Read this article in Hindi to learn about:- 1. Meaning and Definition of Motivation 2. Conceptual Model of Motivational Behaviour 3. Nature and Characteristics 4. Elements 5. Mechanism 6. Importance 7. Traditional Theories 8. Problems.
Contents:
- अभिप्रेरणा का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Motivation)
- अभिप्रेरणात्मक व्यवहार का सैद्धान्तिक पहलू (Conceptual Model of Motivational Behaviour)
- अभिप्रेरणा की प्रकृति एवं विशेषताएँ (Nature and Characteristics of Motivation)
- अभिप्रेरणा के तत्व (Elements of Motivations)
- अभिप्रेरणा की तंत्र व्यवस्था (Mechanism of Motivation)
- अभिप्रेरण का महत्व (Importance of Motivation)
- अभिप्रेरणा की परम्परागत विचारधाराएँ (Traditional Theories of Motivation)
- अभिप्रेरणा की समस्याएँ (Problems of Motivation)
1. अभिप्रेरणा का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Motivation):
अभिप्रेरणा का अंग्रेजी रूपान्तर ‘मोटिवेशन’ (Motivation) होता है । अंग्रेजी के इस शब्द की उत्पत्ति ‘मोटिव’ (Motive) से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है व्यक्ति में किसी ऐसी इच्छा अथवा शक्ति का विद्यमान होना, जो उसे कार्य करने की प्रेरणा देती है ।
यह एक वास्तविक सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति में कार्य करने की क्षमता होती है परन्तु कार्य करने की क्षमता तथा कार्य करने की इच्छा दो पृथक्/पृथक् तत्व हैं । कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी प्रतिभा-सम्पन्न, योग्य, अनुभवी और कार्य करने की क्षमता क्यों न रखता हो लेकिन यदि उसमें कार्य करने की इच्छा नहीं हैं तो ये सब गुण महत्वहीन हो जाते हैं ।
अत: आवश्यकता इस बात की है कि उस व्यक्ति में उसकी कार्य क्षमता के अनुसार कार्य करने की इच्छा जागृत की जाए । किसी व्यक्ति की कार्य करने की इच्छा को जागृत करने के लिए समय-समय पर प्रेरणा देनी होती है जिसे ‘अभिप्रेरणा’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है ।
इस प्रकार अभिप्रेरण कार्य से सम्बन्धित है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति में जागृत (उत्पन्न) किया जा सकता है । वास्तव में, अभिप्रेरण वह मनौवैज्ञानिक उत्तेजना है जो व्यक्तियों को काम पर बनाए रखने के साथ-साथ उन्हें उत्साहित करती है और अधिकतम सन्तुष्टि प्रदान करती है ।
अभिप्रेरण की महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं:
i. कृण्ट्ज एवं ओ डोनेल के अनुसार- ”अभिप्रेरण इच्छाओं, अभिलाषाओं, आवश्यकताओं और अन्य ऐसी शक्तियों के सम्पूर्ण वर्ग के लिए प्रयुक्त एक सामान्य शब्दावली है । यह कहना कि प्रबन्धकगण अपने अधीनस्थ का अभिप्रेरण करते हैं, बिल्कुल यही कहने के बराबर होगा कि वे उन सभी कार्यों को करते हैं जिनको वे समझते हैं कि उनसे इन इच्छाओं एवं आकांक्षाओं की सन्तुष्टि हो सकेगी तथा अधीनस्थों को अपेक्षित तरीके से कार्य करने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा ।”
ii. माइकल जे. जूसियस (Michel J. Jucious) के अनुसार- ”अभिप्रेरण स्वयं को या किसी अन्य व्यक्ति को इच्छित कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करने की क्रिया है अथवा वांछित प्रतिक्रिया प्राप्त करने के लिए सही बटन दबाना है ।”
iii. स्टेनस वेन्स (Stanley Vance) के अनुसार- ”अभिप्रेरण के अन्तर्गत कोई भी ऐसी भावना या इच्छा सम्मिलित होती है जो किसी व्यक्ति की इच्छा को इस प्रकार बना देती है कि वह कार्य करने को प्रेरित हो जाए ।”
