Here is an essay on the ‘Trade Unions in India’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Trade Unions in India’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay on the Trade Unions in India


Essay Contents:

  1. श्रम संघ का अर्थ (Meaning of Trade Union)
  2. श्रम संधों के उदेश्य (Objectives of Trade Union)
  3. श्रम संघ के कार्य (Functions of Trade Unions)
  4. संघों के प्रकार (Types of Unions)
  5. श्रम संघों की विशेषताएँ (Characteristics of Trade Union)
  6. श्रम संघों की संरचना (Structure of Trade Unions)
  7. श्रम संघों का पंजीकरण (Registration of Trade Unions)
  8. भारत में श्रम संघों की कमियाँ एवं समस्याएँ (Problems and Shortcoming of Trade Unions In India)
  9. श्रम संघों को सुदृढ़ बनाने के उपाय (Measures for Strengthening Trade Unions)


Essay # 1. श्रम संघ का अर्थ (Meaning of Trade Union):

श्रम संघ प्रत्येक देश में उद्योग का एक जरूरी लक्षण माना जाता है । श्रम संघों का उदय पूँजीवाद तथा फैक्टरी सिस्टम के खिलाफ प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था । औद्योगीकरण की प्रारम्भिक अवस्था में श्रमिक नियोक्ताओं के हाथों की कठपुतली थे, क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए कोई वैधानिक नियम नहीं था । इसलिए श्रमिकों ने अपने हितों की रक्षा के लिए आपस में हाथ मिला लिए ।

श्रम संघ को विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विभिन रूप में परिभाषित किया गया है । कुछ विद्वानों का कथन है, कि ये केवल कर्मचारियों (सेविवर्गीय) के संगठन हैं, जो उद्योग में या किसी-न-किसी प्रकार के व्यवसायों में लगे हैं, और मजदूरी पर आश्रित हैं । कुछ विद्वानों की मान्यता है, कि इनमें नियोक्ता संगठन मैत्री संस्थाएँ, व्यावसायिक क्लब आदि भी सम्मिलित किये जाने चाहिए ।

विद्वानों में आज भी यह मत है, कि श्रम संघ किसे कहा जाय किन्तु इस बात पर सभी एकमत हैं कि सभी संगठन अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करने के लिए बनाये जाते हैं, उनकी सौदेबाजी की क्षमता में वृद्धि करते हैं, प्रबन्धकीय एकाधिकार समाप्त करते हैं, तथा श्रमिक व नियोक्ताओं के मध्य सम्बन्ध सुधारने में सहायक होते हैं ।

श्रम संघ की परिभाषाओं को संकुचित और विस्तृत दो रूप में बाँटा जा सकता है:

(1) संकुचित परिभाषाएँ (Narrow Definition):

(i) येल योडर के मत में:

”श्रम संघ एक निरन्तर तथा दघिकालीन कर्मचारी संगठन है, जो विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति हेतु अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करने तथा श्रम सम्बन्धों में सुधार हेतु बनाये जाते हैं ।”

(ii) एस. डी. पुनेकर के अनुसार:

”श्रम संघ औद्योगिक कर्मचारियों का निरन्तर संगठन है, जो नियोक्ता अथवा श्रमिकों द्वारा स्वतन्त्र रूप से बनाया जाता है । इसका उद्देश्य अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करना है ।”

(iii) वेब, सिडनी एवं बिएट्‌सि के शब्दों में:

”श्रम संघ एक निरन्तर संगठन है, जो वेतनभोगी कर्मचारियों के स्तर और उनकी आर्थिक दशाओं में सुधार करने की दृष्टि से बनाया जाता है ।”

ये विचारक श्रम संघों की एक ऐसी संस्थाएँ मानते हैं, जो प्रबन्धकीय एकाधिकार को समाप्त करने की दृष्टि से बनायी जाती हैं, तथा श्रमिकों को अधिक शक्ति प्रदान करने एवं अच्छी कार्य की दशाए प्रदान करने में सहायक होती हैं ।

मिलने बेल का कथन है कि:

”उपर्युक्त परिभाषाएं कलातीत हो चुकी हैं तथा अधिक स्थैतिक हैं, क्योंकि अब श्रम संघ केवल श्रमिक संघ नहीं रहे हैं । ये सभी वर्ग के कर्मचारियों के सघ हैं, जिनका उद्देश्य अपने सदस्यों की कार्य दशाएँ सुधारने तक ही सीमित न होकर अन्य क्षेत्रों में भी व्यापक है, ये समस्याएँ मजदूरी भुगतान कार्य के घण्टों, कार्य की दशाओं तथा कार्य के स्थान आदि से सम्बन्धित होनी चाहिए ।”

(2) विस्तृत परिभाषाएँ अथवा आधुनिक परिभाषाएँ (Broad Definitions or Modern Definition):

(i) क्यूनीसन के मत में:

”श्रम संघ, मृत्तिभोगी व्यक्तियों का एकाधिकारात्मक संगठन है, जो व्यक्तिगत उत्पादकों के रूप में एकदूसरे के पूरक हैं, किन्तु अपने श्रम का सौदा करने के सम्बन्ध में सभी एकरूप हैं । इनका सामूहिक उद्देश्य अपने सदस्यों की मोलभाव की क्षमता में वृद्धि करना है ।”

(ii) एन. एम. जोशी के शब्दों में:

“श्रम संघ निश्चित रूप से कर्मचारियों का संगठन है । यह नियोक्ता का संगठन नहीं है, न यह सह- भागियों (Co-Partner) का संगठन है, और न ही स्वतन्त्र श्रमिकों का ।”

(iii) जी. डी. एच. कोल के विचार में:

“श्रम संघ से अर्थ एक या अधिक व्यवसायों/उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों के संगठन से है । ये संगठन अपने सदस्यों के लिए दैनिक कार्य में आर्थिक हितों की रक्षा तथा उनमें वृद्धि करने की दृष्टि से कार्य करते हैं ।”

(iv) आर. ए. लिस्टर के अनुसार:

“श्रम संघ कर्मचारियों का एक संगठन है, जो श्रमिकों का स्तर सुधारने तथा कार्य की दशाएं सुधारने का कार्य करता है ।”

(v) एन. बैरोन के अनुसार:

”श्रम संघ मजदूरी व वेतन प्राप्तकर्त्ता तथा शुल्क द्वारा आय प्राप्त करने वाले व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संघ है, जो:

(i) कार्यरत कर्मचारियों की दशाएं सुधारने का प्रयास करते हैं, (नियोक्ता के साथ मधुर सम्बन्ध बनाकर) तथा सेवाओं एवं लाभ का अवसर प्रदान करते हैं,

(ii) दोनों पक्षों के सम्बन्ध राज्य की दृष्टि से अच्छे रहते हैं, तथा

(iii) राष्ट्रीय जीवन में उत्पादकों, मजदूरों और वेतनभोगी व्यक्तियों के मध्य सहयोग की भावना जाग्रत करते हैं ।”

(vi) सोवियत श्रम संहिता धारा,151 के अनुसार:

“श्रम संघ कर्मचारियों का ऐसा संगठन है, जिसमें राज्य कर्मचारी सहकारी समितियों के कर्मचारी तथा निजी क्षेत्र के उत्पादन संस्थानों तथा अन्य व्यवसायों में लगे कर्मचारी संगठित होते हैं । श्रम-संघ अपने सदस्यों के लिए राज्य सरकार, प्रबन्धकों तथा अन्य संस्थाओं से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं । श्रम कल्याण एवं समाज कल्याण सम्बन्धी समस्याओं के हल ढूँढने में तथा विभिन्न बैठकों में भाग लेकर ये संघ श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं ।”

(vii) ब्रिटिश ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1953 के अनुसार:

”श्रम संघ ऐसे संगठन हैं, जिनका मूल उद्देश्य श्रमिक एवं मालिक में श्रमिक एवं श्रमिक में तथा मालिक एवं मालिक में मधुर सम्बन्ध बनाना है, जिससे किसी व्यवसाय के क्रियाकलापों पर, श्रमिकों (अपने सदस्यों) के हितों की रक्षा हेतु आवश्यक नियन्त्रण रखा जा सके ।”

(viii) कार्ल मार्क्स के मत में:

”श्रम संघ सर्वप्रथम संगठन केन्द्र रहा है इसमें कार्यकर्ताओं को एकत्रित करने की शक्ति है । श्रम संघ श्रमिकों की इच्छा से स्वत: विकसित हुए जिनका उद्देश्य अपने आपको ‘दास’ (Slave) के स्तर से ऊँचा उठाना तथा उचित अनुबन्ध-युक्त कार्य की दशाएँ उपलब्ध करना था ।”

