Here is an essay on ‘Planning’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Planning’ especially written for college and management students in Hindi language.

Essay on Planning


Essay Contents:

  1. नियोजन का आशय (Introduction to Planning)
  2. नियोजन की परिभाषाएँ (Definitions of Planning)
  3. नियोजन के उद्देश्य (Objects of Planning)
  4. आदर्श नियोजन के आवश्यक तत्व अथवा श्रेष्ठ नियोजन की विशेषताएँ (Essential Elements of Ideal Planning or Characteristics of a Good Plan)
  5. नियोजन का महत्व तथा आवश्यकता (Importance and Need of Planning)
  6. नियोजन के सिद्धान्त (Principles of Planning)
  7. नियोजन की सीमाएँ, कठिनाइयाँ तथा आलोचनाएँ (Limitations, Difficulties and Criticism of Planning)


Essay # 1. नियोजन का आशय (Introduction to Planning):

नियोजन प्रबन्ध का प्राथमिक एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है क्योंकि अन्य सभी कार्य नियोजन पर आधारित होते हैं नियोजन का अर्थ भविष्य के बारे में अनुमान लगाना है । नियोजन में इस बात का निर्णय करना कि क्या करना है, कहाँ करना है, कब करना है, कैसे करना है और किस व्यक्ति द्वारा किया जाना है, शामिल किया जाता है ।

जैसा कि जइर्वक ने कहा है- “नियोजन मूल रूप से कार्यों को सुव्यस्थित ढंग से करने कार्य को करने से पूर्व उस पर मनन करने तथा कार्यों को अनुमानों की तुलना में तथ्यों के आधार पर करने का प्राथमिक रूप में एक मानसिक चिन्तन है ।” भावी घटनाओं का क्या क्रम होगा इसकी प्रत्याशा ही नियोजन का मूल तत्व है, क्योंकि भविष्य अनिश्चित होता है और इस अनिश्चितता को नियोजन से कम करके किसी भी संगठन द्वारा उद्देश्यों को प्राप्त किया जाता है ।

प्रबन्ध की प्रक्रिया नियोजन से प्रारम्भ होती है तथा नियोजन पर ही समाप्त मानी जाती है किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसके बारे में सोच-विचार कर एक योजना तैयार करके और उसी के आधार पर कार्य करने से उस कार्य में अधिक सफलता मिलने की सम्भावना होती है बिना योजना बनाये किसी काम को करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है व्यावसायिक संस्थाओं की जटिल समस्याओं का समाधान करने के लिए समन्वित ढंग से उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए सोच-विचार कर योजना बनाना और उसी योजना के अनुसार कार्य करना और भी अधिक जरूरी हो जाता है ।

अत: व्यवसाय के प्रबन्ध में नियोजन के महत्व को सभी प्रबन्धक स्वीकार करते है श्री टेलर ने प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम में एक पृथक् योजना विभाग की स्थापना पर बल दिया । उनके अनुसार- “योजना-विभाग का कार्य विभिन्न विभागों में काम करने वाले श्रमिकों के लिए योजना बनाना है ।” श्री शील्ड के अनुसार, “योजना विभाग प्रबन्ध का हृदय है जिसका एकमात्र कार्य सम्मान के विभिन्न पहलुओं में कार्यरत कर्मचारियों की आवश्यकताओं को पूरा करना है ।”

नियोजन के अन्तर्गत व्यवसाय के उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है तथा उनको प्राप्त करने के लिए नीतियों कार्य-विधियों पद्धतियों तथा कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाई जाती है । इस प्रकार नियोजन का कार्य अन्य सभी प्रयासों व कार्यवाहियों से पहले होता है, क्योंकि योजनाओं के द्वारा ही यह निर्धारित होता है कि निर्धारित लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए कैसे निर्णय लिए जाएंगे तथा कौन-सी क्रियाएँ की जाएँगी । नियोजन प्रबन्ध के अन्य कार्यों-संगठन, नियुक्तियां, निर्देशन तथा नियन्त्रण का आधार है । इसलिए, नियोजन प्रबन्ध के अन्य सभी कार्यों से पहले किया जाता है ।

