Read this article in Hindi to learn about the organisation of personnel management in a company.

किसी उद्योग में कार्मिक विभाग का संगठन ऐसे अनेक घटकों पर निर्भर करता है जिस पर स्टॉफ की नियुक्ति से पूर्व पर्याप्तत: विचार किया जाना होता है । अधिकांश संगठनों में, कार्मिक विभाग संगठन की जरूरतों के साथ-साथ बढ़ चुके हैं, जो एक कार्मिक सलाहकार या कार्मिक प्रबन्धक तथा उसके सहायकों का समावेश करने वाली एक अत्यन्त छोटी सी यूनिट से शुरू हो सकता है ।

ऐसे एक उद्गम के साथ यह समस्या होती है कि अनेक बार संगठन की आवश्यकताओं के अनुसार विकास अंजाम नहीं ले पाता वरन् ऐसा कार्मिक अध्यक्ष तथा प्रबन्ध के रुझान के अनुसार होता है । अत: यह आवश्यक होता है कि एक विभाग के संगठन के सिद्धान्तों की पूरी व्याख्या की जाये उसके कार्यों के विशेष संदर्भ में ।

यह सिद्धान्त संगठन के उस प्रकार से सम्बन्ध रखता है जिसमें कार्मिक विभाग को काम करना होता है । यदि यह एक उत्पादकीय संस्थान है तो कारखाने के नियम विधानों, कैन्टीनों की समस्याओं आदि के सम्बन्ध में उसकी कुछ निजी आवश्यकताएँ होंगी ।

यदि यह एक स्टॉफ संगठन है तो कार्मिक विभाग आकार में संभवत: अपेक्षाकृत छोटा हो सकता है जो कारखाने तथा अन्य यूनिटों में हो सकता है पूरी तरह से छाया हुआ न हो वरन् मात्र एक ऐसे परामर्शदाता तक ही सीमित हो जो मुख्य प्रशासक को रिपोर्ट करता है ।

दूसरा सिद्धान्त संगठन की संरचना से सम्बन्ध रखता है । यदि एक संगठन अपने मुख्यालय के साथ एक बहुयूनिट कम्पनी है तो उसको डुप्लीकेशन के निराकरण हेतु तथा कारपोरेट स्तर पर उचित समन्वय सुनिश्चित करने के लिए मुख्यालय तथा विभिन्न यूनिटों के कार्यों के स्पष्ट पृथक्कीकरण की अपेक्षा होगी ।

यदि यह एक एकल-यूनिट कम्पनी है तो इन समस्याओं का सामना नहीं करना होता । तीसरे, कार्मिक प्रबन्ध की भूमिका काफी सीमा तक विभाग की संगठनात्मक संरचना का निर्धारण करेगी ।

नीचे कुछ बैंचमार्क दिये गये हैं जो कुछ संगठन कार्मिक कार्यों का मूल्यांकन करते हैं:

1. कार्मिक प्रबन्ध का मुख्य प्रशासक के प्रति पूर्णत: परामर्शदात्री कार्य होता है । इसमें अनिवार्यत: एक काफी छोटे स्टॉफ का समावेश होता है तथा यह मुख्य प्रशासक के प्रति एक सलाहकार की सेवाओं की अपेक्षा करता है ।

2. ऐसे संगठनों के मामलों में जहाँ सेविवर्गीय प्रबन्ध की भूमिका को पूरी तरह से परामर्शदात्री माना जाता है विभागों के अध्यक्षों के प्रति परामर्शदाताओं के लिए निचले स्तरों पर भी आवश्यकता अनुभव की जा सकती है जो मुख्य परामर्शदाता द्वारा आगे समन्वित की जा सकती है ।

3. ऐसे संगठन जहाँ कार्मिक कार्यों को परामर्शदात्री तथा साथ ही प्रशासकीय माना जाता है एक संश्लिष्ट कार्मिक विभाग की आवश्यकता हो सकती है । यह सेवा कार्यों को ध्यान में रखने के लिए तथा इन क्षेत्रों में प्रबन्ध द्वारा लिए गये निर्णयों की तामील हेतु एक पुष्ट कार्मिक संगठन की आवश्यकता अनुभव करेगा ।

4. कुछ संगठनों में कार्मिक विभाग को एक बहु-क्रियाशील क्षेत्र (Multifunctional Area) के रूप में लिया जा सकता है ।

जिसको वास्तव में स्वतंत्र विभागों की आवश्यकता होती है; यथा:

(i) कार्मिक, स्टॉफ प्रबन्ध तथा कार्यालय,

(ii) औद्योगिक सम्बन्ध,

(iii) विकास तथा प्रशिक्षण,

(iv) मजदूरी तथा वेतन प्रशासन,

(v) औद्योगिक इंजीनियरिंग ।

चौथे कार्मिक विभाग का संगठन के प्रकार के साथ भी अलग-अलग हो जायेगा जैसे Tall तथा Flat Organisation में होता है ।