(ix) श्रम संघ संशोधित अधिनियम, 1982 के अनुसार:

”श्रम संघ एक स्थायी अथवा अस्थायी संगठन है, जिसकी स्थापना श्रमिक तथा नियोक्ता में, श्रमिक एवं श्रमिक में तथा नियोक्ता व नियोक्ता से सम्बन्ध बनाने हेतु एवं किसी व्यवसाय के आचरण को नियन्त्रित करने हेतु की जाती है । इसके अन्तर्गत दो या अधिक श्रम संघों के संगठन सम्मिलित किये जाते हैं ।”

भारतीय श्रम संघ अधिनियम के अन्तर्गत दी गई परिभाषा ब्रिटिश श्रम संघ अधिनियम, 1913 की परिभाषा के अनुकूल ही है, तथा श्रमिकों तथा नियोक्ता दोनों को अधिनियम के अन्तर्गत संघ बनाने एवं पंजीयन कराने के अवसर प्रदान करता है ।


Essay # 2. श्रम संधों के उदेश्य (Objectives of Trade Union):

श्रम संघों के मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार हैं:

(1) रहन-सहन की लागत के हिसाब से श्रमिकों के लिए उचित मजदूरी हासिल करवाना ।

(2) कार्य करने की दशाओं में सुधार कराना, कार्य-घटे कम रखना, छुट्टियों की व्यवस्था करना, सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना, शिक्षा एवं मकान आदि की सुविधा की व्यवस्था करवाना ।

(3) श्रमिकों को उचित बोनस दिलाना ।

(4) छंटनी की समस्या को दूर कराना ।

(5) औद्योगिक प्रजातंत्र सुनिश्चित कराना ।


Essay # 3. श्रम संघ के कार्य (Functions of Trade Unions):

श्रम संघ बहुत से कार्य करता है ताकि अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सके । इसके मुख्य कार्य इस प्रकार हैं:

(1) बचाव (Protection):

श्रम संघ श्रमिकों को नियोक्ताओं के शोषण से बचाते हैं तथा उन्हें प्रबन्ध के अनुचित व्यवहार से बचाते हैं ।

(2) उचित जीवन स्तर (Proper Standard of Living):

श्रम संघ श्रमिकों को उचित मजदूरी दिला कर उनके जीवन स्तर को बनाए रखने में मदद करते हैं । इसके अतिरिक्त श्रमिकों को स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएं, मकान सम्बन्धी सुविधाओं का भी प्रबन्ध कराते हैं ।

(3) परिवेदन निवारण (Grievance Redressal):

श्रम संघ प्रत्येक श्रमिक की परिवेदना को ब्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप में नियोक्ता के सामने रखते हैं तथा इनका निवारण कराते हैं ।

(4) सामूहिक सौदेबाजी (Collective Bargaining):

रोजगार की शर्तों का निर्धारण करने के लिए श्रम सघ मालिकों से सामूहिक सौदेबाजी करते हैं ।

(5) भागीदारी (Participation):

श्रम संघ मजदूरों के हित के लिए कार्य करते हैं, इसके लिए वे उद्योग में प्रजातत्र स्थापित करते हैं ।

(6) शिक्षा (Education):

बहुत से श्रम संघ श्रमिकों तथा उनके परिवार के सदस्यों के लिए शिक्षा की व्यवस्था भी करते हैं । श्रम संघ श्रमिकों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक करते हैं ।

(7) प्रतिनिधितत्व (Representation):

श्रम संघ बहुत से राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय फोरम पर श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं । जैसे कि, Indian Labour Conference and International Labour Organization (ILO).

(8) सलाह (Advice):

श्रम संघ मानव संसाधन सम्बन्धी नीतियो एवं व्यवहारों से सम्बन्धित सूचना एवं सलाह प्रदान कर सकते हैं । श्रम संघ संगठन में अनुशासन बनाए रखने में भी मदद करते हैं ।

इस प्रकार भारत में श्रम संघों के मुख्य कार्य है:

(1) श्रमिकों के लिए उचित मजदूरी, अच्छी कार्य की दशाएँ तथा अच्छी रहन-सहन की दशाएँ प्राप्त करना;

(2) श्रमिकों द्वारा उद्योग पर नियन्त्रण स्थापित करना;

(3) व्यक्तिगत रूप में श्रमिक की क्षमता में वृद्धि करना तथा आकस्मिक दुर्घटनाओं के समय में सामूहिक रूप से संगठित प्रबन्धकीय षड्‌यन्त्रों के विरुद्ध कार्यवाही करना तथा अन्याय को समाप्त करने के लिए वातावरण तैयार करना;

(4) श्रमिकों के जीवन स्तर में वृद्धि करके उन्हें उद्योग में सहभागी के रूप में तथा समाज में भद्र नागरिक के रूप में स्थान दिलवाना;

(5) श्रमिक में यह आत्मबल जाग्रत करना कि वह उद्योगों में केवल मशीन का पुर्जा मात्र ही नहीं है;

(6) श्रमिकों के अनुशासन तथा उत्तरदायित्व वहन करने की योग्यता का विकास करना;

(7) श्रमिकों का नैतिक उत्थान करने की दृष्टि से कल्याणकारी कार्य करना ।

श्रम संघ के कार्य प्रत्येक देश में स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न एवं सीमित अथवा विस्तृत हैं । प्रजातान्त्रिक शासन वाले देशों में श्रम संघ अधिक स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर पाते हैं । ये संघ स्वयं स्वतन्त्र संस्थाएँ हैं, जो प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली के आधार पर चलायी जाती है ।

एकतन्त्र शासन वाले देशों में श्रम संघ एक अधीनस्थ इकाई के रूप में कार्य करते हैं । वहां ये संघ महत्वपूर्ण सेवाएँ प्रदान करते हैं । ये सेवाएँ सामाजिक बीमा सेवाओं के प्रशासन सामूहिक सौदेबाजी प्रणाली से लेकर श्रमिकों के विवाद प्रस्तुत करने तक के कार्यों से सम्बन्धित हैं ।


Essay # 4. संघों के प्रकार (Types of Unions):

क्लार्क कैर ने छ: प्रकार के श्रम संघ बताये हैं; यह वर्गीकरण आर्थिक उद्देश्यों तथा विधियों पर आधारित है:

1. शुद्ध एवं तेल संघ (Pure and Simple Unions):

इनमें सामूहिक सौदेबाजी को महत्व दिया जाता है । इसमें इस बात पर बल दिया जाता है, कि मौद्रिक लाभ में वृद्धि होनी चाहिए किन्तु इसमें विभिन सिद्धान्तों एवं सूत्रों का कोई उपयोग नहीं किया जाता ।

2. विकसित संघ (Developed Unions):

ये वास्तविक मजदूरी में वृद्धि की माँग करते हैं, तथा अधिक उत्पादन में श्रमिकों के लिए लाभांश चाहते हैं ।

3. प्रबन्धकीय संघ (Managerial Unions):

यह संघ लाभभागिता पर बल देते है । श्रम संघ प्रबन्ध एवं संघ व्यवस्था मूल्य निर्धारण तथा नयी औद्योगिक इकाइयों के प्रवेश पर नियन्त्रण करने के प्रयास करते हैं ।

4. नये संघ (New Unions):

इनमें पूर्ण नियोजन की दशाएँ प्राप्त करने के लिए सरकारी एवं राजनीतिक प्रयास किए जाते हैं, तथा विकासमान अर्थव्यवस्था में विकास के साथ सुधरी हुई अधिक दशाओं के लिए ऊँची मजदूरी की माँग की जाती है ।

5. श्रम गुट संघ (Labour Party Unions):

श्रम गुट संघ के अन्तर्गत राज्य पर प्रभाव डालकर सरकार के माध्यम से कार्य करवाया जाता है । किन्तु सामूहिक सुविधाओ का सहारा नहीं लिया जाता प्रगतिशील करों तथा विभिन्न योगदानों द्वारा वितरण व्यवस्था में सुधार किया जाता है ।

6. प्रत्यक्ष नियन्त्रण संघ (Direct Control Union):

ये संघ सरकार से अल्पकाल के लिए नियन्त्रण अपेक्षित करते हैं (जैसे मूल्य नियन्त्रण) | इस स्तर पर वर्ग हितों के लिए संसदीय स्तर पर मजदूरी, मूल्यों, दरों, राजकीय लाभों आदि समस्याओं पर विचार किया जाता है, एवं उनका निराकरण किया जाता है ।