नियोजन भावी कार्यों का पूर्वानुमान तथा निर्धारण है इसके द्वारा हम भविष्य में झाँकने का प्रयत्न करते हैं तथा उसके लिए तैयार होते हैं, उसे सम्भावित निर्णयों से प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं ताकि कुशलतापूर्वक निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके । “यह (नियोजन) विशिष्ट सन्दर्भों में इस बात को निर्धारित करने का प्रयास है कि क्या होना चाहिए तथा उन कदमों को उठाना है जिससे वैसा हो सके । इसके लिए उद्देश्यों व लक्ष्यों को निश्चित किया जाता है, वैकल्पिक व्यूह-रचनाओं तथा कार्य-मार्गों का निर्धारण व चयन किया जाता है, ताकि लक्ष्यों तथा उद्देश्यों तक पहुँचा जा सके ।”


Essay # 2. नियोजन की परिभाषाएँ (Definitions of Planning):

नियोजन की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं:

(1) विलियम एच. न्यूमैन के अनुसार- “सामान्यत: भविष्य में क्या करना है, उसे पहले से तय करना ही नियोजन कहलाता है ।”

(2) एम.ई. हलें के अनुसार- “क्या करना चाहिए, इसका पहले से ही तय किया जाना नियोजन है । इसमें विभिन्न वैकल्पिक मेश्यों, नीतियों, विधियों तथा कार्यक्रमों में से चयन करना शामिल होता है ।”

(3) जॉर्ज आर. टैरी के शब्दों में- “नियोजन भविष्य में देखने की विधि या कला है । इसमें भविष्य की आवश्यकताओं का रचनात्मक पुनरावलोकन किया जाता है ताकि निर्धारित लक्ष्यों के सन्दर्भ में वर्तमान प्रयासों को उनके अनुरूप बनाया जा सके ।”

(4) कुन्ट्ज़ एवं ओ “डोनेल के अनुसार- “नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है, कार्य करने के लिए मार्गों का सचेत निर्धारण है, निर्णयों को उद्देश्यों तथ्यों तथा विचारित अनुमानों पर आधारित करना है ।”

(5) अर्विक के शब्दों में- “नियोजन एक प्रकार का मानसिक चिन्तन है जिसके अनुसार कार्य का व्यवस्थित रूप से करना, कार्य करने से पूर्व उस पर विचार करना तथा कार्य का सम्पादन अनुमानों के आधार पर नहीं, बल्कि तथ्यों के आधार पर करने की प्रक्रिया शामिल है ।”

उपरोक्त विभिन्न परिभाषाओं से स्पष्ट है कि “किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसकी सामान्य रूपरेखा बनाना ही नियोजन कहलाता है । प्रबन्धकों को यह सोचना पड़ता है कि उनके पास जो साधन इस समय मौजूद हैं, उनके आधार पर कार्य करने का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा कार्य करने के लक्ष्य क्या होंगे तथा कार्य करने में जो कठिनाइयाँ आएँगी, वे किस प्रकार हल की जा सकती हैं आदि । संक्षेप में नियोजन “जहाँ हम हैं और जहाँ हमें पहुँचना हैं उन दोनों के अन्तर को भरता है ।”


Essay # 3. नियोजन के उद्देश्य (Objects of Planning):

नियोजन के प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं:

(1) विशिष्ट दिशा प्रदान करना (To Provide Specific Direction):

नियोजन का प्रथम उद्देश्य किसी कार्य विशेष को करने के लिए उसकी रूपरेखा तैयार करना और उसे एक विशिष्ट दिशा प्रदान करना है ।

(2) भावी कार्यों में निश्चितता लाना (Planning Brings Certainty in Actions):