iv. मैकफरलैण्ड (Mcfarland) के अनुसार- ”अभिप्रेरण एक विधि है जिसमें संवेगों, उद्वेगों, इच्छाओं, आकांक्षाओं, प्रयासों या आवश्यकताओं द्वारा व्यवहार का निर्देशन, नियन्त्रण एवं स्पष्टीकरण किया जाता है ।”
2. अभिप्रेरणात्मक व्यवहार का सैद्धान्तिक पहलू (Conceptual Model of Motivational Behaviour):
बहुधा मानवीय व्यवहार को व्यक्ति के अपने वातावरण के साथ सम्पर्क के एक कार्य के रूप में देखा जाता है । इसको अपने परिवेश के साथ जूझने की व्यक्ति की पहल तथा संवेदनशीलता के रूप में देखा जा सकता है ।
मानवीय व्यवहार को प्रभावित करने वाले समस्त घटकों को निम्न समीकरण के रूप में सम्बन्धित किया जा सकता है:
S-O-B:
S अर्थात् Situation वह परिवेश जिसमें भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा संगठनात्मक घटक शामिल हैं ।
O अर्थात् Organism तन्त्र जो मानवीय, शारीरिक तथा भौतिक आवरण, मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया तथा व्यक्तित्व घटको से बना है ।
B अर्थात् व्यवहार (Behaviour) प्रत्येक ऐसी बात को मानवीय तन्त्र करता है तथा उसके व्यवहार का प्रत्येक पहलू शामिल होता है न कि ऐसे व्यवहार के परिणाम ।
परिवेश तथा तन्त्र आपस में मिलकर व्यवहार को स्पष्ट करते हैं (S and O Interact and Elicit B) इस प्रकार यह मॉडल व्यवहार की आकस्मिक प्रक्रिया को प्रस्तुत करता है तथा चरों की उन श्रेणियों को प्रकट करता है, जिनको मानवीय व्यवहार का विश्लेषण करते समय सोचा जाना चाहिये ।
व्यक्ति मुख्य रूप से अपने कार्य परिवेश के प्रति संवेदनशील होता है और सामान्य सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियाँ, उसको प्रभावित करती हैं ।
संगठनात्मक संदर्भ में किसी व्यक्ति के अभिप्रेरणात्मक व्यवहार हेतु सम्बद्ध कार्य वातावरण के निम्नलिखित तत्व हैं:
(i) कार्य दल का आकार तथा दल के भीतर अन्त: वैयक्तिक सम्बन्ध एवं सम्पर्क;
(ii) अनौपचारिक दल प्रभाव तथा व्यक्ति की कार्य इकाई में अधीक्षकीय शैली एवं कार्य-प्रणाली;
(iii) कार्य की प्रकृति;
(iv) सामान्य संगठनात्मक वातावरण में औपचारिक भूमिकाएँ तथा सम्बन्ध, नियंत्रण एवं सम्प्रेषण ढाँचे, पुरस्कार-दण्ड ढाँचा, संगठनात्मक लक्ष्य, नीतियाँ तथा तकनीकियाँ, प्रबन्धकीय मूल्य, अन्त: राजनैतिक शक्तियाँ आदि पहलुओं को शामिल किया जा सकता है ।
सामान्य वातावरण के तत्वों में, उस समाज या समुदाय की संस्कृति एक महत्वपूर्ण घटक होती है जिससे व्यक्ति विशेष सम्बन्ध रखता है । जहाँ तक व्यक्तिगत तथा संगठनात्मक चरों का प्रश्न है सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तिगत पहलू जो एक व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन लाते हैं वे हैं उसका शारीरिक विकास, व्यक्तिगत गुण, योग्यताएँ तथा अभिप्रेरणाएँ ।
व्यक्तियों के मध्य इन आधारों पर व्यापक असमानताएँ तथा समानताएँ व्याप्त रहती हैं । अनेक ऐसे व्यक्तिगत गुण हैं जो उसके व्यक्तित्व को उभारते हैं जैसे विश्वास, खुलापन, दयालुता, नम्रता, सामाजिक प्रबुद्धता, आत्म-विश्वास, उत्तरदायित्व का मान, भावुकता नियन्त्रण, जोखिम सहन करने की सामर्थ्य, दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति आदि ।
इनका सृजन व्यक्ति के शारीरिक लक्षणों, पारिवारिक परिस्थितियों तथा सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों द्वारा जाँचा-परखा जाता है । ये सभी तत्व कार्य पर व्यक्ति के व्यवहार को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं ।