Essay # 5. श्रम संघों की विशेषताएँ (Characteristics of Trade Union):

श्रम संघों सम्बन्धी कुछ आधारभूत तथ्य या विशेषताएँ निम्न प्रकार है:

(1) श्रमिकों एवं कर्मचारियों का संगठन (Association of Workers and Employees):

यह एक संगठन है चाहे वह नियोक्ता कर्मचारियों अथवा श्रमिकों का हो । इस प्रकार भारत में श्रम संघ में साहूकार नियोक्ता के संगठन सामान्य श्रम संघ मैत्रिक संस्थाएँ बौद्धिक श्रम संगठन सम्मिलित किये गये हैं ।

इंग्लैण्ड में श्रम संघ व्यावसायिक व्यक्तियों के संगठन होते हैं, जैसे कलाकार एवं संगीतकार संघ आदि । चीन में इनका सम्बन्ध संस्थाओं स्कूलों तथा अनियमित रूप से कार्य करने वाले कर्मचारियों के संगठन से है ।

इन सभी प्रकार की संस्थाओं को श्रम संघों की श्रेणी में सम्मिलित नहीं करना चाहिए, क्योंकि नियोक्ता संगठन व्यावसायिक संगठन आदि श्रमिकों के हितों की रक्षा नहीं करते । श्रम संघ केवल श्रमिकों तथा कर्मचारियों के संगठन होते हैं ।

(2) श्रम संघ के बहुमुखी कार्य (Multifunctional):

श्रम संघ श्रमिकों का एक ऐसा संगठन है जो अपने सदस्यों के हित में कार्य करते हैं । इनका कार्य सदस्यों का सामाजिक राजनीतिक तथा सांस्कृतिक उत्थान करना है ।

प्रो. लास्की का कथन है, कि ”श्रम संघ के अन्तर्गत आर्थिक वैधानिक नैतिक तथा सामाजिक संस्थाओं का सम्मिश्रण पाया जाता है, जिसका समाधान तभी सम्भव है जब समस्या के विभिन्न पहलुओं तथा परिवर्तित सामाजिक एवं आर्थिक विधाओं का समुचित ज्ञान हो । आज के श्रम संघ कार्यों में बहुमुखी तथा विधियों में बहुविध हैं ।”

यदि ऐसा न हो तो वे परिवर्तित वातावरण में पायी जाने वाली नित्य नयी मांगों को पूर्ण करने में असमर्थ रहेंगे । श्रम संघों की परम्परागत विचारधारा में अब परिवर्तन हो रहा है, तथा प्राचीन विचारधारा का स्थान नयी विचारधाराएं ले रही हैं ।

जैसे, श्रमिकों की मजदूरी एवं कार्यों की दशाओं में सुधार सम्बन्धी प्रयास करना राष्ट्र के आर्थिक जीवन में समस्या नियन्त्रण स्थापित करना तथा उसमें सहयोग करना । जे. क्यूनीसन के अनुसार, ”श्रम संघ के कार्य तीन सम्बन्धित शब्दों से जुड़े हुए है- श्रमिक, उसका श्रम तथा श्रम बाजार ।”

(3) कार्य प्रणाली में परिवर्तन (Change in Working Style):

श्रम संघों के कार्यों में प्रतिदिन परिवर्तन हो रहे हैं । तकनीकी विकास और नयी उत्पादन की प्रणाली से नयी समस्याएं उत्पन्न होती हैं । अत: श्रम संघों को भी अपनी कार्यप्रणाली में तद्‌नुसार परिवर्तन करना पड़ता है । श्रम संघों का महत्व आधुनिक औद्योगिक प्रणाली में बढ़ गया है ।

श्रम संघ अब अपराधी तथा असंवैधानिक संस्थाओं के स्थान पर मान्यता प्रान्त तथा वैधानिक संस्थाएँ बन चुकी हैं । छोटे समूहों में अब ये बड़ी संस्थाएँ बन चुकी हैं । वे संस्थाएँ जो अब तक अपने सदस्यों के हितवर्धन के बारे में ही प्रयत्नशील थीं, अब सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक उत्थान के लिए प्रयत्नशील है ।

संक्षेप में अपने अल्पकाल में श्रम संघों ने अपने कार्यकलापों में आशातीत वृद्धि की है ।

(4) वर्ग संघर्ष का परिणाम (Result of Class Conflict):

श्रम संघों के उद्‌गम का श्रेय कई विभिन्न विचारधाराओं को है । सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक आन्दोलनों ने कई प्रकार से संघों को प्रभावित किया है । मार्क्स एवं एन्जिल्स तथा उनका वर्ग-संघर्ष का सिद्धान्त श्रम संघों को कई दृष्टियों से प्रभावित करने में सफल रहा है ।

उनके वर्ग-सघर्ष सिद्धान्तों तथा भौतिकवादी विचारों ने एक नये विचार को जन्म दिया है, जिसके अनुसार श्रमिक वर्ग को चाहिए कि पूँजीपति को उखाड़ फेंक दें । वर्गहीन समाज की स्थापना की पूँजीवादी व्यवस्था में श्रम संघ का मुख्य कार्य आत्मरक्षात्मक (Defensive) है; जैसे प्रचलित मजदूरी दरों के लिए संघर्ष करना तुलनात्मक दृष्टि से ऊँची मजदूरी की माँग करना तथा कार्य की दशाओं में सुधार करना ।

जे. आर. कॉमन्स के अनुसार, ”श्रम आन्दोलन सदैव पूँजीवाद के विरुद्ध एक सुरक्षा तथा प्रतिक्रिया है ।” किन्तु यह विचार विवादास्पद है । यह एक निर्विवाद सत्य है, कि श्रम संघ मानवीय जीवन में बढ़ती हुई कठिनाइयों में उलझा हुआ है, तथा औद्योगिक क्रान्ति ने इसका अस्तित्व अनिवार्य कर दिया है ।

दूसरे शब्दों में, ”श्रम संगठन औद्योगिक प्रणाली का शिशु है, तथा इसका जन्म औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप हुआ है ।”

(5) औद्योगिक प्रजातन्त्र का विकास एवं सामूहिक सौदेबाजी (Development of Industrial Democracy and Collective Bargaining):

वेब्स दम्पत्ति तथा अन्य समाजवादी विचारक श्रम संघ को औद्योगिक क्षेत्र में प्रजातन्त्र का विस्तार मानते हैं, तथा उनकी दृष्टि में यह प्रबन्धकीय एकाधिकार को समाप्त करने का साधन है ।

वे इसे श्रमिक की शक्ति तथा कार्य की उचित दशाएँ प्राप्त करने का अस्त्र मानते हैं, वेब्स दम्पत्ति के अनुसार ”यदि स्वतन्त्र राज्य को पूर्णत: तथा अन्तिम रूप तक विकसित करना है, तो यह आवश्यक है कि मानवीय विचारों को प्राथमिकता दी जाय तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा की जाय और नियोजन की दशाओं में उचित सुधार किया जाए, इस रूप में श्रम संघ का मुख्य कार्य उद्योग में प्रशासन की दृष्टि से कार्य करना है ।”

भारत सरकार ने भी यह मान्यता स्वीकार की है कि ”समाजवादी समाज की स्थापना के लिए औद्योगिक प्रजातन्त्र की स्थापना आवश्यक है ।”

लेनिन ने श्रम संघ के गुणों को इस प्रकार व्यक्त किया है:

“श्रम संघ एक शैक्षणिक संगठन हैं….एक प्रशासकीय पाठशाला है, यह एक आर्थिक प्रबन्ध की पाठशाला हैं… तथा साम्यवाद का प्रवर्तक है ।” सभी समाजवादी देशों द्वारा यह स्वीकार किया गया है, कि श्रम संघ औद्योगिक एवं श्रम अधिनियम बनाने में सक्रिय सहयोग दें ।

श्रम संघ उत्पादन, रहन-सहन प्रणाली तथा सांस्कृतिक जीवन में इन नियमों को लागू करने की व्यवस्था में रुचि लें । वर्ग-सघर्ष के होने में कोई मतभेद नहीं है, किन्तु उनका निराकरण सामूहिक सौदेबाजी तथा विचार-विनिमय के आधार पर होना अधिक हितकारी होता है ।

सरकार श्रमिकों के कार्य करने के अधिकार को सुरक्षित करने, आराम का पर्याप्त समय प्रदान करवाने तथा वृद्धावस्था, बीमारी एवं अयोग्यता के समय श्रमिक का संधारण करने, श्रमिक को शिक्षित करने एवं समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान कराने के लिए उत्तरदायी है ।