नियोजन द्वारा संस्था के भावी कार्यों की रूपरेखा निर्धारित की जाती है जिसके अनुसार कार्य करना होता है । इससे कार्यों की अनिश्चितता समाप्त हो जाती है ।

(3) गतिविधियों में एकात्मकता व समन्वय स्थापित करना (Planning Brings Certainty in Actions):

नियोजन के अन्तर्गत संस्था की सारी गतिविधियाँ एक मूल उद्देश्य की प्राप्ति की ओर प्रेरित होती हैं तथा वे एक सूत्र में बँधी रहती है । इस प्रकार नियोजन का उद्देश्य संस्था की समस्त गतिविधियों में एकात्मकता व समन्वय स्थापित करना है ।

(4) प्रबन्ध प्रयत्नों में मितव्ययिता लाना (Planning Brings Economy in Management):

भावी कार्यक्रमों की योजना बन जाने से सारा कार्य सुचारु रूप से होता है और इससे प्रबन्ध सम्बन्धी प्रयत्नों में मितव्ययिता आती है ।

(5) पूर्वानुमान लगाना (Forecasting):

पूर्वानुमान नियोजन का सार है । नियोजन का उद्देश्य भविष्य के सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगाना है ।

(6) निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति करना (Achieving Determined Objective):

नियोजन का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य निर्धारित लर्क्ष्यो की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयत्न करते रहना है ।

(7) कुशलता में वृद्धि करना (Increasing Efficiency):

नियोजन का एक मूलभूत उद्देश्य उपक्रम की कुशलता में वृद्धि करना है ।

(8) सीमित साधनों का अधिकतम उपयोग (Maximum Use of Limited Resources):

प्रत्येक संस्था के पास पूँजी, मशीन तथा मानव साधन सीमित मात्रा में होते हैं । इन सीमित साधनों से कम कीमत पर अधिकतम उत्पादन करना नियोजन का उद्देश्य होता है ।

(9) भावी जोखिम में कमी (Decrease in Future Risk):

नियोजन उपक्रम की भावी जोखिम एवं सम्भावनाओं को परखता है एवं भावी जोखिमों में कमी लाता है ।

(10) प्रभावशाली नियन्त्रण सम्भव (Effective Control is Possible):

नियोजन का उद्देश्य प्रभावशाली नियन्त्रण स्थापित करना होता है ।


Essay # 4. आदर्श नियोजन के आवश्यक तत्व अथवा श्रेष्ठ नियोजन की विशेषताएँ (Essential Elements of Ideal Planning or Characteristics of a Good Plan):

एक श्रेष्ठ नियोजन में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए:

(1) स्पष्ट निर्धारित उद्देश्य (Well Defined Objectives):

योजना सदैव एक निश्चित लक्ष्य व उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए बनाई जाती है । इसलिए योजना के उद्देश्य निश्चित एवं स्पष्ट होने चाहिए । अतएव, एक श्रेष्ठ योजना वह है जो स्पष्ट उद्देश्य पर आधारित हो ।

(2) सरल (Simple):

योजना सरल होनी चाहिए ताकि संगठन में काम करने वाले कर्मचारी उसे आसानी से समझ सकें ।

(3) मितव्ययी (Economical):

वह योजना श्रेष्ठ मानी जाती है जो न्यूनतम व्यय पर संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त करने में समर्थ होती है ।

(4) स्थायित्व (Stability):

एक श्रेष्ठ योजना वह है कि जिसमें एक लम्बे समय तक परिवर्तन न करना पड़े । परन्तु छोटे-छोटे परिवर्तन आसानी से किए जा सकें ।

(5) व्यावहारिक (Practicable):

योजना महत्त्वाकांक्षी अथवा जटिल नहीं होनी चाहिए । श्रेष्ठ योजना वही होती है जिसे व्यवहार में लागू किया जा सके । अतएव योजना का व्यावहारिक होना अत्यन्त आवश्यक है । वह योजना ही कैसी जो लागू करने योग्य न हो ।