जहाँ तक व्यक्ति की योग्यताओं का प्रश्न है इसमें उसकी तर्क शक्ति, व्याख्या शक्ति, आत्म अभिव्यक्ति, धैर्य, मानसिक दक्षता, इन्द्रिय समन्वय आदि आते हैं । इनको शिक्षा, प्रशिक्षण तथा अनुभव द्वारा निखारा तथा विकसित किया जा सकता है । अपने कार्यों में व्यक्तियों की निष्पत्ति को मनुष्य की योग्यताएँ व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं ।
मानवीय व्यवहार को समझने का एक मुख्य तत्व है उसकी आवश्यकताएँ जिनकी वह अपने अन्दर कमी अनुभव करता है तथा जिनके दबाव, तनाव तथा असन्तुलन में वह जीवित रहता है । ये आवश्यकताएँ भौतिक भी हो सकती हैं तथा मनोवैज्ञानिक भी ।
ये आवश्यकताएँ ही उसे कुछ प्रयास करने के लिए विवश करती हैं । इन आवश्यकताओं का उसकी महत्वकांक्षा, अपेक्षा अथवा जरूरतों के रूप में जाना जा सकता है, अन्तर केवल उनकी प्रभावोत्पादकता की मात्रा का ही है । इन आवश्यकताओं को पूरा करने के प्रत्येक व्यक्ति के तरीके तथा साधन अलग-अलग हो सकते हैं ।
मूलत: आवश्यकता सन्तुष्टि ही सम्पूर्ण अभिप्रेरणात्मक प्रक्रिया का आधार है । अभिप्रेरक (Motives) व्यक्ति विशेष के अन्त: मनोवैज्ञानिक पटल की बात है जो लक्ष्य की प्राप्ति या पलायन की प्रत्याशा में व्यक्ति को कार्य के लिए अभिप्रेरित, निर्देशित, क्रियान्वित अथवा हतोत्साहित करती हैं । व्यक्ति विशेष में ये बातें उसकी आवश्यकताओं, अपेक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं, भावनाओं आदि से उत्पन्न होती हैं ।
3. अभिप्रेरणा की प्रकृति एवं विशेषताएँ (Nature and Characteristics of Motivation):
अभिप्रेरण की विभिन्न परिभाषाओं का अध्ययन करने से इस सम्बन्ध में निम्न बातें स्पष्ट होती हैं:
i. अभिप्रेरण मनोवैज्ञानिक है:
अभिप्रेरण का सम्बन्ध मनोविज्ञान से है जो प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर से आतीहै । मैकफरलैण्ड (Mcfarland) के अनुसार- ”अभिप्रेरण की धारणा मूलत: मनोवैज्ञानिक है, जिसके द्वारा मनुष्य के मस्तिष्क में कार्य के प्रति नई धारणा उत्पन्न की जाती है ।”
कार्य की क्षमता (Capacity of Work) और कार्य करने की इच्छा (Will to Work) दो अलग-अलग पहलू हैं । एक व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, तकनीकी आदि सभी दृष्टियों से कार्य करने के योग्य हो सकता है ।
लेकिन वह कार्य करना नहीं चाहता अर्थात् उसकी कार्य के प्रति इच्छा नहीं है तो ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि उसकी कार्य के प्रति इच्छा जागृत की जाए और इसके लिए उसे प्रेरित किया जाए ।
जनरल फूड कॉरपोरेशन (General Food Corp.) के भूतपूर्व अध्यक्ष क्लेरेन्स फ्रान्सिस (Clarance Francis) ने ठीक ही कहा है- ”आप व्यक्ति का समय खरीद सकते हैं, आप एक विशिष्ट स्थान पर किसी व्यक्ति की शारीरिक उपस्थिति भी खरीद सकते हैं लेकिन आप किसी व्यक्ति का उत्साह, पहलपन या वफादारी नहीं खरीद सकते ।”
ii. सम्पूर्ण व्यक्ति अभिप्रेरित होता है, उसका एक भाग नहीं:
चूंकि व्यक्ति एक सम्पूर्ण और अविभाज्य इकाई, इसलिए उसकी सब आवश्यकताएँ परस्पर सम्बन्धित होती हैं । उदाहरणार्थ, यह राम है जिसे भोजन की आवश्यकता है, केवल राम का ‘पेट’ नहीं । पुन: चूंकि राम एक इच्छा करने वाला प्राणी है, इसलिए उसकी एक इच्छा पूरी होते ही, दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है । मनुष्य की असीमित आवश्यताएँ ही उसके व्यवहार पर प्रभाव डालती हैं ।
iii. अभिप्रेरण की अनेक विधियाँ हैं:
कर्मचारियों को अनेक प्रकार से अभिप्रेरित किया जा सकता है । अभिप्रेरण की विधियाँ आर्थिक एवं अनार्थिक हो सकती हैं, आर्थिक रूप से मजदूरी व वेतन में वृद्धि, बोनस, पुरस्कार एवं लाभांश द्वारा एवं अनार्थिक रूप से, प्रबन्ध में सहभागिता, कुशल मानवीय व्यवहार कर्मचारियों के अभिप्रेरण में निहित है ।
iv. अभिप्रेरण एक अनन्त निरन्तर एवं गतिशील प्रक्रिया है:
अभिप्रेरण एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है कर्मचारियों की एक आवश्यकता की सन्तुष्टि होने पर दूसरी आवश्यकता स्वयं जागृत हो जाती है । फलस्वरूप प्रबन्धकों को अपने कर्मचारियों का सतत सहयोग प्राप्त करने के लिए उनकी आवश्यकताओं का निरन्तर अध्ययन करना चाहिए और इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए संगठन में नये-नये अवसर प्रदान करने चाहिए ।
यह एक गतिशील प्रक्रिया भी है क्योंकि आवश्यकताओं में परिवर्तन होता रहता है और अभिप्रेरण भी उसी अनुसार बदलता रहता है । अत: स्थान, व्यवहार, समय एवं परिस्थितियों आदि का अभिप्रेरण पर अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव होता है ।
v. अभिप्रेरण मानवीय सन्तुष्टि का कारण तथा परिणाम दोनों है:
मनुष्य जो भी करता है, किसी प्रेरणा के अधीन करता है । यह प्रेरणा उसमें कोई भी आवश्यकता, इच्छा तरंग या उत्प्रेरण हो सकती है, और यह अनेक कारणों जैसे आवश्यकता परिस्थिति वातावरण समझ या अनुभव पर आधारित हो सकती है ।
अत: अभिप्रेरण मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि का एक प्रमुख साधन है । कर्मचारियों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रबन्धकों द्वारा विभिन्न अभिप्रेरण विधियों का प्रयोग किया जाता है । अभिप्रेरण से मानवीय कार्य सन्तुष्टि को बल मिलता है ।
मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रेरणा दी जाती है, अत: अभिप्रेरण सन्तुष्टि का कारण है । परन्तु आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से मानव में पुन: अधिक कार्य करने की अभिरुचि जागृत होती है । अत: इस स्थिति में अभिप्रेरण सन्तुष्टि का परिणाम है ।
vi. अभिप्रेरण मानवीय साधनों से सम्बन्धित है:
अभिप्रेरण मूल रूप से मानवीय साधनों एवं आवश्यकताओं से सम्बन्धित है व्यक्ति ही अभिप्रेरण की परिधि में आते हैं, अत: यह मानवीय भावनाओं और उसकी आकांक्षाओं से जुड़ा है । उत्पादन के निर्जीव साधनों मशीन, पूँजी एवं भूमि आदि को कभी भी अभिप्रेरित नहीं किया जा सकता ।
4. अभिप्रेरणा के तत्व (Elements of Motivations):
i. व्यक्ति (Individual):
यह बहुधा देखा जाता है कि प्रत्येक कर्मचारी या प्राणी अपनी योग्यता, विवेक, रुझान, आवश्यकताओं, पसन्दों, नापसन्दों, स्वभाव, प्रकृति, प्राथमिकताओं, विचारधाराओं तथा सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि में एक-दूसरे से अलग होता है ।
अत: उसको एक अलग ही तरीके से अभिप्रेरित करना होता है । एक कर्मचारी को अभिप्रेरित करते समय एक अधिकारी रूप में आपको यह देखना होगा कि आपके कर्मचारी की क्या-क्या जरूरतें हैं जिनको वह पूरा करना चाहता है । जब आप उनकी इच्छाओं या आवश्यकताओं को पूरा कर रहे होते हैं तो उनको अभिप्रेरित होता हुआ पाया जायेगा । एक कर्मचारी को उसकी असंतुष्ट आवश्यकताओं को संतुष्ट करके ही अभिप्रेरित किया जा सकता है ।
ii. कार्य (Job):
ये अलग-अलग अपेक्षाओं तथा विशिष्टताओं वाले विभिन्न प्रकार के कार्य होते हैं । एक कार्य विशेष को जरूरी नहीं कि उपक्रम का हर कर्मचारी पसन्द करें । कुछ लोग चुनौती भरे जॉब पसन्द करते हैं जबकि कुछ नैत्यिक कार्य । कुछ कार्यों को लोग उनकी नीरसता तथा नीरवता के कारण पसन्द नहीं करते ।
