Read this article in Hindi to learn about the top eight elements of planning in an organisation. The elements are: 1. Forecasts 2. Objectives 3. Policies 4. Procedures 5. Rules 6. Budget 7. Programmes 8. Strategy.
Element # 1. पूर्वानुमान (Forecasts):
पूर्वानुमान नियोजन के आधार होते हैं ये भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं तथा जोखिमों का अनुमान लगाते हैं । इस प्रकार पूर्वानुमान भविष्य में देखने की कला है । ये भविष्य का मूल्यांकन करते है और उसके लिए प्रावधान करते हैं । ये तथ्यों पर आधारित होते हैं तथा इन्हीं के आधार पर योजना बनाई जाती हे । हेनरी केयोल ने नियोजन के लिए पूर्वानुमान लगाने के महत्व पर बल दिया है ।
Element # 2. उद्देश्य (Objectives):
जिस परिणाम की प्राप्ति के लिए कोई संस्था प्रयत्नशील रहती है, वह उसका उद्देश्य कहलाता है । उद्देश्यों के बिना संस्था की वही स्थिति होती है जो कि पतवार के बिना एक नाव की होती है । अत: उद्देश्यों का निर्धारण करना नियोजन का पहला कदम है । पूर्वानुमानों तथा संस्था के संसाधनों के आधार पर उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं ।
फिर इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए योजनाएँ बनाई जाती हैं । संस्था की नीतियाँ, इसकी कार्यविधि तथा कार्य-प्रणाली तथा इसके नियम, सभी कुछ इन उद्देश्यों पर निर्भर करते हैं । उद्देश्यों को स्पष्ट परिभाषित किया जाना चाहिए क्योंकि उद्देश्यों की स्पष्ट व्याख्या एक कुशल व सफल प्रबन्ध की कुंजी है । इसलिए कुछ विद्वान् “प्रभावपूर्ण प्रबन्ध का अर्थ ही “उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध” (Management by Objectives) मानते हैं ।
यह कहना कि प्रत्येक व्यावसायिक संस्था का एक मात्र उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है, आधुनिक युग में इसे असामाजिक नथा अनैतिक माना जाता है । यद्यपि व्यवसाय लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जाता है परन्तु यह उसका एक मात्र उद्देश्य नहीं होता । नए उत्पादों का निर्माण करना, उन्हें उचित मूल्यों पर ग्राहकों को उपलब्ध कराना, प्रतिस्पर्धा का सामना करना, ग्राहकों की आवश्यकताओं तथा रुचियों का ध्यान रखना, व्यवसाय का विस्तार करना, कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखना, सामाजिक सेवा करना आदि अनेक व्यवसाय के अन्य उद्देश्य होते हैं । एल. अर्विक के अनुसार- “लाभ कमाना व्यापार का उतना ही लक्ष्य हो सकता है जितना की बाजी लगाना घुड़-दौड़ का, रन संख्या बढ़ाना क्रिकेट का अथवा भोजन करना, जीवन का ।”
सम्पूर्ण व्यवसाय के लक्ष्य को निर्धारित करने के साथ-साथ विभिन्न विभागों के लक्ष्य भी निर्धारित किए जाने चाहिए । भिन्न-भिन्न विभागों के उद्देश्य सम्पूर्ण व्यवसाय के उद्देश्यों के अनुकूल व पूरक होने चाहिए । उद्देश्य दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन हो सकते हैं परन्तु इनमें आपस में समन्वय होना चाहिए ।
Element # 3. नीतियाँ (Policies):
संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए नीतियाँ बनाई जाती है । अत: उद्देश्य निर्धारण के पश्चात् नीतियों का निर्धारण करना भी आवश्यक है । इस प्रकार योजना बनाने में नीति-निर्माण करना भी शामिल होता है । आधारभूत सिद्धान्तों के अनुसार संस्था के उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है, उसे नीति कहते हैं, नीतियाँ बताती है कि अमुक कार्य किस प्रकार करना है ।
