Read this article in Hindi to learn about the principles of organisation.
एक संगठन के सृजन हेतु कुछ सामान्य मार्गदर्शक सिद्धान्त अब दिये जा रहे हैं । एक संगठन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु संसाधनों के एक विवेकपूर्ण समन्वय का समावेश करता है । इस समन्वय को पाने के लिए एक संगठन के लिए यह आवश्यक है कि उसको उसकी आवश्यकताओं तथा उद्देश्यों के प्रति ढाल लिया जाये ।
इसके लिए उद्देश्यों को भली प्रकार परिभाषित तथा लिखित में व्यक्त किया जाना चाहिये तथा संगठन को उनकी कमजोरियों को नजरन्दाज करने की आज्ञा नहीं दी जानी चाहिए । भारत के अनेक संगठनों में संगठन के उद्देश्यों के साथ-साथ कार्मिक कार्य के लक्ष्यों की स्पष्ट व्याख्या के मौलिक सिद्धान्तों का पालन नहीं हुआ है ।
परिणाम रहा है कि संगठन की कार्मिक नीतियाँ वातावरण आन्तरिक तथा बाहरी की परिस्थितियों पर निर्भर करते हुए समय-समय गड़बड़ाती रही हैं ।
एक कम्पनी की सेविवर्गीय नीति के निम्न उद्देश्य हो सकते हैं:
1. विकास सम्भावनाओं वाले सक्षम कार्मिकों को आकृष्ट करना तथा उनकी अधिकतम क्षमताओं को विकास तथा अभिप्रेरणाओं के लिए अवसरों के प्रावधान के माध्यम से कार्यशील वातावरण में विकसित करना ।
2. एक अनुकूल कर्मचारी रुझान विकसित करना तथा संजोये रखना तथा स्थिर रोजगार, चुकाने की कम्पनी की क्षमता के समतुल्य पर्याप्त मजदूरी, अच्छी तथा सुरक्षित कार्य दशाओं तथा कार्य संतुष्टि की अभिप्राप्ति ।
3. न्यूनतम सम्भव समय में तथा न्यूनतम सम्भव चरणों में कर्मचारियों की शिकायतों के निदान हेतु एक प्रणाली की स्थापना ।
4. अपने वर्तमान काम में आत्म विकास तथा उन्नति के लिए प्रशिक्षण सुविधाओं तथा अन्य अवसरों की व्यवस्था करना ।
5. विभिन्न संयुक्त संस्थाओं में भागीदारी के माध्यम से प्रबन्ध के साथ कर्मचारियों की निकट सम्बद्धता के माध्यम से कुल-मिलाकर कम्पनी के प्रति सम्बद्धता का भाव तथा मित्रवत् व्यवहार विकसित करना एवं उत्पादन के उपकरणों के लिए तथा अपने पेशे के लिए उनमें सम्मान पैदा करने की इन तंत्र व्यवस्थाओं के माध्यम से आत्मीयता उत्पन्न करना ।
6. श्रमिकों के मान्य प्रतिनिधियों के साथ उचित व्यवहार करना तथा उनमें स्वस्थ श्रम संघ व्यवहारों को बढ़ावा देना ।
7. विभिन्न पद-स्थितियों के उत्तरदायित्व ऐसे होने चाहिये कि जहाँ तक सम्भव हो सके वे एक एकल महत्वपूर्ण कार्य की निष्पति के प्रति सीमित रहें । कार्य लागतों तथा संसाधनों के रूप में सर्वोत्तम निष्पत्ति पाने के लिए गतिविधियों की समरसता पर निर्भर करना चाहिये ।
8. जवाबदेही के साथ-साथ शीर्ष से निम्न तक अधिकार स्पष्टत: परिभाषित होनी चाहिये । अधिसत्ता के स्तरों की संख्या न्यूनतम रखी जानी चाहिये ।
9. जहाँ तक सम्भव हो, संगठन में प्रत्येक को केवल एक ही सुपरवाइजर को रिपोर्ट करना चाहिये तथा नियंत्रण का एक प्रबन्ध योग्य दायरा होना चाहिये । नियंत्रण का क्षेत्र (Span of Control) का प्रश्न अधिकारी तथा उसके अधीनस्थों की दक्षता पर निर्भर करेगा तथा साथ ही साथ उनके बीच सम्बन्धों पर ।
रेखीय तथा स्टॉफ टकराव (Line and Staff Conflict):
रेखीय तथा स्टॉफ टकराव प्रबन्ध के छात्रों तथा प्रबन्धकों के बीच चर्चा का विषय रहा है ।
सैद्धान्तिक तौर पर रेखीय तथा स्टॉक विवाद निम्न घटकों से उभरते हैं:
1. वे सामान्यत: मानकर चलते हैं कि वे उत्पादन की प्रक्रिया तथा संगठन के उद्देश्यों से प्रत्यक्षत: सम्बन्धित हैं तथा इसलिए वे उचित मान्यता तथा उचित व्यवहार की आशा करते हैं । वे सामान्यत: मानते हैं कि स्टॉक अपना योगदान देते हुए संगठन का एक अभिन्न अंग होता है लेकिन केवल एक सीमान्त मात्रा तक ।
साथ ही अधिकांश उत्पादकीय तथा गतिविधि उन्मुखी संगठन इस तनाव को अनुभव करते हैं, एक बहुआयामी अन्तर्द्वन्द्व के रूप में न होकर उद्विग्नों की एक तालिका में एक मद के रूप में, जिसके माध्यम से प्रबन्धक उत्पादन के लक्ष्यों को पाने की अपनी उद्विग्नता में होकर गुजरते हैं ।
यह वास्तव में एक शीत युद्ध है जो कभी-कभी गम्भीर टिप्पणियों या देरियों के आरोपों के माध्यम से अभिव्यक्त हो जाते हैं । यह लड़ाई इस अनुभव से और भी सड़क जाती है कि स्टॉफ प्रबन्धकों को अच्छी कार्यदशाएँ प्रदान की जाती हैं, उनके पास बड़ी ऑफिस सुविधाएँ होती हैं तथा रेखीय प्रबन्धकों की तुलना में उनको अच्छा व्यवहार मिलता है ।
अधिकांश समय White-Collared Workers के विपरीत Blue-Collared Workers की गम्भीर दुर्भावना ने उत्पादकीय संगठनों में इस अनुभूति को जन्म दिया है कि जो गतिविधियों पर काम करते हैं उनको वे सुविधाएँ नहीं मिलतीं जो स्टॉफ संगठनों में लोगों को उपलब्ध होती है जो शक्ति के स्रोत के एकदम निकट होते हैं ।
वास्तव में रेखीय तथा स्टॉफ टकराव का यह पहलू पुराने साम्राज्यों के क्रियाकलाप के ही सदृश है जहाँ राजा के दरबारी अच्छा व्यवहार पा जाते थे । जबकि फील्ड के कमाण्डर्स स्वयं को दूरी पर पाते थे तथा इस अनुभूति का विरोध करते थे ।
Field Command के सिद्धान्त के पक्षधर तर्क देते हैं कि संगठन को उन लोगों के नियंत्रण में सभी संसाधनों तथा सम्पूर्ण सुविधाओं को डाल देना चाहिये जो उत्पादन करते हैं तथा वे व्यक्ति जो स्टॉफ पर हैं उनको तदानुसार अपेक्षाकृत एक कम भाग मिलना चाहिए । ये अनुभूतियाँ एक संगठन में दबकर रह जाती हैं तथा परिणाम होता है अन्तर्विभागीय गलतफहमियों तथा टकराव ।
2. दूसरी ओर स्टॉफ संगठन में निरन्तर असुरक्षा का भाव बना रहता है क्योंकि उनसे कहा जा रहा होता है कि वे केवल एक सीमान्त तथा सतही भूमिका ही निभा रहे हैं जबकि सभी स्टॉफ संगठन अपने निजी तरीके में महसूस करते हैं कि वे उपक्रम के एक महत्वपूर्ण कार्य का निष्पादन कर रहे हैं ।
यह एक तथ्य है कि स्टॉफ संगठन अधिकांशत: दैनिक समस्याओं के सम्बन्ध में मुख्य प्रशासन के साथ सम्पर्क में आता है, विशेषत: संगठनात्मक Pyramidal संरचना के आधार पर जहाँ उच्च प्रबन्ध व्यापक तौर पर स्वयं को प्रबन्धकीय नीति से जोड़ता है तथा स्टॉफ एजेन्सियाँ नीति निर्धारण में तथा अन्य ऐसे नियोजन विषयों में सलाह देने में अपनी भूमिका निभाते हैं ।
इस प्रकार वे संगठन के मुख्य प्रशासक के साथ और अधिक सम्पर्क में आने में समर्थ हो जाते हैं । स्टॉफ एजेन्सी संगठन तथा मुख्य प्रशासक के बीच सम्पर्क का सामीप्य तथा आवृत्ति स्टॉफ संगठन में आत्म-महत्ता की अनुभूति की ओर ले जाते हैं जो टकराव को सुर्खियों में लाता है । इससे जुड़ी है कार्य के मूल्य के बारे में मौलिक भ्रांति ।
शारीरिक कार्य या गतिविधियों से सम्बद्ध कार्य परम्परागत तौर पर विवेकपूर्ण कार्य तथा कागजी कार्य के प्रति निकृष्ट माने जाते हैं । यह सही है कि अधिकांश गतिविधियों में अपेक्षाकृत उच्च स्तर पर कार्य नियोजन तथा पूर्वानुमान से सम्बन्धित विवेकपूर्ण कार्य का समावेश करते हैं ।