ऐसा कोई कार्य विशेष सम्भवत: नहीं होता जो प्रत्येक को आनन्द संतुष्टि एवं आत्मगौरव प्रदान कर सके । कार्यों के विभिन्न प्रकारों तथा सम्बद्ध अभिप्रेरणाओं पर निर्णय लेते समय प्रबन्धकों को इस पहलू को भी ध्यान में रखना चाहिये ।
iii. कार्य परिवेश (Work Situations):
अभिप्रेरणा का कार्य दशाओं, परिस्थितियों तथा वातावरण से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखता है । यदि एक कर्मचारी को आराम से यह सब मिल जाता है तो वह निश्चय ही अभिप्रेरित हो जायेगा ।
प्रबन्ध को स्वस्थ कार्य दशाओं की व्यवस्था करनी चाहिये जिसमें वित्तीय तथा प्रबन्धकीय अभिप्रेरकों के अच्छे तत्वों का समावेश हो । घटिया कार्य दशाएँ असंतुष्टि की ओर ले जाती हैं तथा काम की अभिप्रेरणा तथा मनोबल को गिराती हैं ।
5. अभिप्रेरणा की तंत्र व्यवस्था (Mechanism of Motivation):
अभिप्रेरणा नकारात्मक या सकारात्मक हो सकती है । दण्ड, कार्य छिनने का भय या ऐसे तरीके जहाँ लोग भय से काम करते हैं सुरक्षित तौर पर काम करने के लिए न्यूनतम अभिप्रेरणा उत्पन्न करेगा जबकि सकारात्मक अभिप्रेरणा सर्वोत्तम तरीके से काम करने के लिए लोगों को इच्छुक बनाती है तथा वे अपनी निष्पत्ति में सुधार के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।
अभिप्रेरक (Incentive) अभिप्रेरणा का एक स्वरूप है तथा अभिप्रेरणा की मात्रा को प्रत्यक्ष प्रभाव रूप से प्रभावित करती है । अभिप्रेरणा व्यक्ति की काम करने की क्षमता में परिवर्तन नहीं करता वह तो व्यक्ति के प्रयासों के स्तर का मात्र निर्धारण करता है, उसको उठाता या गिराता है, जैसा भी मामला हो ।
यहाँ P Stands for Performance of the Worker.
A Ability, Caliber and Potentials of the Worker
K Knowledge, Experience, Qualification and Specialisation Possessed by the Worker
M Degree of Motivation
I Incentives (Financial as well as Non-Financial)
Dl. De-Incentives जिसमें शामिल हैं वे सभी नीतियाँ, पहुँच व्यवहार तथा चीजें जो एक कर्मचारी अपने सेवायोजकों से आशा नहीं कर सकता है जैसे घटिया कार्य दशाएँ, कम वेतन, आदि ।
नि:संदेह एक कर्मचारी की निष्पत्ति श्रमिक की योग्यता तथा ज्ञान पर निर्भर करती है लेकिन ये बहुत कुछ उपयोग के नहीं होते यदि इनको अभिप्रेरणा की मात्रा से गुणा नहीं किया जाता ।
जितनी अभिप्रेरणा अधिक होती है उतनी ही निष्पत्ति अच्छी होगी तथा अभिप्रेरणा पुन: अभिप्रेरकों (घटाये गैर-अभिप्रेरकों को) पर निर्भर करती है । अभिप्रेरकों को बढ़ाते जायें तथा गैर-अभिप्रेरकों को कम करते जायें तो अभिप्रेरणा उत्पन्न होगी ही ।
6. अभिप्रेरण का महत्व (Importance of Motivation):
परम्परागत प्रबन्ध में कर्मचारियों की इच्छाओं, भावनाओं, अभिलाषाओं आदि की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था । कर्मचारी मात्र दास बनकर नियोक्ता के यहाँ कम वेतन पर अधिक समय तक कार्य करता था ।
कर्मचारी को उत्पादन के अन्य साधनों की तरह केवल एक साधन माना जाता था जिसके श्रम का अन्य साधनों की तरह क्रय-विक्रय किया जा सकता था । फलत: उस समय अभिप्रेरण का कोई महत्व नहीं था ।
लेकिन वैज्ञानिक प्रबन्ध के प्रादुर्भाव और परिस्थितियों में तीव्र गति से हुए परिवर्तन ने नियोजकों को मानवीय सम्पदा पर सर्वाधिक ध्यान देने के लिए विवश कर दिया और कर्मचारी के श्रम को क्रय-विक्रय की वस्तु न मानकर उत्पादन का एक अभिज्ञा अंग माना जाने लगा । परिणामस्वरूप अभिप्रेरण की आवश्यकता एवं महत्व को स्वीकार किया गया ।
अभिप्रेरण की आवश्यकता एवं महत्व निम्न प्रकार हैं:
i. उत्पादकता में सुधार (Improvement in Productivity):