श्रमिक तथा प्रबन्धक एक सामान्य हित की उपलब्धि हेतु प्रयत्नशील रहते है; जैसे समाजवादी सरकार के हितों में वृद्धि करते है, कयोंकि उसके साथ उनके हित भी जुड़े हुए हैं ।

उपर्युक्त सभी आधारभूत बातों की जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त हम श्रम संघ की इस प्रकार परिभाषा कर सकते हैं:

”श्रम संघ वेतनभोगी कर्मचारियों द्वारा बनाया गया एक निरन्तर कार्यरत ऐच्छिक संगठन है, जो अपने सदस्यों के हितों की रक्षा करने, उनकी कार्यकारी जीवन की दशाओं को बनाये रखने, उनमें सुधार करने तथा नियोक्ताओं के साथ सम्बन्ध उत्तम बनाने में सतत् प्रयत्नशील रहता है । संक्षेप में, ये संघ ऐसे उपकरण हैं, जो उद्योग में एवं वर्ग या समूहको दूसरे वर्ग या समूह (नियोगी-नियोक्ता) से सौदेबाजी के अवसर उपलब्ध करते हैं ।”


Essay # 6. श्रम संघों की संरचना (Structure of Trade Unions):

श्रम संघों का ढाँचा प्रत्येक देश में भिनभिन होता है, सामान्यत: यह तीन प्रकार का होता है:

(1) दस्तकारी संघ

(2) सामान्य संघ तथा

(3) औद्योगिक एवं रोजगार संघ ।

(1) दस्तकारी संघ (Craft Unions):

ये किसी उद्योग विशेष में कार्यरत श्रमिकों के संघ होते है । ये एक से अधिक उद्योग के कर्मचारियों के संघ भी हो सकते हैं । किन्तु उनमें कार्य की प्रकृति एक जैसी ही होती है । ये संघ एक ही प्रकार की योग्यता कौशल तथा प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्तियों के संघ होते हैं ।

इनमें अधिकाश सदस्य श्रम करने वाले व्यक्ति होते हैं, इन संघों का उद्देश्य श्रमिकों को शोषण से मुक्ति दिलाना है । ये संघ क्षैतिजीय (Horizontal) होते हैं । अहमदाबाद वीवर्स यूनियन तथा कानपुर सूती मिल मजदूरी सभा इसके अच्छे उदाहरण हैं ।

कुछ अन्य उदाहरण बैंकिंग एवं व्यावसायिक उद्योगों के कर्मचारी, राज्य कर्मचारी, रेलवे एवं डाक-तार कर्मचारी, पत्रकार, इन्जीनियर एवं अध्यापकों के संघ हैं ।

(2) सामान्य संघ (General Unions):

ये वे हैं जो सभी प्रकार के उद्योगों में पाये जाते हैं, तथा विभिन्न कौशल एवं स्तर के व्यक्तियों को सम्मिलित करते हैं । इंग्लैण्ड में अर्द्धकुशल एवं अकुशल श्रमिकों के ये संघ धीरे- धीरे विशिष्टीकरण की ओर बड़े हैं । तथा कालान्तर में इन्होंने दस्तकारी संघों का विशिष्ट रूप धारण कर लिया है । इन संघों में सभी प्रकार के गुण पाये जाते हैं ।

अर्थात् ये संघ किसी प्रकार की समस्या के लिए श्रमिक का प्रतिनिधित्व करने के लिए तैयार रहता है । इंग्लैण्ड में नगरपालिका कर्मचारियों और सामान्य कर्मचारियों का संघ (National Union of Municipal and General Workers) तथा परिवहन तथा सामान्य कर्मचारियों का संघ (Union of Transport and General Workers) इसके अच्छे उदाहरण हैं ।

(3) औद्योगिक संघ (Industrial Unions):

ये वे संघ हैं, जिनमें किसी भी उद्योग के श्रमिक सदस्य बन सकते हैं, जैसे कोयला खान, लोहा एवं इस्पात, वस्त्र उद्योग, बागान उद्योग, आदि । इनमें कौशल एवं तकनीक के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं किया जाता । ये संघ गुणों में ऊर्ध्वमुख (Vertical) होते हैं । अहमदाबाद सूत्री वस्त्र उद्योग, चाय बागान श्रमिक संघ (उत्तरी भारत), आदि इस श्रेणी के संघों के उदाहरण हैं ।

श्रम संघ (Labour Unions) शब्द का प्रयोग ‘दस्तकारी संघ’ तथा ‘औद्योगिक संघ’ दोनों के लिए किया जाता है । भारत में श्रम संघ ‘सामान्य संघ’ के स्तर को पार कर ‘औद्योगिक संघ’ बन चुके हैं ।

स्ट्रमथाल (Strumthal) के अनुसार ”औद्योगिक संघ के विकसित होने के कारणों से पता चलता है, कि भारत में श्रम संघ व्यवसायी तथा दस्तकारी युग को पार कर चुके है, पूँजीवादी अर्थव्यस्था से निकल चुके हैं तथा कृषि उत्पादन से सीधे औद्योगिक उत्पादन में प्रवेश कर चुके हैं, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है ।”

यद्यपि भारत में औद्योगिक संघ महत्वपूर्ण है, किन्तु इनका स्वरूप अमरीका एवं इंग्लैण्ड के संघों से काफी भिन्न है । अमरीका में श्रम संघ ऐसे संगठन हैं, जिनका क्षेत्र सम्पूर्ण उद्योगों सभी व्यवसायों कुशल एवं अकुशल श्रमिकों में फैला हुआ है । किन्तु भारत में औद्योगिक संगठन एक इकाई तक ही सीमित है ।

सामान्यत: श्रम संघ एक दुकान की किस्म (One Shop Variety) के पाये जाते हैं । भारत में अधिकाश श्रम संघ कार्य क्षेत्र के आधार पर पाये जाते हैं, जबकि इंग्लैण्ड में ये आवास स्तरीय इकाई पर Place of Resident Unit ही है ।

यहाँ श्रमिक औद्योगिक संगठनों में संगठित हैं, तथा व्यवसाय के आधार पर कारखाना या फर्म स्तर पर किसी का भेद नहीं किया जाता है । इसका प्रभाव यह हुआ है कि भारत में श्रम संघ अपने संकुचित क्षेत्र तथा छोटे आकार के कारण कमजोर रहते हैं, तथा वे शक्तिशाली नहीं बन पाते हैं ।

भारत में श्रम संधों के संगठनात्मक ढाँचे के तीन सार पाये जाते हैं:

(1) सयन्त्र या दुकान स्तर (Plant or Shop Level)

(2) राज्य स्तर (The State Level) तथा

(3) केन्द्र स्तर (The Central Level) ।

केन्द्र स्तर पर विद्यमान श्रम संघ अपनी नीतियाँ राज्य स्तरीय तथा अन्य छोटे संघों पर लागू करते हैं । प्रत्येक केन्द्रीय संघ की राज्य स्तर पर अपनी शाखाएं होती हैं । जहाँ से क्षेत्रीय एवं स्थानीय स्तर पर प्रबन्ध किया जाता है ।

भारत में श्रम संघों में दो प्रकार के फेडरेशन पाये जाते हैं: राष्ट्रीय फेडरेशन तथा सघों के फेडरेशन । राष्ट्रीय फेडरेशन में एक उद्योग के सभी संघ सम्बद्ध होते हैं , तथा उनके सदस्य होते हैं । प्रत्येक श्रम संघ चाहे वह किसी उद्योग से सम्बन्धित हो सामान्य राष्ट्रीय फेडरेशन का सदस्य बन सकता है ।

ये फेडरेशन श्रम संघ ढाँचे के शिखर पर होते हैं । इनका कार्य श्रम संघों के क्रियाकलापों में समन्वय स्थापित करना है, तथा सभी संघों में राष्ट्रीय भावना जाग्रत करना है ।

फेडरेशन के उद्देश्य नये श्रम संघ स्थापित करना, संघों को शक्तिशाली बनाना तथा उन्हें संगठित करना, श्रम एवं पूँजी में सौहार्द्रता का वातावरण तैयार करना तथा श्रम सघों एव श्रमकों के स्तर में सुधार करना आदि कार्य करते हैं ।


Essay # 7. श्रम संघों का पंजीकरण (Registration of Trade Unions):

Trade Union act, 1926 के अन्तर्गत श्रम संघ के केवल 7 या अधिक सदस्य पंजीकरण के लिए प्रार्थना पत्र दे सकते हैं ।

प्रार्थना पत्र श्रम संघ के रजिस्ट्रार को दिया जाता हैं जिसके साथ निम्न विवरण दिया जाता है:

(1) प्रार्थना पत्र देने वालों के नाम, पते, पेशा;

(2) श्रम संघ का नाम तथा इसके मुख्य कार्यालय का पता एवं

(3) श्रम संघ के अधिकारियों के नाम, उम्र, पते तथा पेशा ।

यदि श्रम संघ का एक वर्ष हो गया है, तो उसकी सम्पत्तियों और दायित्वों का विवरण रजिस्ट्रार के पास भेजा जाता है ।

पंजीकृत श्रम संघ के अधिकार (Rights of a Registered Trade Unions):

एक पंजीकृत श्रम संघ के निम्नलिखित अधिकार होते हैं:

(i) यह एक निगमित बॉडी होती है, जिसका स्थाई अस्तित्व होता है एवं अपनी एक सील (Common Seal) होती है ।

(ii) इसका अस्तित्व अपने सदस्यों से पृथक् होता है ।

(iii) यह अपने नाम से प्रॉपर्टी खरीद सकता है, तथा अनुबन्ध कर सकता है ।

(iv) यह राजनीतिक उद्देश्य के लिए अलग से कोष रख सकता है ।


Essay # 8. भारत में श्रम संघों की कमियाँ एवं समस्याएँ (Problems and Shortcoming of Trade Unions In India):

कई प्रयत्न करने पर भी श्रम संघ आन्दोलन अभी तक विकसित नहीं हो पाया है । अन्य देशों (जैसे-स्वीडन, जर्मनी, ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका रूस आदि) की तुलना में भारतीय श्रम संघ आन्दोलन निर्बल, अस्थायी, बिखरा हुआ है ।

भारत में श्रम संघ आन्दोलन की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार है:

(1) असमान विकास (Uneven Development):

भारत में श्रम संघों का विकास सभी उद्योगों में समान रूप से नहीं हुआ है । कुछ उद्योगों में इसका विकास अच्छा हुआ है, जैसे; बागान, कोयला, खान, खाद उद्योग, सूती वस्त्र उद्योग, प्रिंटिंग प्रेस, केमिकल, सामाजिक उपयोगिता सेवाएं एव सरकारी प्रतिष्ठान जिनमें पर्याप्त प्रगति हुई है ।

यह सामान्य तथ्य है कि श्रम संघ बड़े उद्योगों में ही विकसित हुए हैं । चूंकि बड़े पैमाने के उद्योग का जमाव औद्योगिक नगरों में है वस्तुत: श्रम संघ भी उन्हीं नगरों में पाए जाते हैं ।

ऐसे औद्योगिक केन्द्र व उद्योग जहाँ पर सशक्त श्रम संघ पाए जाते हैं, इस प्रकार हैं:

सूती वस्त्र उद्योग, मुम्बई, अहमदाबाद, इन्दौर एवं कानपुर जूट मिल, बंगाल; इचीनियरिंग उद्योग, कोलकाता; बागान उद्योग, असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु एवं केरल; रसायन एवं औषधि उद्योग, मुम्बई एवं बड़ोदरा । विभिन्न राज्यों में परिवहन उद्योग में भी श्रम संघ पाए जाते हैं ।

कार्यालय कर्मचारियों में श्रम संघ का विकास अभी नहीं हो पाया है । कृषि उद्योग, घरेलू उद्योग तथा लघु उद्योग में श्रमिक अभी भी संगठित नहीं है ।

समस्त श्रमिकों का केवल 25% संगठित है, इसमें कृषि श्रमिक सम्मिलित नहीं हैं । यदि कृषि श्रमिकों की संख्या भी इसमें सम्मिलित कर ली जाए तो यह प्रतिशत और भी कम हो जाएगा ।

श्रम संघ की सदस्यता प्रत्येक उद्योग में पृथक्‌-पृथक् है; जैसे- खान उद्योग में 41%, यातायात एवं सन्देशवाहन में 37 से 39%, निर्माण उद्योग, बिजली तथा गैस उद्योग में भी 38 से 40% थी । कुछ अन्य उद्योगों में संघ की सदस्यता का प्रतिशत इस प्रकार है; कोयला 41%, तम्बाकू उत्पादन 75%, सूती वस्त्र उद्योग 56%, लोहा एवं इस्पात उद्योग 63%, बैंक 51%, बीमा 33% तथा बागान 28% |

इस प्रकार श्रम संघ नगरीय क्षेत्रों में ही केन्द्रित हैं, तथा इनके अन्तर्गत कुल श्रमिकों का बहुत ही कम प्रतिशत संगठित है ।

(2) लघु स्तरीय श्रम संघों का बाहुल्य (Preponderance of Small Size Unions):

अधिकांश भारतीय श्रम संघ का आकार छोटा होता है, तथा इनकी सदस्ता बहुत ही कम है । सन् 1964-65 में वार्षिक प्रतिवेदन करने वाले संघों में से 63% हार तथा श्रम संघ 300 से कम सदस्यता वाले, 28% रफ श्रम संघ 500 से कम सदस्यता वाले थे तथा इन दोनों श्रेणियों में श्रम संघ की समस्त सदस्यता का 12% एक से 18% था ।

सन् 1964-65 में 5,000 से अधिक सदस्यता वाले श्रम संघ 1.7% थे तथा इनमें कुल सदस्यता का 48%, भाग था । उपर्युका आकड़ों से पता लगता है कि भारत में छोटे आकार के श्रम संघों की संख्या अधिक है । श्रम संघों के छोटे होने का दूसरा कारण इन संघों के श्रमिकों का बिखरा होना है, जो अधिकांशत: छोटे व्यवसायों में कार्यरत हैं ।

श्रम संघों के नेतृत्व और केन्द्रीय संगठनों में विरोधी विचारधाराएँ होने के कारण श्रम संघों की संख्या बहुत अधिक है । यही कारण है कि उनकी औसत सदस्यता काफी कम है । वर्ष 1944-45 तथा 1964-65 के मध्य छोटे श्रम संघों का (100 श्रमिकों से कम सदस्यता वाले) अनुपात 17.1% से बढ्‌कर 43.5% हो गया है । इन संघों में सदस्यता 0.6% से बढ्‌कर 3.6% हो गई है ।

वर्ष 1944-45 में मध्यम की के श्रम संघों (100 से 999 सदस्यता वाले) का अनुपात 56.4% था, जो 1964-66 में घटकर 18.2% रह गया । इन्हीं वर्षों में इन संघों में कुल संघीय सदस्यता का प्रतिशत क्रमश: 14.1 तथा 25.5 रहा है ।

बड़े श्रम संघों (1000 से अधिक सदस्यता वाले) का अनुपात 1944-45 में 26.1% था वह घटकर 1964-65 में 86%, रह गया तथा सदस्यता अनुपात क्रमश: 85.3% रक्त और 70.9% रत्न रहा । इस प्रकार इन 20 वर्षों में छोटे श्रम संघों की सदस्यता वृद्धि हुई है ।

छोटे संघों की बहुलता के कारण संघ वित्तीय दृष्टि से काफी दुर्बल हो गए हैं, तथा वे कुशल सलाहकारों की सहायता लेने मे असमर्थ रहे । औद्योगिक जटिलताओं की वृद्धि के साथ, जिस समय श्रमिकों के हितों की रक्षा करने के लिए अधिक विशेषज्ञ सलाह तथा अधिक संगठित का से कार्य करने की आवश्यकता प्रतीत होती है, उस समय ये छोटे संघ अपने आपको असहाय पाते हैं ।

ये संघ लम्बे समय तक नियोक्ता की चुनौती का सामना नहीं कर सकते, क्योंकि इनकी सौदेबाजी की क्षमता (Bargaining Capacity) बहुत कम होती है ।

(3) श्रमिकों की प्रवासी प्रवृत्ति (Migratory Character of Workers):

भारत में लगभग 50% श्रमिक ही संगठित हैं । यही स्थिति आंशिक रूप से प्रवासी प्रवृत्ति के कारण है, तथा आंशिक रूप से श्रमिक की दशा में कुछ सुधार होने के कारण है । अधिकांश भारतीय श्रमिक ग्रामीण अशिाइक्षत एवं अकुशल होने के साथसाथ प्रवासी भी हैं ।

नगरों में आने पर भी अपने सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक वातावरण तथा कृषि उद्योग से सम्बन्ध नहीं तोड़ते । श्रमिकों की प्रवासी प्रवृत्ति के कारण इनकी अनुपस्थिति दर भी अधिक रहती है, और वे उद्योग में स्थायी रूप से कार्यरत नहीं रह पाते ।