(6) लोचपूर्ण (Flexible):

योजना में लोच का गुण होना आवश्यक है जिससे उसमें बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन तथा संशोधन किया जा सके ।

(7) सहभागिता (Partipation):

योजना सदैव प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों द्वारा मिलकर बनाई जानी चाहिए । ऐसी सहभागी योजना को लागू करने में कठिनाई नहीं आती ।

(8) भविष्यता (Futurity):

भविष्य को ध्यान में रखकर योजना बनाई जानी चाहिए । योजना के अन्तर्गत उन भावी परिस्थितियों पर विशेष ध्यान देना चाहिए जिन पर नियन्त्रण करना सम्भव नहीं होता । अतएव योजना को भविष्य की समस्याओं के समाधान में प्रबन्धकों का मार्गदर्शन करना चाहिए ।

(9) सन्तुलन (Balance):

जो योजना संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति तथा संस्था में उपलब्ध संसाधन के बीच सम्बन्ध स्थापित करती हो वह योजना श्रेष्ठ मानी जाती है । इसी प्रकार जो योजना अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन जरूरतों के बीच सन्तुलन स्थापित करती है, उसे श्रेष्ठ योजना माना जा सकता है ।


Essay # 5. नियोजन का महत्व तथा आवश्यकता (Importance and Need of Planning):

नियोजन के महत्व से कोई इंकार नहीं कर सकता । कारण, नियोजन प्रबन्धकीय कार्यों में सर्वाधिक आधारभूत तत्व (Most Basic of all Managerial Functions) माना जाता है । नियोजन आवश्यक है, क्योंकि यह सभी प्रबन्धकीय कार्यों का मूलाधार है । इसके बिना संगठित करने के लिए कुछ नहीं है तथा निर्देशन एवं नियन्त्रण की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी ।

जब योजना ही नहीं होगी तो घटनाओं को भाग्य के सहारे छोड़ना पड़ेगा । जॉर्ज आर. टैरी के अनुसार- “नियोजन प्रबन्ध के अन्य कार्यों, जैसे संगठन, उत्प्रेरण तथा नियन्त्रण का आधार है । नियोजन द्वारा क्रियाओं का निर्धारण किए बिना कोई ऐसी किया नहीं होगी जिसका संगम किया जा सके, उत्प्रेरण किया जाए तथा नियन्त्रण किया जाए ।” कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल कहते है कि- “नियोजन के बिना व्यवसाय अटकलबाज़ी के समान हो जाता है तथा निर्णय अर्थहीन एवं तदर्थ-चुनाव होते हैं ।” जी.डी.एच.कौल (G.D.H. Cole) के अनुसार- “बिना नियोजन के कोई भी कार्य तीर और तुक्के पर आधारित होगा जिससे केवल भ्रम, सन्देह तथा अव्यवस्था ही उत्तपन्न होगी ।”

व्यवसाय में नियोजन का महत्व तथा आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से स्पष्ट होती है:

(1) भावी अनिश्चितता तथा परिवर्तनों का सामना करने के लिए (To Off-Set Future Uncertainties and Changes):

हम सब जानते हैं कि भविष्य सदा अनिश्चित होता हैं तथा व्यवसाय में नित-नए परिवर्तन आते रहते है । नियोजन के अन्तर्गत प्रबन्धक भविष्य की अनिश्चितताओं तथा परिवर्तनों का पूर्वानुमान लगाता है और उसके आधार पर योजना बनाई जाती है । इस प्रकार प्रबन्धक नियोजन की सहायता से भविष्य को बहुत कुछ समझने तथा भावी घटना-चक्र को वाँछित दिशा में मोड़ने में सफल हो जाते है । परिणामस्वरूप वे बहुत सीमा तक व्यावसायिक अनिश्चितताओं से निपटने तथा परिवर्तनों का सामना करने और उनका लाभ उठने में समर्थ हो जाते हैं ।