उत्पादन के विभिन्न साधनों में ”मानव” एक महत्वपूर्ण साधन है । इस साधन के सदुपयोग पर ही संस्था की प्रगति निर्भर करती है । अत: उन्हें विभिन्न प्रकार की अभिप्रेरणाएँ प्रदान की जानी चाहिए ।
अभिप्रेरित व्यक्ति अधिक उमंग, उत्साह तथा लगन के साथ काम करता है । फलस्वरूप उसकी उत्पादकता, उस व्यक्ति की तुलना में कहीं अधिक होती है, जो कार्य को भार समझता है ।
ii. मनोबल में सुधार (Improvement in Morale):
मनोबल कर्मचारी के उत्साह, जोश, अभिवृत्तियों आदि से सम्बन्ध रखता है जो उन्हें निरन्तर कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करता है । अत: कर्मचारियों को प्रदान की जाने वाली विभिन्न अभिप्रेरणाएँ निश्चय ही उनके मनोबल को बढ़ाती हैं ।
अभिप्रेरणाओं से जब कर्मचारी की अनेक प्रकार की आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो जाती हैं तो वह निश्चय ही मन लगाकर कार्य करता है उसके मनोबल में भी वृद्धि होती है ।
कर्मचारियों को दी गई उच्च प्रेरणा उनके मनोबल को ऊँचा उठाती हैं और वे चुनौतियों व कठिनाइयों के सामने हथियार नहीं डालते बल्कि उन्हें दूर करने के लिए नई योजनाएँ बनाते हैं और साहसपूर्ण निर्णय लेते हैं । इससे कर्मचारियों की प्रतिभा का विकास होता है और कार्य में सफलता मिलने की आशा अधिक बढ़ जाती है ।
iii. कर्मचारी आवृत्ति तथा अनुपस्थिति में कमी (Low Employee Turnover and Absenteeism):
कर्मचारियों को आवश्यक प्रेरणाएँ प्रदान करने से मधुर श्रम सम्बन्धों का निर्माण किया जा सकता है और औद्योगिक अशान्ति को यदि समाप्त नहीं तो दूर अवश्य किया जा सकता है । अभिप्रेरित कर्मचारी अपनी संस्था के प्रति अपेक्षाकृत अधिक निष्ठावान होते हैं ।
फलस्वरूप ऐसी संस्थाओं में न तो अनुपस्थिति की दर अधिक ऊँची होती है और न पुराने कर्मचारी नई नौकरियों के चक्कर में स्थान-स्थान पर भटकते हैं । इससे संगठन में एक ओर स्थिरता पैदा होती है और दूसरी ओर इसकी नीतियों में स्थायित्व पैदा होता है ।
iv. सहयोग में वृद्धि (Improvement in Co-Operation):
सहयोग में वृद्धि के लिए प्रेरणा आवश्यक होती है क्योंकि अभिप्रेरित कर्मचारी संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति में अधिक उत्साह के साथ सक्रिय योगदान देते हैं । क्योंकि इसके फलस्वरूप स्वयं उनके उद्देश्य की पूर्ति में सहायता मिलती है । वे न केवल संगठन और प्रबन्धकों के साथ सहयोग करते हैं, बल्कि अपने सहकर्मियों से भी कंधे से कंधा मिलाकर काम करते हैं ।
7. अभिप्रेरणा की परम्परागत विचारधाराएँ (Traditional Theories of Motivation):
i. भय एवं दण्ड का सिद्धान्त या विचारधारा (Fear and Punishment Theory):
भय एवं दण्ड की विचारधारा अभिप्रेरण की सबसे प्राचीन विचारधारा है । इस विचारधारा के समर्थक विद्वानों की मान्यता है कि प्रत्येक व्यक्ति पेट के लिए कार्य करता है ।
अत: यदि श्रमिकों एवं कर्मचारियों को भय दिखाया जाए कि काम न करने पर अथवा मन्द गति से काम करने पर उन्हें सेवा निवृत्त कर दिया जायेगा तो वे घबरा कर कार्य करेंगे ।
इसी प्रकार दण्ड का भय भी श्रमिकों एवं कर्मचारियों से बरबस कार्य करा सकता है । औद्योगिक क्रान्ति की प्रारम्भिक अवस्था में यह विचारधारा सफल रही लेकिन कालान्तर में इसका महत्व कम होता गया और वर्तमान समय में तो भय दिखाकर अथवा दण्ड देकर कार्य कराना अमानवीय समझा जाने लगा है ।
ii. पुरस्कार का सिद्धान्त या विचारधारा (Reward Theory):
अभिप्रेरण के पुरस्कार सिद्धान्त के प्रतिपादन का श्रेय एफ. डब्लू टेलर को जाता है । यह विचारधारा इस मान्यता पर आधारित है कि अच्छा पुरस्कार कर्मचारियों को अधिकाधिक उत्पादन के लिए अभिप्रेरित करता है ।