“नीतियाँ सामान्यत: लक्ष्य प्राप्ति में प्रबन्धकों का मार्गदर्शन करने वाले सैद्धान्तिक कथन होते हैं ।” ये संस्था के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के कार्यों या निर्णयों का मार्गदर्शन करती हैं । नीतियाँ विस्तृत ढाँचा स्थापित करती जिसके भीतर विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले प्रबन्धकों को निर्णय लेना होता है ।
कूण्ट्ज व ओ’ डोनेल के अनुसार, “नीतियाँ उस क्षेत्र को सीमित कर देती हैं जिन पर निर्णय लेना है । साथ खई इस बात को भी सुनिश्चित करती हैं कि निर्णय सुसंगत (Consistance) होगा तथा उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होगा ।
नीतियों के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:
(a) माल का विक्रय केवल नकद किया जाएगा;
(b) केवल अंकित मूल्यों पर वस्तुएँ बेची जाएँगी;
(c) उच्च पदों के लिए संस्था के ही कर्मचारियों की पदोन्नति की जाएगी बाहर से व्यक्तियों को नहीं लिया जाएगा;
(d) कच्चा माल स्थानीय बाजार से ही खरीदना है; एवं
(e) नकद बिक्री पर अमुक छूट (Discount) दी जाएगी ।
Element # 4. कार्यविधियाँ (Procedures):
कार्य-विधि वह तरीका है जिसके अनुसार कार्यवाही की जाती है । जॉर्ज टैरी के अनुसार- “कार्य-विधि सम्बन्धित कार्य का क्रम है जो समय कम बनाता है तथा किए जाने वाले कार्यों को पूरा करने के साधन का निश्चिय करता है । कार्य-विधि निश्चित हो जाने से प्रयत्नों का एक निश्चित क्रम स्पष्ट हो जाता है ।
कार्य-विधि पहले से ही निश्चित कर लेने से कार्यवाही समानता आती है, निर्णयों में सरलता होती है तथा विभागीय समन्वय में सुविधा होती है । इस प्रकार कार्य-विधियाँ भी नियोजन का आवश्यक अंग है । नीतियों तथा कार्य-विधियों में अन्तर होता है ।
नीतियाँ निर्णय की मार्गदर्शक होती है तो कार्य-विधियाँ कार्य करने का सर्वोत्तम ढंग बताती हैं । “ग्राहक सदैव सही है”, यह नीति है किन्तु ग्राहक के शिकायत करने पर उसके निवारण-हेतु क्या तरीका अपनाया जाएगा यह कार्य-विधि निश्चित करेगी ।
अतएव, कार्यविधियों भी योजनाएँ होती हैं जो क्रियाओं को सम्पन्न करने का एक निश्चित तरीका निर्धारित करती हैं । संस्था के सफल एवं कुशल संचालन के लिए यह आवश्यक होता है कि इसके प्रत्येक स्तर पर कार्य करने का तरीका निर्धारित कर दिया जाए ।
Element # 5. नियम (Rules):
नियोजन का पाँचवाँ तत्व नियम है । नियम एक प्रकार से योजनाओं के सबसे सरल रूप होते हैं नियम एक पूर्व-निर्णय है जो यह बतलाता है कि अमुक परिस्थितियों में क्या करना है और नहीं करना है । कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के अनुसार- “नियम वे योजनाएं हैं जो कि आवश्यक क्रियाओं का मार्ग बताते हैं और इनका चयन अन्य योजनाओं की तरह विभिन्न विकल्पों में से होता है ।”
इस प्रकार नियम भावी कार्यवाही का मार्गदर्शन करते हैं । नियमों का मूल उद्देश्य है किसी भी अधिकारी को अपने पूर्व-निर्धारित मार्ग से विचलित होने से रोकना । नियमों का दृढ़ता से पालन किया जाना आवश्यक है । नियमों की अवहेलना पर दण्ड की व्यवस्था होती है ।
नियम प्रबन्ध प्रक्रिया को सरल बनाते हैं, कार्य में एकरूपता (Uniformity) लाते हैं तथा नियन्त्रण को प्रभावशाली बनाते हैं । नियम तथा नीति में अन्तर होता है । नीतियों का कार्य निर्णय लेने के लिए विचारों का मार्गदर्शन करना होता है तथा अधिकारियों को स्वयं निर्णय लेने का अधिकार देती हैं, परन्तु नियम निश्चित होते है ।