(2) उद्देश्यों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए (To Focus Attention on Objectives):

नियोजन उद्देश्य निर्धारित करता है । उनकी पूर्ति का सर्वोत्तम ढंग निश्चित करता है और फिर कार्य-परिणामी को उद्देश्यों की पृष्ठभूमि में परखता है । इस प्रकार नियोजन उद्देश्यों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता रहता है । सभी योजनाएं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं तथा प्रत्येक क्रिया उद्देश्यों की पूर्ति की दृष्टि से की जाती है ।

(3) समन्वय में सहायक (Helpful in Co-Ordination):

संस्था के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नियोजन उसके विभिन्न कार्यों में एकता स्थापित करता है । एक ही लक्ष्य पर पहुंचने के लिए बिखरे हुए तथा जटिल कार्यों में समन्वय किया जाता है । नियोजन के द्वारा इस बात का ध्यान रखा जाता है कि एक ही कार्य को दोहराया न जाए तथा विभिन्न कार्यों में आपस में टकराव पैदा न हो । इस प्रकार नियोजन संस्था के विभिन्न कार्यों में एकता एवं समन्वय स्थापित करता है ।

(4) क्रियाओं में मितव्ययिता लाने के लिए (To Bring Economy in Operations):

नियोजन में कार्य करने की सर्वश्रेष्ठविधि का चुनाव किया जाता है, विभिन्न क्रियाओं में समन्वय स्थापित किया जाता है, विवेकपूर्ण निर्णय किए जाते हैं तथा साधनों का कुशलतम उपयोग किया जाता है । परिणामस्वरूप क्रियाओं में मितव्ययिता आती है तथा सचालन-व्यय तथा लागत-व्यय में कमी आती है ।

(5) प्रभावशाली नियन्त्रण सम्भव होता है (Effective Control is Possible):

नियोजन से नियन्त्रण करने में पर्याप्त सहायता मिलती है । नियोजन प्रबन्धकों को नियन्त्रण करने के लिए मापदण्ड प्रस्तुत करता है जिसके आधार पर कर्मचारियों की प्रगति का मूल्यांकन किया जाता है । नियोजन यह निश्चित करता है कि किस विभाग या कर्मचारी को कब क्या तथा किस प्रकार काम करना है जिसके फलस्वरूप प्रभावी नियन्त्रण करना सम्भव हो जाता है इस प्रकार नियोजन नियन्त्रण को आधार प्रदान करता है ।

(6) उतावले निर्णयों पर रोक लगाने के लिए (To Restrict Hasty Decisions):

नियोजन के अन्तर्गत समस्या का विश्लेषण किया जाता है, विभिन्न विकल्पों पर विचार किया जाता है तथा भविष्य के सम्बध में सोच समझ कर निर्णय लिया जाता है । नियोजन की सहायता से हम यह निश्चित कर पाते हैं कि हम क्या करने जा रहे हैं और हम यह कैसे करेंगे ? भविष्य के विषय में पहले से ही विचार कर लेने के कारण उतावले निर्णय लेने की सम्भावना कम हो जाती है ।

(7) सभी प्रबन्धकीय कार्यों का आधार (Basis for all Managerial Function):

नियोजन प्रबन्ध का प्रथम तथा प्रमुख कार्य है । प्रबन्ध के अन्य सभी कार्य नियोजन पर आधारित हैं । नियोजन के बिना संगठन, निर्देशन समन्वय, अभिप्रेरण, नियुक्तियां तथा नियन्त्रण करना सम्भव नहीं है नियोजन का महत्व इसी में है कि यह इन सभी प्रबन्धकीय कार्यों को दिशा प्रदान करता है तथा सुविधाजनक बनाता है स्पष्ट है कि नियोजन सभी प्रबन्धकीय कार्यों का आधार है ।

(8) नव-विचार एवं सृजनात्मक विचारों को प्रोत्साहित करता है (Encourages Innovative Thoughts and Creative):