साथ ही, विकासशील देशों में, अफसारशाही द्वारा भोगा जा रहा वर्चस्व भी इस विचार के प्रति योगदान करता है । मूल्य तंत्र का यह मौलिक विलोमन किसी भी ऐसे देश में परिवर्तित होने की आवश्यकता अनुभव करता है जो औद्योगिक उन्नति कर रहा है ।
प्रत्येक के लिए यह आवश्यक होता है कि यह महसूस करें कि उत्पादन संस्थाओं तथा रेखीय प्रबन्धकों का काम संगठन के कामकाज के लिए उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना स्टॉक एजेन्सियों का होता है । कुछ देशों में, स्टॉफ एजेन्सियों को उत्पादकीय विभागों में निश्चय ही अपेक्षाकृत घटिया भूमिकाएँ सौंपी जा चुकी हैं जबकि औद्योगिक उत्पादन तथा परिणामस्वरूप रेखीय कार्यों को उच्चतम महत्ता सौंपी जाती हैं ।
स्टॉफ तथा रेखा के बीच टकरावों तथा गलतफहमियों का निदान चाहे जिन कारणों से उत्पन्न हों एक निरन्तर समस्या होती है, जो कार्मिक प्रबन्धकों को सहन करनी चाहिये ।
कार्मिक विभाग को इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है क्योंकि अनेक बार यह कार्मिक विभाग ही होता है जो अन्तिम अधिसत्ता की भूमिका धारण करके इस तनाव को बढ़ाने के प्रति वास्तव में अंशदान करता है या उचित औचित्य तथा पारस्परिक विचार विनिमय के बिना रेखीय प्रबन्धकों की विचारधाराओं की अवहेलना करके ।
रेखीय तथा स्टॉफ टकराव के लिए एक अत्यन्त श्रेष्ठ मॉडल होता है एक संगठन में विकेन्द्रीयकृत क्रियात्मक मॉडल जैसा पहले सुझाया जा चुका है । कार्मिक व्यक्तियों का स्तर एक अन्य बिन्दु होता है जो एक संगठन में उनकी पदस्थिति को देखते हुए वर्णित किये जाने की आवश्यकता होती है ।
भारत में अधिकांश संगठन कार्मिक क्षेत्र में विशिष्ट योग्यता वाले लोगों को बोर्ड रूम में प्रतिनिधित्व की व्यवस्था नहीं करते । यदि ऐसा है तो यह एक स्पष्ट स्वीकृति होती है कि कार्मिक कार्य उपक्रम के महत्वपूर्ण कार्य की अभिव्यक्ति नहीं करते ।
यदि यह एक छोटा संगठन है तो मुख्य प्रशासक तथा कार्मिक अध्यक्ष के बीच दूरी सम्भवत: इतनी छोटी हो जाती है कि यह स्थिति कार्मिक विभाग के प्रभावी कामकाज को सामान्यत: प्रभावित नहीं करेगी ।
लेकिन बहुआयामी स्तरों के साथ एक बड़े संगठन में यह न केवल कार्मिक व्यक्तियों की अधिसत्ता को छोटा बना देते हैं वरन् साथ ही एक संगठन में मानवीय घटक की महत्ता की अनेदेखी भी कर देते हैं, जब तक मुख्य प्रशासक स्वयं ही कार्मिक कार्य की देखभाल के काम को नहीं देखता है जो किसी भी मामले में अपनी बहुआयामी गतिविधियों तथा पूर्वाग्रहों के देखते हुए उसके द्वारा पर्याप्तत: अंजाम नहीं दिये जा सकते हैं ।
भारत के अधिकांश संगठन कार्मिक प्रबन्धकों को बोर्ड के दायरे से बाहर ही रखते हैं ताकि वे प्रत्यक्षत: मुख्य प्रशासक को रिपोर्ट करें या किसी एक क्रियात्मक संचालक को प्रतिवेदन दें ।
कुछ छोटी यूनिटों के मामले को छोड़ते हुए, यह परिस्थिति तुरन्त ही संशोधन की माँग करती है क्योंकि यह एक मुख्य कार्य को एक अन्य मुख्य कार्य से छोटा करके एक महत्वपूर्ण गतिविधि के निकृष्टतम प्रकार के उपचार की अभिव्यक्ति करता है ।
दुर्भाग्य से, अनेक संगठनों में अभी भी यही स्थिति बनी हुई है तथा यह महसूस नहीं किया जाता कि कार्मिक कार्य एक संगठन में एक महत्वपूर्ण स्वतंत्र कार्य होना चाहिए ।