जितना अधिक पारिश्रमिक अथवा प्रतिफल कर्मचारियों को मिलेगा वे उतनी अधिक लगन एवं परिश्रम से कार्य करेंगे । अच्छा पुरस्कार और अच्छी कार्य दशाएँ श्रमिकों को सन्तुष्ट बनायेंगी जिससे उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि होगी ।
टेलर के अनुसार मौद्रिक अभिप्रेरणाएँ कार्यरत श्रमिकों में कार्य के प्रति इच्छा, शक्ति एवं उत्साह जागृत करने के लिए महत्वपूर्ण है अत: उत्पादन में वृद्धि के लिए इन्हीं को आधार बनाना होगा ।
यह विचारधारा कार्य करने के वातावरण में मानवीय सम्बन्धों को सर्वश्रेष्ठ बनाने पर भी बल देती है लेकिन आधुनिक प्रबन्ध विद्वानों का विचार है पुरस्कार एक उत्प्रेरक तत्व है न कि अभिप्रेरण का साधन ।
धन श्रमिकों को सन्तुष्टि तो प्रदान कर सकता है लेकिन उन्हें अभिप्रेरणा नहीं प्रदान कर सकता । पीटर, एफ. ड्रकर के भी इस सम्बन्ध में यही विचार हैं कि मौद्रिक पुरस्कार से सन्तुष्ट होना पर्याप्त अभिप्रेरणा नहीं है ।
iii. केरट एवं स्टिक सिद्धान्त या विचारधारा (Carrot and Stick Theory):
अभिप्रेरण का यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि श्रमिक एवं कर्मचारियों को दण्ड एवं पुरस्कार दोनों के सम्मिश्रण से अभिप्रेरित किया जा सकता है । इस सिद्धान्त के अनुसार जिन श्रमिकों का कार्य निष्पादन निश्चित न्यूनतम स्तर ऊँचा हो उन्हें पुरस्कार देना चाहिए और जिन श्रमिकों का कार्य निष्पादन निश्चित न्यूनतम स्तर से नीचा हो उन्हें दण्ड दिया दिया जाना चाहिए ।
इस प्रकार यह विचारधारा अभिप्रेरण के लिए पुरस्कार को शर्तयुक्त बना देता है । यह दृष्टिकोण कुछ विशेष परिस्थितियों में ही प्रभावी रहता है ।
मैकग्रेगर के अनुसार- “यह विचारधारा एक बार व्यक्ति के पर्याप्त जीवन स्तर पर पहुँच जाने के बाद कार्य नहीं करती क्योंकि तब श्रमिक मुख्य रूप से उच्चतम आवश्यकताओं द्वारा अभिप्रेरित होता है । इस प्रकार यह विचारधारा केवल उन व्यक्तियों को ही प्रभावी ढंग से अभिप्रेरित करती है जिनकी जीवन निर्वाह, मनोवैज्ञानिक एवं सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएँ पूरी नहीं हो सकी हैं ।”
8. अभिप्रेरणा की समस्याएँ (Problems of Motivation):
अभिप्रेरणा की धारणाएं सैद्धान्तिक रूप से तो बहुत स्पष्ट हैं परन्तु जब इन्हें व्यावहारिक रूप से लागू किया जाता है तो अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है ।
कर्मचारियों की प्रेरणा में निम्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है:
i. तत्वों की समस्या (Problem of Factors/Elements):
प्रेरणा के तत्वों को चार भागों में बाँटा जा सकता है:
(a) प्रेरणा प्रदान करने वाला,
(b) प्रेरित होने वाला,
(c) प्रेरणा की तकनीक तथा
(d) प्रेरणा की परिस्थितियाँ ।
कुछ लोगों का विचार है कि प्रेरणा की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि एक व्यक्ति के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक तत्वों को किस स्तर तक प्रेरित किया जाता है जबकि कुछ अन्य लोगों का मत है कि प्रेरणा में प्रेरित करने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रमुख घटक है ।
कुछ लोग प्रेरित प्रेरणा की तकनीक तथा किन परिस्थितियों में प्रेरणा दी जा रही है, को प्रमुख घटक मानते हैं । परन्तु इन चारों में से एक एकाकी तत्व अपने-आप में अधूरा है । इन चारों तत्वों का समन्वय आवश्यक है ।
ii. प्रेरणा को लागू करने की समस्या (Problem of Implementation of Incentive):