नियोजन का कार्य संस्था के उच्चस्तरीय प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है । वे इस कार्य को करते समय अधीनस्थ कर्मचारियों से सलाह-मशवरा लेते है जिससे संस्था में नए तथा सृजनात्मक विचारों को प्रोत्साहन मिलता है । हुसे लिखते है कि, एक उत्तम नियोजन प्रक्रिया व्यक्तिगत भागीदारी के मार्गों की व्यवस्था करती है, संस्था तथा उसके वातावरण के बारे में अनेक विचारों को जन्म देती है, स्वतन्त्रता तथा स्व-मूल्यांकन के वातावरण को प्रोत्साहित करती है तथा प्रबन्धकों को और अधिक श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रभिप्रेरित करती है ।

(9) विकास एवं सुधार में वृद्धि करता है (Promotes Growth and Improvements):

नियोजन इसलिए भी आवश्यक तथा महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अन्तर्गत प्रत्येक विभाग एवं उपविभाग के लिए प्रमाप निर्धारित कर दिए जाते हैं जो कि किए जाने वाले कार्यों तथा अपनाई जाने वाली विधियों के मूल्यांकन की कसौटी होते हैं । अतएव, इससे अपव्यय तथा अनावश्यक क्रियाओं का अन्त हो जाता है और सस्था में विकास एवं सुधार को प्रोत्साहन मिलता है ।

(10) प्रतिस्पर्धा करने की शक्ति में वृद्धि (Improves Competitive Strength):

नियोजन वस्तु की किस्म, कीमत, उत्पादन की आकृति आदि में अनुकूल परिवर्तन लाता है । मशीनों की कार्य- क्षमता में वृद्धि करता है तथा ग्राहकों की आवश्यकताओं का अनुमान लगाकर वस्तु की माँग में वृद्धि करता है । इस प्रकार नियोजन के माध्यम से एक संस्था उसी उद्योग में लगी हुई अन्य सस्थाओं के साथ अपनी प्रतिस्पर्धा करने की शावित में वृद्धि करने का प्रयास कर सकती है ।


Essay # 6. नियोजन के सिद्धान्त (Principles of Planning):

नियोजन के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं:

(1) उद्देश्यों में योगदान का सिद्धान्त (Principle of Contribution to Objectives):

नियोजन लक्ष्य-पूर्ति का साधन माना जाता है । अत: इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक मूल योजना और इससे सम्बन्धित सभी योजनाओं का प्रयोजन उपक्रम के उद्देश्यों की पूर्ति में योगदान देना होना चाहिए ।

(2) कार्यकुशलता का सिद्धान्त (Principle of Efficiency):

इस सिद्धान्त के अनुसार योजना ऐसी होनी चाहिए कि उसकी लागत न्यूनतम हो तथा उससे दुर्लभ संसाधनों का सर्वाधिक कुशल उपयोग हो । नियोजन की लागत व लाभ का अनुमान करते समय कर्मचारी मनोबल, सन्तुष्टि विकास तथा संस्था की सामाजिक छवि जैसे घटकों पर भी विचार करना चाहिए ।

(3) लोचशीलता का सिद्धान्त (Principles of Flexibility):

लोचशीलता का यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि योजनाएं-इतनी लोचशील अवश्य होनी चाहिए ताकि असम्भावित घटनाओं से होने वाली हानियों को न्यूनतम करने के लिए इनमें अपेक्षित परिवर्तन किया जा सके ।

(4) सीमित घटक का सिद्धान्त (Principle of Limiting Factor):

सीमित घटक वह है जो उद्देश्यों की प्राप्ति में बाधक बन सकता है इसलिए इन सीमित घटकों की पहचान कर लेनी चाहिए इस प्रकार सीमित घटक का सिद्धान्त यह दर्शाता है कि हम सर्वोत्तम कार्य मार्गों का चयन तभी कर सकते हैं जब सीमित घटकों की पहचान कर ली जाए और उनके विकल्प ढूँढ़ लिए जाएँ ।

