Read this article in Hindi to learn about the four main steps of control. The steps are: 1. Establishment of Standards 2. Measurement of Actual Performance 3. Comparing Actual Performance with Standards 4. Correcting Deviations of Corrective Action.
नियन्त्रण प्रक्रिया (Control Process) को निम्न चित्र द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है:
नियन्त्रण-प्रक्रिया में मुख्यतया निम्नलिखित चरण होते हैं:
Step # 1. प्रमापों का निर्धारण (Establishment of Standards):
प्रमापी का निर्धारण करना नियन्त्रण प्रक्रिया का प्रथम चरण या तत्व माना गया है । प्रमाप ऐसे स्तर या पैमाने होते हैं जिनके वास्तविक कार्य की तुलना की जाती है । प्रमापों के निर्धारण से अभिप्राय उन परिणामों के निर्धारण से है जिनकी आशा हम किसी कार्य विशेष के निष्पादन से करते है ।
कूण्ट्ज व ओ’ डोनेल (Koontz and O’Donnell) के शब्दों में- “प्रमाप निर्धारित मापदण्ड होते हैं जिससे वास्तविक कार्य सम्पादन को मापा जाता है । वे उपक्रम या विभाग के नियोजन लस्मों की अभिव्यक्ति को इस प्रकार प्रदर्शित करते हैं जिससे कि निर्धारित कर्त्तव्यों की पूर्ति को इन लक्ष्यों से मापा जा सके ।”
इस प्रकार प्रमाप वास्तविक निष्पादन के मूल्यांकन को आधार प्रदान करते हैं । ये प्रमाप संस्था के विभिन्न विभागों, उप-विभागों व कर्मचारियों के अनुसार तय किये जा सकते हैं और उत्पादन मात्रा, किस्म, समय, गति, लागत अथवाव्ययके रूप में हो सकते हैं । प्रमाप संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप होने चाहिए ।
ये सरल, स्पष्टव निश्चित जांच योग्य अथवा व्यावसायिक होने चाहिए बहुत ऊँचे निर्धारित किये गये प्रमाप केवल आदर्श-मात्र बनकर रह जाते हैं तथा कर्मचारियों की पहल-शक्ति को नष्ट करते हैं । अतएव प्रमापों का निर्धारण करते समय अत्यन्त सावधानी बरतनी चाहिए ।
प्रमाप निर्धारित करते समय निम्न बातों को ध्यान में रखा जाना चाहिए:
Step # 2. वास्तविक निष्पादन का मापना (Measurement of Actual Performance):
नियन्त्रण प्रक्रिया का असर कदम या तत्व वास्तविक निष्पादन को मापना है अर्थात् इस चरण के अन्तर्गत संस्था में कार्य की प्रगति का व्यवस्थित, नियमित तथा निरन्तर मापन करना है । कुछ क्रियाओं का मापन करना सुगम होता है, परन्तु कुछ अन्य क्रियाओं (जैसे- पर्यवेक्षण सम्बन्धी) क्रियाओं के निष्पादन का मापन करना कठिन होता है ऐसी क्रियाओं जिनका मापन कठिन होता है उनका मापन अप्रत्यक्ष रूप से किया जाना चाहिए ।
किसी संस्था के सेविवर्गीय प्रबन्धक (Personnel Manager) के कार्य के निष्पादन का प्रत्यक्ष मापन करना कठिन है परन्तु इसका अप्रत्यक्ष मापन हम यह जानकर कर सकते है कि संस्था में कितनी बारी हड़तालें हुई, कितने कार्य दिनों की हानि हुई (Men-Days Lost) । इसी प्रकार व्यक्तिगत गुणों जैसे ईमानदारी आदि का मापन मनोवैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर किया जा सकता है ।
वास्तविक प्रगति का मापन प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अवलोकन (Direct Personnel Observation), सांख्यिकीय आँकड़ों (Statistical Data), मौखिक व लिखित रिपोर्टों (Oral and Written Reports) व विचारात्मक सर्वेक्षण (Opinion Survery) आदि विधियों द्वारा किया जा सकता है वास्तविक प्रगति को मापने के लिए प्रगति के आँकड़ों को नियमित रूप से प्राप्त करना चाहिए और यह भी देखना चाहिए कि वे सही है ।
वास्तविक निष्पादन को मापते समय अग्र बातों को ध्यान में रखना चाहिए:
वास्तविक निष्पादन मापन के बारे में एक और मुख्य विचार यह है कि जो कार्य संख्यात्मक (Quantitative) प्रकृति के हैं उनका मापन तो आसानी से हो जाता है, परन्तु जो कार्य गुणात्मक (Qualitative) प्रकृति के हैं उनके मापन में कठिनाई आती है । अत: इनका मापन करने के लिए अप्रत्यक्ष मापदण्डों का सहारा लिया जाता है ।
Step # 3. वास्तविक निष्पादन की प्रमापों से तुलना करना (Comparing Actual Performance with Standards):
नियन्त्रण प्रक्रिया का तीसरा महत्वपूर्ण कदम वास्तविक निष्पादन की प्रमापों से तुलना करना है । इसमें वास्तविक प्रगति की तुलना निर्धारित कार्य-मानों (Standards) और पूर्वनियोजित योजना से की जाती है और दोनों में अन्तर का पता लगाया जाता है और यह देखा जाता है कि अन्तर महत्वपूर्ण है या नहीं तथा भविष्य में उद्देश्यों अथवा लक्ष्यों की प्राप्ति में उनका क्या प्रभाव पड़ेगा ये अन्तर अथवा विचलन (Deviations) साधारण तथा असाधारण या महत्वपूर्ण प्रकृति के हो सकते हैं प्रबन्धक को चाहिए कि वह साधारण अन्तरों की ओर ध्यान न दे ।
उसे केवल विशेष अथवा असाधारण या महत्वपूर्ण विचलनों की उचित सुधारात्मक कार्यवाही करनी चाहिए असाधारण अथवा महत्वपूर्ण विचलनों की स्थिति में प्रबन्धक को “अपवाद का सिद्धान्त” (Principle of Exception) का पालन करना चाहिए अर्थात् साधारण अन्तर की ओर प्रबन्धक को ध्यान देकर असाधारण अन्तर पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए ।
विलचनों के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:
Step # 4. विचलनों का सुधार अथवा सुधारात्मक कार्यवाही (Correcting Deviations of Corrective Action):
नियन्त्रण प्रक्रिया का यह चौथा तथा अन्तिम कदम है महत्वपूर्ण अन्तरों (Deviations) को जान लेने के बाद इन्हें दूर करने के लिए आवश्यक सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है । इन अन्तरों को दूर करना अत्यन्त आवश्यक है अन्यथा उद्देश्यों व लक्ष्यों की प्राप्ति न हो सकेगी अत: प्रबन्धक को सुधारात्मक कार्यवाही करके ये अन्तर दूर करने चाहिए ।
अन्य शब्दों में नियन्त्रण के इस चरण में त्रुटियों को सुधारने का प्रयास किया जाता है ताकि भविष्य में ये त्रुटियाँ दुबारा न होने पायें साधारण अन्तर को दूर करने के लिए ही सुधारात्मक कार्यवाही की जा सकती है ।
जैसे यदि मशीन में कोई खराबी आ जाये और इससे उत्पादन लक्ष्य प्राप्त न हो रहा हो तो ऐसे अन्तर को मशीन ठीक करा कर अथवा श्रमिकों से अतिरिक्त काम लेकर अथवा अधिक श्रमिक नियुक्त करके दूर किया जा सकता है परन्तु महत्वपूर्ण या असाधारण अन्तरों, जैसे सरकार की नीति में परिवर्तन कच्चे माल का अभाव आदि की दशा में सारी योजना को ही फिर से तैयार करना पड़ेगा ।
यहाँ यह बता देना उचित होगा कि सुधारात्मक कार्यवाही लागू कर देने से ही नियन्त्रण प्रक्रिया समाप्त नहीं हो जाती बल्कि इसमें यह भी देखा जाता है कि की गई सुधारात्मक कार्यवाही कितनी लाभदायक व सफल रही इसलिए नियन्त्रण प्रक्रिया एक निरन्तर प्रक्रिया मानी गई है ।
विचलनों का सुधार अथवा सुधारात्मक कार्यवाही करते समय निम्न का ध्यान रखें:
सुधारात्मक कार्यवाही ऐसी होनी चाहिए जिसे वास्तविक कार्य में लगे व्यक्ति पसन्द करें । नहह सुधारात्मक कार्यवाही उसी प्रबन्धक के द्वारा की जानी चाहिए जिसका कार्य से सीधा सम्बन्ध हो ।
सुधारात्मक कार्यवाही करने के सम्बन्ध में एक विशेष बात यह है कि मात्र सुधारात्मक कार्यवाही कर देने से नियन्त्रण का कार्य पूरा नहीं हो जाता वरन् यह भी देखना चाहिए कि इस कार्यवाही का वास्तविक परिणामों पर क्या प्रभाव पड़ेगा यदि नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो पुन: सुधारात्मक कार्यवाही करनी चाहिए ।