प्रेरणा में सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि क्या किया जाए जिससे व्यक्ति कार्य करने के लिए प्रेरित हो ? अलग-अलग व्यक्तियों की आवश्यकताएँ भी अलग-अलग होती हैं । अत: प्रत्येक के लिए प्रेरणा के किसी एक साधन का प्रयोग नहीं किया जा सकता ।
iii. कर्मचारियों की माँग को पूरा करने की समस्या (Problem to Fulfill Demands of Employees):
किसी भी उद्योग में सभी कर्मचारियों की सभी माँगों तथा आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं की जा सकती । जब तक कर्मचारियों की माँगों और आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो, तब तक वे कार्य के लिए प्रेरित नहीं होंगे ।
यद्यपि कर्मचारी के व्यवहार को प्रभावित करने के लिए प्रेरणा, प्रबन्धकों के हाथ में एक प्रमुख यन्त्र है, परन्तु कर्मचारी को एक निश्चित सीमा तक ही अभिप्रेरित किया जा सकता है ।
iv. व्यवहार की समस्या (Problem of Attitude):
प्रेरणा के मार्ग में एक समस्या यह भी आती है कि किसी व्यक्ति से किस प्रकार का व्यवहार किया जाए ताकि उसमें अभिप्रेरणा की भावना जागृत हो क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति से भिन्न होता है और सभी व्यक्तियों से एक-जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता ।
v. कर्मचारियों की सीमाएँ (Limitations of Employees):
प्रेरणा की योजना को लागू करने से पहले प्रबन्धकों को कर्मचारियों की सीमाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए । वे केवल संस्था के लिए ही नहीं हैं, उनका अपने परिवार, शहर, समाज के प्रति भी कुछ उत्तरदायित्व है ।
इसलिए यदि प्रबन्धक केवल इस बात की आशा रखें कि कर्मचारी केवल संस्था के लिए ही कार्य करेगा, तो गलत होगा । ऐसी विधियों को अपनाना होगा, जिससे कर्मचारी न केवल संस्था के प्रति बल्कि अन्य दायित्वों की भी पूर्ति कर सके ।
vi. कार्य का ढाँचा (Structure of Work):
कार्य के ढाँचे का ठीक न होना भी प्रेरणा के लिए एक समस्या है । यदि प्रेरणा की योजनाएँ कार्य के ढाँचे के अनुरूप नहीं हैं या कार्य का ढाँचा ही गलत है तो व्यक्ति कार्य के लिए प्रेरित नहीं होगा ।
vii. प्रेरणा परिस्थितियों पर आधारित है (Incentive Based on Situations):
परिस्थितियाँ ही व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत होती हैं । अत: प्रबन्धकों को चाहिए कि प्रेरणा की योजनाओं को लागू करने से पहले परिस्थितियों का अध्ययन करें और उसके उपरान्त ही कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने के लिए पग उठाएँ ।
अभिप्रेरणा की योजना को लागू करने से पहले वह व्यक्ति स्वयं अभिप्रेरित हो क्योंकि वही अन्य कर्मचारी के लिए आदर्श का कार्य करेगा ।
viii. प्रेरणा एक आन्तरिक जागृति है (Incentive is an Internal Feeling):
प्रबन्धक को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि कर्मचारी जब तक आन्तरिक रूप से जागृत नहीं होगा तब तक वह कार्य के लिए प्रेरित नहीं होगा । प्रबन्धक केवल प्रेरणा की योजना का श्रीगणेश कर सकता है परन्तु व्यक्ति केवल अपनी आन्तरिक इच्छा से ही अभिप्रेरित होगा ।
अत: उपर्युक्त समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए ही प्रबन्ध द्वारा श्रमिकों को अभिप्रेरित करने की योजनाओं को लागू करना चाहिए । यदि विभिन्न प्रेरणा योजनाओं को उचित ढंग से लागू किया जाए तो अधिकारी श्रमिकों से अधिक वफादारी की आशा रख सकते हैं । परन्तु श्रमिकों में स्वयं भी कार्य करने के प्रति प्रेरणा होनी चाहिए । अत: प्रेरणा द्वि-पक्षीय होने पर ही सफल होगी ।