(5) समयशीलता का सिद्धान्त (Principle of Timing):

यह सिद्धान्त बतलाता है कि सभी योजनाओं के शुरू करने और उन्हें पूरा करने तक की, समय तालिका (Time Table) होनी चाहिए ।

(6) प्रतिबद्धता का सिद्धान्त (Principle of Commitment):

यह सिद्धान्त नियोजन की अवधि को निर्धारित करता है । इस सिद्धान्त के अनुसार नियोजन की अवधि इतनी अवश्य होनी चाहिए जिसमें संस्था अपने ऋणदाताओं, कर्मचारियों उपभोक्ताओं आदि के साथ किए गए वायदों को पूरा कर सके ।

(7) नाविकीय परिवर्तन का सिद्धान्त (Principle of Navigational Change):

यह सिद्धान्त बताता है कि जिस प्रकार नाविक अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी नाव का रूख मोड़ता रहता है, ठीक उसी प्रकार प्रबन्धकों को भी अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए अपनी योजाओं की निरन्तर समीक्षा करते रहना चाहिए तथा आवश्यकता पड़ने पर उनमें सुकर करते रहना चाहिए ।

(8) व्यापकता का सिद्धान्त (Principle of Pervasiveness):

इस सिद्धान्त के अनुसार नियोजन एक सर्तव्यापी क्रिया है जिसे प्रबन्ध के सभी स्तरों पर करना होता है । इसलिए, श्रेष्ठ नियोजन वही है, जो प्रबन्ध के सभी स्तरों के अनुरूप हो ।

(9) नियोजन की मान्यताओं का सिद्धान्त (Principle of Planning Premises):

यह सिद्धान्त बतलाता है कि नियोजन भविष्य से जुड़ा होता है तथा भविष्य के सम्बन्ध में अनेक मान्यताएँ होती है । इसलिए नियोजन करते समय इन मान्यताओं के बारे में सही स्पष्ट तथा पूण जानकारी कर ली जानी चाहिए तथा पूर्वानुमान भली प्रकार लगा लेना चाहिए इन मान्यताओं के प्रयोग के प्रति पूर्ण सहमति भी होनी चाहिए ।

(10) वैकल्पिक मार्ग का सिद्धान्त (Principle of Alternatives):

किसी भी कार्य को करने के अनेक वैकल्पिक मार्ग होते हैं ! इन मार्गों में से ऐसा विकल्प चुनना चाहिए जो संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में अधिक-से-अधिक सहायक हो सके ।

(11) प्रतिस्पर्धात्मक व्यूह-रचना का सिद्धान्त (Principle of Competitive Strategies):

किसी संस्था को नियोजन करते समय अपनी प्रतिस्पर्धा संस्थाओं की नियोजन तकनीक तथा नियोजन-प्रक्रियाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए ।


Essay # 7. नियोजन की सीमाएँ, कठिनाइयाँ तथा आलोचनाएँ (Limitations, Difficulties and Criticisms of Planning):

नियोजन का अत्यधिक महत्व होते हुए भी कुछ विद्वान इसे समय एवं धन की बर्बादी मानते हैं । वे इसे बरसाती ओले कहकर इसका विरोध करते हैं ।

नियोजन की अनेक सीमाएँ हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर नियोजन को सफल व उद्देश्यपूर्ण बनाया जा सकता है:

(1) विश्वसनीय आधार की कठिनाई (Difficulty of Reliable Premises):

योजना बनाने के लिए उचित आधारों की आवश्यकता होती है । इसके आधार भविष्य के पूर्वानुमान होते है । इस प्रकार योजना भविष्य पर आधारित है । भविष्य अनिश्चित तथा परिवर्तनशील है और इसका सही अनुमान लगाना कठिन है । इसलिए चाहे कितने ही वैज्ञानिक ढंग से अथवा आधुनिक तकनीकों का प्रयोग करके पूर्वानुमान लगाए जाएँ उनमें गलती होने अथवा अविश्वसनीयता पाए जाने की पूरी-पूरी सम्भावना बनी रहती है ।