नीचे दिया गया प्रकल्प मॉडल (Project Model) अपने क्षेत्र में सभी कार्यों के क्रियान्वयन के लिए सम्पूर्ण अधिकार प्रकल्प प्रबन्धक को देता है तथा कार्मिक प्रबन्धक भी उसको रिपोर्ट करता है ।

साथ ही आव्यूह मॉडल (Matrix Model) प्रकल्प प्रबन्धकों को क्रियात्मक रेपोर्टिंग के लिए व्यवस्था करता है, जबकि प्रशासनिक तौर पर तथा रेखीय अधिसत्ता में वे तत्सम्बनधी क्रियात्मक डिवीजनों तथा अध्यक्षों के अन्तर्गत काम करते रहते है ।

एक Tall Organisation सामान्य: अनेक स्तरों को काम लेता है जो गहनता के साथ निर्णयों तक पहुँचने में उपादेय नहीं होता । लेकिन कुछ बड़े संगठनों में ऐसी एक व्यवस्था अपरिहार्य बन जाती है । दूसरी ओर एक Flat Organisation में बहुत कम स्तर होते हैं तथा निर्णयन शीघ्रतम होता है तथा उसमें बहुत कम साधन चरण होते हैं ।

पाँचवें, कार्मिक विभाग को भी केन्द्रीयकरण बनाम विकेन्द्रीयकरण के महत्वपूर्ण विषय को ध्यान में रखना होगा ।

कुछ संगठनों में केन्द्रीयकरण (Centralisation) अनेक समस्याएं पैदा कर सकता है:

1. निर्णयन हेतु अधिसत्ता तथा शक्ति केन्द्रीयकृत होती है जो क्रम व्यवस्था में निचले स्तरों में शक्तिहीनता की अनुभूति की ओर ले जाती है । कभी-कभी ऐसी परिस्थितियों में संगठन क्षेत्र से फीडबैक के प्रति Insulated हो जाता है तथा परिस्थिति की वास्तविकता से अलग-थलग पड़ जाता है । सैद्धान्तिक रूप से, एक संगठन में निर्णयन केन्द्र, जहाँ तक सम्भव हो, गतिविधि (Action) क्षेत्रों के निकट ही होने चाहिए ।

2. केन्द्रीयकरण में देरियों का समावेश होता है ।

3. केन्द्रीयकरण रेखीय तथा स्टॉफ टकराव की समस्या के प्रति भी योगदान देता है जहाँ केन्द्रीय नियंत्रण रखने वाली स्टॉफ एजेन्सियाँ रेखीय प्रबन्धकों के साथ अपनी गतिविधियों को उचित तौर पर समन्वित नहीं करतीं । यह भारी अवरोध (Resistance) तथा अन्त: संगठनात्मक टकराव की ओर ले जाती है ।

दूसरी ओर केन्द्रीयकरण के अनेक लाभ होते हैं जिनमें शामिल हैं अच्छा समन्वय, कम लागत तथा समरूपता तथा साथ ही साथ निर्णयन में संगतता । इन घटकों को देखते हुए प्रत्येक संगठन को एक विभाग की स्थापना में अपेक्षित केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीयकरण की मात्रा के बीच चयन करना चाहिये ।

सामान्यत: निम्न गाइड लाइन्स उपयोगी रहती हैं:

(i) नीति सृजन के रूप में केन्द्रीयकरण का सहारा लिया जाना चाहिये ।

(ii) मानव शक्ति नियोजन तथा कारपोरेट नियोजन में एक केन्द्रीय कमान किसी उपक्रम द्वारा चुनी गई महत्वपूर्ण दिशाओं में अच्छी परियोजनाओं तथा समन्वित प्रयासों की ओर ले जा सकती है ।

(iii) ऐसे संयंत्रों अथवा यूनिटों की आगम गतिविधियों के रूप में जहाँ उसी क्षेत्र में स्वतंत्र गतिविधियाँ संसाधनों को परे ले जा सकती हैं या यूनिटों के बीच प्रतिस्पर्द्धा में ले जा सकती हैं, जो कार्यों को केन्द्रीयकृत करना कहीं अधिक उपयुक्त होगा ।

विकेन्द्रीयकृत मॉडल (Decentralised Model):

केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीयकरण की समस्या से निपटने का एक व्यावहारिक तरीका है । सेविवर्गीय विभाग के संगठन का विखण्डन करना ।

(1) कमान की एक क्रियात्मक श्रृंखला (A Functional Line of Command) में तथा

(2) कमान की एक प्रशासनिक श्रृंखला (An Administrative Line of Command) ।

ऐसा करने में, यह सम्भव होता है कि विकेन्द्रीयकृत प्रशासनिक नियंत्रण का तथा विभाग विशेष के अध्यक्ष से केन्द्रीयकृत क्रियात्मक परामर्श काम लाया जाये ।

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