नियम विचारों की बजाय कार्यवाही (Action) का मार्गदर्शन करते हैं । नियम निश्चित होने के कारण, स्वयं निर्णय लेने का अधिकार अधिकारियों को प्रदान नहीं करते नियम तथा कार्य-विधि में भी अन्तर होता है नियम यह बताते हैं कि अमुक परिस्थितियों में क्या करना है और क्या नहीं करना है परन्तु ये क्रियाओं का क्रम निर्धारित नहीं करते, जबकि कार्यविधियाँ कार्यों का क्रम निर्धारित करती हैं ।
Element # 6. बजट (Budget):
बजट एक योजना है जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति के लक्ष्य (Targets) रखे जाते हैं और इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए समय धन सामग्री और अन्य साधनों के व्यय के अनुमान लगाए जाते हैं । बजट में सभी आवश्यक तथ्यों तथा आँकड़ों का विवरण दिया जाता है ।
कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के शब्दों में- “बजट एक योजना की भाँति अनुमानित परिणामों का विवरण है, जो आँकड़ों में व्यक्त किया जाता है । बजट अनेक प्रकार के हो सकते हैं; जैसे- रोकड़ बजट, उत्पादन बजट, क्रय बजट, विक्रय बजट आदि बजट नियन्त्रण का एक भाग है । इसमें प्रबन्धक वास्तविक प्रगति की तुलना बजटीय प्रगति से करता है जिससे वह बजटीय लक्ष्यों की प्राप्ति की सफलता तथा असफलता का अनुमान लगाता है ।
इस प्रकार बजट का निर्माण, नियोजन का मुख्य तत्व माना गया है ।
Element # 7. कार्यक्रम (Programmes):
कार्यक्रम एक विशिष्ट योजना है जो किसी विशेष परिस्थिति के लिए बनाई जाती है । कार्यक्रम किसी कार्य की विस्तृत रूप होती है । इसके अन्तर्गत लक्ष्य, नीतियाँ, कार्य-विधियाँ, नियम, कार्य विभाजन काम के लिए जो कदम उठने हैं, उन साधनों का ब्यौरा जिनको प्रयोग में लाना है, काम का तरीका आदि अनेक बातें आती हैं । बजट तथा कार्यक्रम में घनिष्ठ सम्बन्ध है क्योंकि एक ओर तो बजट कार्यक्रम के अनुसार बनाए जाते हैं तथा दूसरी ओर कार्यक्रमों को बजट की सहायता से लागू किया जाता है कार्यक्रम अल्पकालीन, दीर्घकालीन विस्तृत सीमित, आधारभूत साधारण अथवा विशिष्ट हो सकते हैं ।
Element # 8. मोर्चाबन्दी (Strategy):
वर्तमान युग में प्रत्येक व्यवसाय प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में काम कर रहा है । अत: व्यवसाय में प्रतियोगियों पर विजय पाने के लिए सेना की तरह मोर्चाबन्दी करनी पड़ती है । मोर्चाबन्दी के अन्तर्गत प्रतियोगियों की योजनाओं को ध्यान में रखकर ऐसी योजनाएँ बनाई जाती हैं जिससे प्रतिस्पर्धा पर विजय प्राप्त की जा सके तथा संगठन के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके इस प्रकार व्यूह-रचक वह निर्णय है, जिसे प्रतिद्वन्द्वी की सम्भावित या वास्तविक कार्यवाहियों नीतियों व व्यूह-रचनाओं को ध्यान में रखकर अपनाया जाता है ।
उदाहरण के लिए यदि एक संस्था अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए कीमत में कमी कर देती है तो दूसरी प्रतियोगी संस्था को क्या करना चाहिए कि प्रथम संस्था की यह चाल बेकार हो जाए । क्या दूसरी संस्था को भी कीमत में कमी करनी चाहिए या विज्ञापन पर अधिक ध्यान देना चाहिए अथवा वस्तु की किस्म में सुधार करना चाहिए ? ये निर्णय ही व्यूह-रचना कहलाते हैं ।
किसी भी व्यावसायिक संस्था की व्यूह-रचना का निर्माण प्रतिस्पर्धा की स्थिति, बाजार की आवश्यकता उपभोक्ताओं की मन्तुष्टि के स्तर तथा सम्भावित खतरों पर निर्भर करता है । इसलिए प्रबन्धक को चाहिए कि ऐसी मोर्चाबन्दी करे, जिससे उसे प्रत्येक स्तर पर लाभ हो ।
मोर्चाबन्दी दो प्रकार की हो सकती है:
(a) आन्तरिक तथा
(b) बाह्य ।
आन्तरिक व्यूह-रचना का संस्था के आन्तरिक भागों में सम्बन्ध होता है, जबकि बाह्य व्यूह-रचना दूसरे व्यवसायियों की प्रतिस्पर्धा की स्थिति, मूल्य-नीति, विपणन व्यवस्था आदि को ध्यान में रखकर बनाई जाती है ।