(2) एक महँगी प्रक्रिया (A Costly Process):

नियोजन में समय, श्रम तथा धन का बहुत व्यय होता है । तथ्यों को एकत्र करने उनका विश्लेषण करने, पूर्वानुमान लगाने वैकल्पिक कार्य-मार्गों का पता लगाने, उनका मूल्यांकन करने, विस्तृत योजनाएँ बनाने आदि में पर्याप्त व्यय करना पड़ता है । इस प्रकार नियोजन एक महंगी प्रक्रिया बन जाती है परन्तु ऐसी स्थिति में नियोजन से मिलने वाला लाभ नियोजन की लागत की तुलना में अवश्य ही अधिक होना चाहिए । अतएव नियोजन की लागत उसके योगदान से अधिक नहीं होनी चाहिए । इसलिए नियोजन को खर्चीली प्रक्रिया मान कर उसके महत्व को कम किया जा सकता ।

(3) व्यवसाय प्रशासन में लोचहीनता (Lack of Flexibility):

नियोजना व्यावसायिक संगठनों को एक निश्चित कार्य-पद्धति पर चलने के लिए निर्देश देती है । यदि योजना से विचलन हुआ तो हानि होने की शंका रहती है । इस प्रकार व्यवसाय प्रशासन में पर्याप्त लोचहीनता आ जाती है ।

(4) आपातकालीन स्थिति में अनुपयुक्त (Unsuitable for Emergency Situations):

आपातकालीन स्थिति व तुरन्त निर्णय लेने होते हैं, न कि योजना के अनुसार । इस स्थिति में नियोजन को छेड़ना पड़ेगा । अतएव नियोजन आपातकालीन स्थितियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता है । आकस्मिक घटना के समय तुरन्त निर्णय लेने में नियोजन स्वयं बाधा बन जाता है ।

(5) पर्याप्त मानसिक योग्यता का अभाव (Lack of Adequate Mental Ability):

नियोजन मूलत: मानसिक कार्य है और इस का निर्माण योजनाकार की मानसिक योग्यता पर निर्भर करता है । इस कार्य को केवल बुद्धिमान एवं योग्य व्यक्ति हैं कर सकते हैं । यह सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति के बस का नहीं होता परन्तु बुद्धिमान एवं कुशल योजनाकारों का प्रत्येक क्षेत्र में अभाव होता है, इसलिए प्रभावशाली नियोजन नहीं किया जाता ।

(6) मनोवैज्ञानिक बाधाएँ (Psychological Barriers):

नियोजन की एक मनोवैज्ञानिक बाधा यह कि इसके कारण प्रबन्धक वर्तमान की बजाय भविष्य की अधिक चिन्ता करते हैं ।

(7) व्यक्तिगत रुचि, मौलिकता तथा पहल-शक्ति का हनन (Planning Curbs Individual Tastes, Originality and Initiative):

नियोजन के अन्तर्गत प्रबन्धकों व कर्मचारियों को निर्धारित कार्य-मार्गो, नीतियों व नियमों ऊं अनुसार कार्य करना पड़ता है । वे इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन व संशोधन नहीं कर सकते जिसके कारण उनकी व्यक्तिगत इ मौलिकता, रचनात्मक तथा पहल-शक्ति जैसे मानवीय गुणों का विनाश होता है ।

(8) शीघ्र परिवर्तन की कठिनाइयाँ (Difficulties of Rapid Change):

जिन व्यवसायों व उद्योगों में तेजी से परिवर्तन टन रहते है उनमें पूर्वानुमान लगाकर नियोजन करना एक कठिन कार्य है । अतएव, नियोजन का क्षेत्र इन परिस्थितियों में काफी सीमित हो जाता है ।


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