इन परिस्थितियों के कारण व कार्य की दशाओं, कारखाने के वातावरण आदि के प्रति उदासीन रहते हैं । अत: इनमें संगठन के प्रति रुचि नहीं पाई जाती है । ये श्रम संघ को नियमित चन्दा देना भार समझते हैं ।

प्रवासी प्रवृत्ति के कारण अधिकांशत: श्रमिक औद्योगिक की में नहीं आते, कार्य के प्रति रुचि नहीं लेते तथा आधुनिक उद्योग से अधिक लगाव नहीं रखते । डॉ मेयर्स के अनुसार ”भारतीय श्रम संघो में अल्पायु जैसी स्थित पाई जाती है अर्थात् लगभग 10% संघ पंजीकृत होने के एक वर्ष में ही समाप्त हो जाते हैं ।”

अधिकांश श्रम संघ सरकार को प्रतिवेदन नहीं प्रस्तुत करते । भारत में स्थापित 55,000 संघों में से लगभग 20% अपना प्रतिवेदन भिजवाते हैं ।

(4) श्रम संघों का अस्थायित्व (Temporary-Nature of Labour Unions):

श्रम संघों की सदस्यता में उतार-चढ़ाव पाया जाता है । संघों में आपसी वैमनस्य तथा प्रतिद्वन्दीता के कारण निर्बल इकाइयां अल्पायु में ही समाप्त हो जाती हैं । प्रतिद्वन्दी संघ अन्य संघों के सदस्यों में फूट डालने का प्रयत्न करते हैं ।

इन संघों के अपरिपक्व होने के कारण ये हैं: सदस्यों में जागृति और नेतृत्व का अभाव, वित्त की कमी जिसके कारण श्रम संघ सबल नहीं हो सके तथा स्थापित होने वाले संघों में से अधिकांश अल्पकाल में ही समाप्त हो जाते है ।

(5) वित्त की कमी (Lack of Finance):

अधिकांश भारतीय श्रम संघ वित्तीय दृष्टि से निर्बल हैं । प्रति संघ की औसत वार्षिक आय 2,300 रुपए है । इसमें से 23% संघों की आय Rs.250 से कम, 44% की आय Rs.500 से कम तथा 73% की आय Rs.1500 से कम है ।

श्रम संघों की कुल आय का 73% सदस्यों द्वारा, 15% दान, चन्दे, आदि द्वारा 2% विनियोग के ब्याज द्वारा प्राप्त होता है । कुल आय का लगभग 50% संघों के कार्यकर्त्ताओं तथा कार्यालय कर्मचारियों पर व्यय हो जाता है जबकि श्रम-कल्याण कार्यों पर केवल 4% व्यय किया जाता है ।

इसका कारण साधनों की कमी होना है । श्रमिक दरिद्रता के कारण संघों को नियमित रूप से चन्दा नहीं दे पाते हैं । निम्न मजदूरी के कारण वे अपनी उदरपूर्ति के लिए ही पर्याप्त साधन नहीं जुटा पाते अत: ऐसी स्थिति में सघों को चन्दा देना उनके लिए सम्भव नहीं हो पाता है ।

परिणामस्वरूप श्रम संघ श्रमिकों के हितों के कल्याणकारी कार्य नहीं कर पाते और नही उन्हें आवश्यकता पड़ने पर वित्तीय सहायता प्रदान कर पाते हैं । इससे श्रमिकों का संघ में विश्वास कम होता है ।

(6) श्रम संघों की बहुलता (Multiplicity of the Union):

श्रम-संघ की बहुलता तथा प्रतिद्वन्ही श्रम संघों का पाया जाना भारतीय श्रम-संघ आन्दोलन की विशेषता है । विभित्र प्रतिद्वन्ही संघ, विरोधी विचारधाराएं, राजनीतिक हस्तक्षेप, आदि कारण श्रम संघों के विकास में बाधक रहे है ।

एक ही संगठन में श्रमिकों के कई समूह तथा कई छोटे–छोटे संगठन देखने को मिलते हैं; जैसे- आन्तरिक समूह तथा बाहरी समूह, नये तथा पुराने कर्मचारी, ऊँची तथा नीची जाति के व्यक्तियों का समूह, आदि ।

इनके फलस्वरूप छोटे संघों का निर्माण होता है । अन्तर्संघीय विवादों के कारण संघ की शक्ति क्षीण हो जाती है, तथा श्रमिकों की सौदेबाजी की क्षमता कम होती है । इससे श्रम संघ श्रमिकों को लाभान्वित करने में असफल रहते हैं ।

इसके अतिरिक्त, संयन्त्र स्तर पर श्रम संघों की अधिकता के कारण प्रत्येक संघ सम्पूर्ण श्रमिक समुदाय के नगण्य मात्र समूह का प्रतिनिधित्व कर पाता है ।

इससे सामूहिक सौदेबाजी को ठेस पहुँचती है, तथा संघ अपनी स्थिति सुदृढ़ नहीं कर पाते । इन संघों के कार्य भी सीमित होते हैं । वे श्रमिकों में सृजनात्मक तथा सहकारी वृत्ति को प्रोत्साहित नहीं करते अपितु अविश्वास, द्वेष, असहयोग तथा अन्य ऐसी ही गतिविधियों को बढ़ाते हैं । दूसरे शब्दों में श्रम संघ विघटनकारी कार्य ही अधिक किया करते हैं ।

अधिकांश श्रम संघ आपसी सहायता तथा कल्याणकारी कार्यो की ओर ध्यान नहीं देते । कैटलिन के अनुसार, ”जितना अधिक ही कोई संघ श्रमिकों को लाभान्वित करता है, उतना ही वह अधिक सफल होता है, तथा अपने सदस्यों का अधिक विश्वास प्राप्त कर सकता है ।”

श्रम संघों के प्रति नियोक्ता का रुख भी काफी कड़ा है । जोशी के अनुसार, ”वे सर्वप्रथम संघ निर्माण नहीं होने देते, यदि उनका निर्माण हो जाता है, तो उसे समाप्त करने की चेष्टा करते हैं, और इतना सब कुछ करने पर भी यदि संघ जीवित रहते हैं, तो उसे आसानी से मान्यता प्रदान नहीं करते ।”

नियोक्ता श्रम संघों को कमजोर बनाने के विभिन्न उपाय करते हैं; जैसे- श्रमिकों का शोषण करना उन्हें डराना धमकाना प्रतिद्वन्द्वी संघ स्थापित करना श्रमिकों में फूट डालने के प्रयास करना श्रम संघों को मान्यता नहीं देना श्रम संघो की गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगाना संघ के सदस्यों एवं नेताओं की काली सूची (Black List) तैयार करना, तालाबन्दी करना या करने की धमकी देना, श्रमिकों की पदोन्नतियाँ रोकना अथवा उनकी पद अवनति करना, गुण्डे पालना, संघ की क्रियाओं में सक्रिय भाग लेने वाले श्रमिकों को पिटवाना; हड़ताल तुड़वाने के प्रयत्न करना तथा श्रमिकों को परेशान करने का वातावरण तैयार करना आदि ।

(7) बाहरी नेतृत्व (Outside Leadership):

भारतीय श्रम संघों की यह विशेषता है, कि आरम्भ से इन पदों पर बाहरी नेताओं का आधिपत्य रहा है । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि ”श्रम संघों का नेतृत्व श्रमिकों द्वारा नहीं वरन् राजनीतिज्ञों, वकीलों, समाज-सुधारकों, पेशेवर व्यक्तियों द्वारा प्रदान किया जाता है । अत: यह एक विद्वानों का नेतृत्व है, न कि श्रमिकों का ।” यह स्थिति उद्योग स्तर पर ही नहीं वरन् राष्ट्रीय स्तर पर पाई जाती है ।

इसके कई कारण हैं:

(i) श्रमिकोंका अशिक्षित होना । अशिक्षित होने के कारण वे नियोक्ताओं से विचार-विमर्श नहीं कर पाते ।

(ii) प्रबन्धक श्रमिकों की तुलना में योग्य, शिक्षित, संगठित तथा एक शासनतन्त्रीय विचारधारा वाले होते हैं, इससे श्रमिक नियोक्ताओं से विचार-विमर्श करने मे हीनता का अनुभव करते हैं ।

(iii) आज भी श्रमिक अपने नियोक्ता को माई-बाप समझते हैं, तथा कठिनाई के समय उससे सहायता की आशा रखते हैं, तथा उन्हें आदर भाव से देखते हैं, अत: स्वयं वे नेतृत्च प्रदान करने में असक्षम सिद्ध होते हैं ।

