारत का कुल विश्व आयात में हिस्सा 1.5 प्रतिशत है और 18वाँ क्रम है ।
5. विश्व आयात व्यापार की संरचना (The Structure of World Import Trade):
6. सेवाओं का विश्व निर्यात (World‘s Exports in Services):
सेवाओं का निर्यात विश्व व्यापार में बहुत तेजी से बढ़ रहा है । सेवाओं के व्यापार में मुख्य रूप से पर्यटन, बैंकिंग, बीमा, संचार, विज्ञापन, परिवहन आदि को सम्मिलित किया जाता है । वर्ष 2007 में विश्व में सेवाओं का निर्यात 3,337-बिलियन डॉलर था । सेवाओं का सबसे बड़ा निर्यातक संयुक्त राज्य अमेरिका था जिसका विश्व व्यापार में स्वयं का हिस्सा 14.4% था ।
जैसा कि निम्न सारणी के अंकों से स्पष्ट होता है – प्रथम पाँच सेवाओं के निर्यातक थे – अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस व जापान जिनका सेवाओं के कुल विश्व निर्यात व्यापार में संयुक्त योगदान 40 प्रतिशत था । सेवाओं के निर्यात करने वाले देशों में भारत का 19वाँ स्थान था ।
7. सेवाओं का विश्व आयात (World‘s Imports in Services):
जैसा सारणी के अंकों से स्पष्ट होता है कि निर्यात की भाँति सेवाओं के आयात में भी अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, जापान व फ्रांस प्रमुख देश हैं जिनका विश्व के कुल आयात में हिस्सा क्रमशः 12.0, 7.6, 6.9, 4.9, 3.9 व 2.5 है । भारत का विश्व के कुल आयात में हिस्सा 2.5 है और सेवाओं के आयात करने वाले देशों में छठवाँ एवं विश्व में इसका स्थान 13वाँ हैं ।
8. विकासशील देशों के निर्यात (Exports of Developing Countries):
विश्व व्यापार को मोटे तौर पर निम्नलिखित दो श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:
(i) विकसित देशों का व्यापार
(ii) विकासशील देशों का व्यापार ।
i. विकसित देशों का व्यापार (The Trade of Developed Countries):
इसके अन्तर्गत:
(a) संयुक्त राज्य अमेरिका
(b) यूरोपीय संघ के देश – फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी, इंग्लैण्ड, इटली
(c) जापान
(d) अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाएँ
(e) नवीन औद्योगीकृत एशियाई अर्थव्यवस्थाएँ आदि सम्मिलित की जाती हैं ।
मोटे तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में जिन देशों की प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय अधिक है, विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं ।
ii. विकासशील देशों का व्यापार (The Trade of Developing Countries):
इसके अन्तर्गत वे सब देश आते हैं जिनकी राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय अपेक्षाकृत कम है विशेषतः अफ्रीकी देश, लेटिन अमरीकी देश और एशियाई देश आते हैं ।
विकासशील देशों का कुल निर्यात व्यापार में योगदान यद्यपि 23 प्रतिशत व लगभग 29 प्रतिशत के बीच रहा लेकिन यह अभिनन्दनीय है कि जहाँ 1985 में विश्व के निर्यात व्यापार में इनका योगदान 23.8 प्रतिशत था, वहाँ बढ़कर वर्ष 2011 में 47.0 प्रतिशत हो गया । यह भी उल्लेखनीय है कि विश्वमन्दी का वर्ष 2009 में निर्यात व्यापार पर विकसित देशों पर जितना बुरा प्रभाव पड़ा है, उतना विकासशील देशों पर नहीं पड़ा है ।
वर्ष 2011 में विश्व निर्यातों में 10 प्रतिशत से वृद्धि हुई जबकि विकासशील देशों के निर्यात में 23% की वृद्धि हुई । स्पष्टतः विकासशील देशों के निर्यात अधिक तेजी से बढ़े । विकासशील देशों में विश्व-व्यापार के क्षेत्र में पाँच बड़े देश हांगकांग, ताइवान, कोरिया, चीन, सिंगापुर हैं ।
इन पाँचों देशों का सभी बिकासशील देशों के निर्यात में संयुक्त हिस्सा 50 प्रतिशत है । अर्थात् सभी विकासशील देशों के कुल निर्यात में आधा हिस्सा तो इन पाँच विकासशील देशों का ही है ।
9. विश्व व्यापार की अन्य प्रवृत्तियाँ (Other Trends of World Trade):
विश्व व्यापार की प्रवृत्तियों की अन्य विशेषताएँ संक्षेप में निम्नलिखित हैं:
(i) बहुपक्षीय व्यापारिक समझौते से विश्व व्यापार को प्रोत्साहन मिला है ।
(ii) विश्व व्यापार में क्षेत्रीय समूहों का विकास हुआ है, जिसके कारण विभिन्न देशों के आर्थिक सहयोग में वृद्धि हुई है ।
(iii) विश्व व्यापार में अन्तर्राष्ट्रीय तरलता में वृद्धि होने के कारण विदेशी व्यापार को बढ़ावा मिला है ।
(iv) विश्व व्यापार में स्वतन्त्र व्यापार में वृद्धि बढ़ रही है ।
(v) पहले विकासशील देशों की व्यापार शर्तें प्रायः प्रतिकूल ही रहती थीं, अब विकासशील देशों की व्यापार शर्तें हमेशा प्रतिकूल नहीं रहती हैं । फलतः उन्हें भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का लाभ मिला है ।
(vi) उपनिवेश प्रथा समाप्त होने के बाद उपनिवेश देशों से भी तैयार माल के निर्यात में वृद्धि हुई है ।