(iv) राजनीतिक नेता या वकील श्रमिक की अनुपस्थिति में भी उसकी समस्याएँतो प्रस्तुत करते हैं, परन्तु नियोक्ताओं को किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं कर सकते ।

इन नेताओं का मूल उद्देश्य अपना महत्व बढ़ाना तथा व्यक्तिगत हितों में वृद्धि करना होता है, ऐसी स्थिति में ये श्रमिकों को लाभान्वित करने में असफल रहते हैं । श्रमिकों से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं होने के कारण श्रमिकों की समस्याओं सें भली प्रकार से परिचित नहीं होते हैं ।

इन सभी परिस्थितियों के कारण ये नेता श्रमिकों की समस्याओं को अधिक कुशलतापूर्वक प्रस्तुत नहीं कर पाते तथा श्रमिक हितों की रक्षा करने में असफल रहते हैं ।

भारतीय श्रम संघ एक ऐसे कुचक्र में फंसे हुए हैं, जिसमें बाहरी नेतृत्व से श्रम संघ राजनीतिक सघ का रूप ले लेते हैं, इससे बहुसंघ प्रणाली का प्रसार होता है, इससे प्रत्येक संघ की सदस्यता घटती है, उनकी वित्त स्थिति निर्बल होती है, कल्याण कार्यों में कमी आती है, सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति क्षीण होती है, तथा रचनात्मक प्रवृत्तियों में कमी होती है ।

इससे संघ पुन: बाहरी नेतृत्व पर आधारित हो जाता है, और यह कुचक्र अनवरत रूप से चलता रहता है ।

(8) राजनीतिक दलों से सम्बन्ध (Alliance with Political Parties):

भारतीय श्रम आन्दोलन राजनीतिक दलों की देन है । प्रारम्भिक अवस्थाओं में श्रम आन्दोलन का नेतृत्च भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) के हाथ में था, जिसने स्वदेशी आन्दोलन, खिलाफत आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन तथा नागरिक अवज्ञाकारी आन्दोलन (Civil Disobedience Movement) प्रारम्भ किए ।

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम सम्बन्धी इन आन्दोलनों में भारतीय जनता भी साथ थी । मुख्य कांग्रेसी जैसे सी.आर.दास, एस.सी.बोस तथा जवाहर लाल नेहरू भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा अखिल भारतीय श्रम-संघ कांग्रेस (AITUC) दोनों के अध्यक्ष रहे हैं ।

स्वतन्त्रता सेनानी जैसे ए.क.गाँधी, सी.एफ एण्ड्रयूज तथा एनी बेसेण्ट श्रमिक हितों में वृद्धि करने की दिशा में काफी प्रयत्नशील एवं सक्रिय कार्यकर्त्ता रहे हैं । वर्ष 1947 तक श्रम आन्दोलन स्वतन्त्रता की छाया में पनपता रहा । उस समय इसकी एकमात्र प्रतिनिधि संस्था एटक थी जिसके वर्ष 1929 में साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में दो भाग हो गए ।

वर्ष 1934-38 में समाजवादी विचारधारा तथा वर्ष 1939-46 में प्रतिक्रियावादी विचारधारा की प्रधानता रही, किन्तु ये सब काग्रेस विचारधारा के समान्तर रही थी । यह उल्लेखनीय है कि भारतीय आन्दोलन उस समय एक समन्वित रूप में था ।

एटक के नागपुर अधिवेशन से ही आन्दोलन में होने वाले परिवर्तनों के आसार दिखाई देने लगते हैं, जो एच.एम.एस. एस. तथा भारतीय श्रम फेडरेशन की स्थापना के रूप में समाने आते हैं । सन् 1947 में सम्पूर्ण श्रम आन्दोलन विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर विभाजित हो गया ।

जो प्रमुख श्रम संघ बने वे इस प्रकार हैं-भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC), अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC), हिन्द मजदूरी सभा (HMS), संयुक्त ट्रेड यूनियन कांग्रेस (UTUC), सेण्टर फॉर ट्रेड यूनियन कांग्रेस (CTUC) तथा भारतीय मजदूरी कांग्रेस (BMS) आदि प्रमुख हैं ।

(9) बाह्य साधनों पर निर्भरता (Dependence on External Sources):

वर्तमान में भी भारतीय श्रम आन्दोलन बाहरी साधनो पर निर्भर है, क्योंकि बाहरी साधन आन्तरिक परिस्थितियों के फलस्वरूप बहुत ही दुर्बल हैं । इसके अतिरिक्त, श्रम-नेता योग्य तथा अनुभवी नहीं हैं । श्रम आन्दोलन के विकास के लगभग 70 वर्ष के पश्चात् ही श्रम आन्दोलन का अपना कोई दर्शन नही बन सकता है ।

डॉ.शर्मा के अनुसार, ”भारत में श्रम संघ का कोई दर्शन नहीं बन पाया है, जैसे इंग्लैण्ड में फैबियनवाद, जर्मनी में पुनरावलोकनवाद (Revisionism), फ्रांस में सिण्डिकैलिज्म और अमेरिका में वर्ग-समामेलनवाद (Class-Collaboration) पाए जाते हैं । दार्शनिक दृष्टि से भारतीय आन्दोलन का क्षितिज सूना है जोकि श्रम आन्दोलन की परिपक्वता का आदर्श है । श्रम आन्दोलन का दर्शन रॉबर्ट ओवन, काल मार्क्स, प्रोधों (Proudhon), लासेल (Lasselle) तथा विद्वान विचारक वेब्स अथवा जी. डी. एच. कोल के विचारों में मिलता है ।”

अत: आन्दोलन निरन्तर सही दिशा प्राप्त करने की चेष्टा करता है । आन्तरिक दृष्टि से अभी तक आन्दोलन राजनीतिक संयन्त्र पर निर्भर है तथा बाहरी तौर पर उसे अन्तर्राष्ट्रीय श्रम क्रियाओं पर आश्रित रहना पड़ता है ।

इस अन्तर्द्वन्द्व के कारण श्रम आन्दोलन को वैचारिक धुरियों-लाल अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ (Red International Labour Union), मास्को विचारधारा तथा अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ फेडरेशन (International Federation Of Trade Unions) एम्सटरडम विचारधारा के बीच पनप रहा है । इसी का परिणाम एटक का वर्ष 1929 तथा वर्ष 1936 का विभाजन है ।

वर्ष 1947 के उपरान्त आन्दोलन उसी आधार पर विभाजित हुआ । इण्टक का सम्बन्ध इण्टरनेशनल कॉनफेडरेशन ऑफ फ्री ट्रेड यूनियन्स से है, जो आंग्ल–अमेरिकी खेमे की समर्थक है, तथा एटक वर्ल्ड फडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स से समर्थित है, जो साम्यवादी खेमे से सम्बद्ध है । हिन्द मजदूर सभा भी इण्टरनेशनल कॉरपोरेशन ओंफ फ्री ट्रेड यूनियन्स से समर्थित है ।

(10) श्रमिकों की विभिन्नताएँ (Heterogeneity of Workers):

जहाँ एक ओर नियोक्ता विभिन्न संस्थाओं तथा आर्थिक एवं राजनीतिक संगठनों के रूप में सशक्त होते हैं, वहीं दूसरी ओर श्रमिक बहुत निर्धन अशिक्षित तथा अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों के प्रति अनभिज्ञ होते हैं ।

इसके अतिरिक्त, वे जाति, धर्म भाषा, वर्ण, आदि के आधार पर भी बंटे हुए हैं । शाही श्रम आयोग के अनुसार भारतीय श्रमिक ”भाषा, जाति एवं धर्म के आधार पर विभाजित हैं, जो श्रमिकों की एकता में बाधक है ।”

उपर्युत समस्याओं के अतिरिक्त निम्न कारण भी श्रम आन्दोलन के समुचित विकास में बाधक हो रहे हैं:

(i) सरकार को अवास्तविक नीतियों/आदर्शवादी विचारधारा ने श्रम संघों को वास्तविकता से परे कर दिया है । श्रम कल्याण की दृष्टि से सरकार कोई ठोस कार्य नहीं कर सकी ।

(ii) भारत में लक्ष्य प्राप्ति का आदर्श, उनकी प्राप्ति के प्रति अधिक आशावान होना तथा वास्तविकता का पोषण नहीं करना भी कारण रहा है ।

(iii) सरकार अत्यधिक आशावादी रही है; जैसे श्रमिक शिक्षा योजना, श्रमिक की प्रबन्ध में सहभागिता, अनुशासन संहिता, आदि को बिना उचित वातावरण तैयार किये लागू कर दिए हैं । इनसे वास्तविक श्रम समस्या का निदान तो नहीं हुआ, किन्तु श्रमिक एक अलग ही वातावरण में सोचने के लिए बाध्य हो गया ।

(iv) सरकार ने बड़ी संख्या में, किन्तु कमजोर श्रम संघों को प्रोत्साहन देने की नीति अपना ली । उपर्युक्त समस्याओं के उपरान्त भी श्रम आन्दोलन श्रमिकों के आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक सुधार की दृष्टि से लाभकारी सिद्ध हुआ है ।

आर्थिक दृष्टि से श्रमिकों के स्तरों में पहले की अपेक्षा सुधार हुआ है । राजनीतिक दृष्टि सें विस्तारवाद, पूँजीवाद विरोधी, पूँजी के समान वितरण के विवादों तथा समाजवादी विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ है ।

सामाजिक दृष्टि से राष्ट्रीय एकता को बल मिला है । श्रमिकों में जाति, धर्म, वर्ण आदि के आधार पर भेदभाव में कमी आयी है । यह बड़ी विरासत समाजवादी समाज की स्थापना की दृष्टि से हमें श्रम संघों से प्राप्त हुई है ।


Essay # 9. श्रम संघों को सुदृढ़ बनाने के उपाय (Measures for Strengthening Trade Unions):

श्रम संघों को सफल बनाने के लिए यहाँ कुछ सुझाव दिए जा रहे हैं:

(1) वेतन प्राप्त कार्यकर्त्ता (Paid Union Officials):

परम्परानुसार अधिकांश श्रम संघों का कार्य आज भी इच्छुक निर्वेतन कार्यकर्त्ताओं द्वारा किया जाता है । इस प्रथा को यथासम्भव कम किया जाना चाहिए क्योंकि निर्वेचन कार्यकर्त्ता संघ के कार्यों में कोई रुचि नहीं लेते और न ही वे संघ का कार्य भली प्रकार कर पाते हैं ।

अत: यह आवश्यक है, कि संघों के कार्य हेतु सवेतन कार्यकर्त्ताओं की नियुक्ति की जानी चाहिए । पदासीन कर्मचारी निष्ठावान तथा संघ का उत्तरदायित्व भली-भांति वहन करने वाले होने चाहिए ।

उनमें श्रम संघ की कार्यवाहियाँ करने वाले श्रमिकों की माँगों का यथासम्भव मूल्यांकन करने तथा नियोक्ताओं से विचार-विमर्श करने में समर्थ होना चाहिए ।

डॉ. गिरि का विचार है कि ”जब तक श्रम सघ अपने कार्यकर्त्ताओं को पारिश्रमिक देना प्रारम्भ न कर दें और उचित पारिश्रमिक न दें और पूर्णकालीन कार्यकर्त्ताओं को नियुक्त न करें तब तक इस श्रम आन्दोलन की प्रगति होना कठिन प्रतीत होता है ।”

सवेतन कर्मचारियों के पूर्णकालीन कार्य से श्रम संघों का तकनीकी विकास भी होगा और संगठन अपने हितों के प्रति जागरूक हो सकेगा ।

(2) आन्तरिक नेतृत्व (Leadership from Within):

श्रम आन्दोलन को आरम्भ से ही नेतृत्च बाहरी व्यक्तियों-राजनीतिज्ञों वकीलों राष्ट्रीय नेताओं तथा शिक्षित वर्ग से प्राप्त हुआ था । इसका परिणाम यह हुआ कि कई बार श्रमिक वर्ग के हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है । अत: श्रम संघ का नेतृत्व श्रमिकों द्वारा ही किया जाना चाहिए ।

ऐसा करने पर ही श्रम आन्दोलन को वांछित गति प्राप्त हो सकेगी । इस दिशा में श्रमिकों को पहल करनी चाहिए तथा श्रमिक शिक्षा कार्यक्रम प्रारम्भ करने चाहिए । शिक्षित श्रमिक वर्ग अपने हितों के प्रति अधिक जागरूक हो सकता है, तथा संघ के नेतृत्व को भली भांति संभाल सकता है ।

आन्तरिक नेतृत्व के द्वारा ही श्रम संघ प्रजातन्त्रात्मक आधार पर चलाए जा सकेंगे तथा राजनीतिक प्रभाव से अपने आपको मुक्त करने में समर्थ होंगे तथा संघों की कार्यप्रणाली का संचालन अधिक कुशलतापूर्वक किया जा सकेगा ।

(3) सशक्त श्रम संघवाद (Strong Trade Unionism):

भारतीय श्रम संघ आज भी निर्माण की ओर है । इसके प्रमाण राजनीतिक मतभेद साधनों का अभाव विभिन्न वर्गों में भेद श्रम संघों का बाहुल्य तथा सौदेबाजी की क्षमता का अभाव आदि हैं । अत: सशक्त श्रम संघ के विकास की आवश्यकता है ।

श्रम संघों के लिए आवश्यक है कि वे अपना ध्यान विघटनकारी प्रवृत्तियो की ओर केन्द्रित न करें, अपितु रचनात्मक कार्यो में भी रुचि लें, जिससे श्रमिक व संगठन दोनों ही लाभान्वित होंगे ।

श्रम आन्दोलन को सशक्त बनाने के लिए आवश्यक है कि श्रम संघ अनेक संगठनों से सम्बद्ध न होकर एक अथवा कुछ संगठनों से ही सम्बद्ध, हों जिससे एकसमान कार्यक्रम बनाया जा सके एवं उसे भली भांति क्रियान्वित किया जा सके । दूसरे शब्दों में, श्रम संघ का उद्देश्य एक उद्योग में एक संघ तथा श्रम संघों को मान्यता प्राप्त करना होना चाहिए ।

(4) एक उद्योग में एक संघ (One Union in One Industry):

एक ही संस्थान/इकाई में एक से अधिक संघ होना अथवा एक उद्योग में एक से अधिक संगठन होने से अन्तर्संघीय विवाद बढ़ते हैं । इससे श्रम संघ आन्दोलन कमजोर होता है । श्रमिकों की सामूहिक सौदेबाजी की क्षमता क्षीण होती है, तथा वे अपनी उचित माँगों को पूरा करवाने में भी अपने आपको असमर्थ पाते हैं ।

अत: श्रम आन्दोलन को सशक्त बनाने के लिए यह आवश्यक है, कि उद्योग में एक ही संघ होना चाहिए । ऐसा होने पर अन्तर्संघीय विवाद ही समाप्त नहीं हो जाएगा अपितु संघों को स्वार्थी एवं पिछली राजनीति से भी मुक्ति मिल जाएगी ।

(5) श्रम संघों को मान्यता (Recognition of Trade Union):

जब तक नियोक्ता श्रम संघों को मान्यता प्रदान नहीं करते तब पक सशक्त श्रम संघों का विकास नहीं किया जा सकता है । शाही श्रम आयोग के अनुसार ”श्रम संघों की मान्यता का अर्थ बहुत कुछ है तथा कुछ भी नहीं है ?” आयोग के अनुसार सक्रिय श्रम संघ चाहे असंख्यक हो और मान्यता प्राप्त नहीं हो तो भी अपनी माँगे पूरी करवाने में समर्थ होगा । अत: श्रम संघों को मान्यता प्रदान की जानी चाहिए ।

(6) एक संयुक्त संघ की स्थापना (Establishment of a Joint Federation):

भारत में श्रम आन्दोलन को विकसित एवं सुदृढ़ बनाने के लिए यह आवश्यक है कि केन्द्रीय स्तर पर एक संयुत्त संघ बनाया जाए जो कि सभी श्रम संघों के लिए एक शीर्ष संस्था (Apex Body) के रूप में कार्य करे जिससे कि सम्पूर्ण श्रम आन्दोलन को नयी गति प्रदान की जा सके और उचित कार्यक्रमों का अनुसारण किया जा सके जिससे कि सरकार के समक्ष श्रमिकों की समस्याओं को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जा सके ।

(7) नवीन श्रम संघ अधिनियम का निर्माण (Formation of a New Labour Federation Act):

यद्यपि श्रम संघ अधिनियम 1926 में अब तक कई संशोधन किए जा चुके हैं । अब जब श्रमिकों व नियोक्ता का दृष्टिकोण बदल चुका है, औद्योगीकरण में सामाजिक व व्यक्तिगत मान्यताएँ बदल चुकी हैं, ऐसी स्थिति में यह उचित है कि एक नवीन श्रम संघ अधिनियम बनाया जाना चाहिए ।


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