Read this article in Hindi to learn about the financial and non financial incentive techniques of motivation adopted by a company.
Technique # 1. वित्तीय प्रेरणाएँ (Financial Incentives):
वित्तीय प्रेरणाओं को मुद्रा में मापा जा सकता है । व्यक्ति को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता होती है । वित्तीय प्रेरणाएँ नकद भुगतान के अतिरिक्त वित्तीय अनुलाभों (Financial Perquisites) के रूप में भी हो सकती हैं ।
वित्तीय अनुलाभों का अभिप्राय ऐसी सुविधाओं तथा रियायतों से है जो एक कर्मचारी को अपने नियोक्ता से प्राप्त होती है जैसे किराया मुक्त मकान, कार, नौकर सवेतन तथा सपरिवार छुट्टियाँ आदि । वित्तीय अभिप्रेरणाएँ कर्मचारियों की भौतिक, सामाजिक एवं अहंकार सम्बन्धी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करती हैं ।
वित्तीय प्रेरणाओं की विस्तृत सूची निम्न प्रकार है:
(1) मजदूरी अथवा वेतन,
(2) महंगाई भत्ता अथवा सस्ता सामान,
(3) भवन सुविधा या भवन भत्ता,
(4) चिकित्सा भत्ता या व्यवस्था,
(5) बोनस,
(6) प्रोविडेण्ट फण्ड की सुविधा,
(7) वाहन भत्ता,
(8) कठिन कार्य भत्ता,
(9) पेंशन,
(10) ग्रेच्युटी,
(11) अवकाश वेतन,
(12) यात्रा भत्ता,
(13) सहायता-प्राप्त भोजन,
(14) भवन निर्माण ऋण,
(15) वाहन ऋण,
(16) अधिसमय या ओवर टाइम वेतन,
(17) बच्चों को मुफ्त शिक्षा-सुविधा,
(18) मनोरंजन, क्लब आदि की सुविधाएँ,
(19) लाभ-भागिता ।
Technique # 2. अवित्तीय अथवा अमौद्रिक अभिप्रेरणाएँ (Non-Financial Incentives):
अवित्तीय अभिप्रेरणाओं में वे अन्य नियोजित एवं अनियोजित कारक निहित हैं, जोकि प्रयत्न को स्कूर्ति प्रदान करते हैं । केवल नकद मजदूरी से औद्योगिक उत्पादकता की समस्या का समाधान नहीं हो सकता । कर्मचारी को अधिक एवं कुशल उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करने में अवित्तीय प्रेरणाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान है ।
यदि कर्मचारी की वित्तीय मजदूरी में वृद्धि कर दी जाती है तो यह नहीं समझना चाहिए कि उसकी कार्यकुशलता में भी वृद्धि हो गई । उदाहरणार्थ, भारतीय श्रमिक जिन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में रह रहा है उसका अतिरिक्त धन (मजदूरी) विभिन्न बुरे कामों जैसे शराब, जुआ आदि में खराब होना सम्भव है ।
इसके विपरीत अवित्तीय प्रेरणाएँ उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि कर सकती हैं । जैसे यदि प्रबन्धक यह घोषणा कर दें कि जो कर्मचारी सर्वाधिक सन्तोषजनक कार्य करेगा उसे संस्था द्वारा वीर की उपाधि से सम्मानित किया जाएगा और पदोन्नति का भी यही आधार होगा तो इससे मधुर एवं स्वस्थ वातावरण उत्पन्न होगा और सभी श्रमिक सर्वोत्तम प्रयास करेंगे, जिससे कर्मचारी और प्रबन्धक दोनों लाभान्वित होंगे ।
अवित्तीय अभिप्रेरणाओं का मूल मंत्र यह है कि इसमें कर्मचारियों को अभिप्रेरणाएँ मुद्रा में न दी जा कर अन्य किसी दूसरे प्रारूप में दी जाती हैं । इस प्रकार की अभिप्रेरणाओं से कर्मचारी को व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों प्रकार की सन्तुष्टि मिलती है और उसमें समूह भावना विकसित होती है ।
ऐसी अभिप्रेरणाओं से कर्मचारियों की अनुपस्थिति एवं प्रत्यावर्तन में कमी होती है जिसके परिणामस्वरूप पर्यवेक्षक अपने नेतृत्व के दायित्व को सरलता से निभा सकता है ।
कार्य की दशाएँ स्वस्थ एवं अनुकूल मनोवैज्ञानिक वातावरण विकसित हो जाने से व्यावसायिक उपक्रम में उत्पादन निर्बाध चलता है । सारांश में यह कहा जा सकता है कि अवित्तीय अभिप्रेरणा का भी व्यवसाय में महत्व होता है ।
कुछ गैर-वित्तीय प्रेरणाएँ (Some Non-Financial Incentives):
(1) नौकरी की सुरक्षा (Safety of Job):
अच्छे वेतन के बाद मनुष्य यह देखता है कि उसकी नौकरी स्थायी होनी चाहिए । मनुष्य को बेरोजगारी का बड़ा भय होता है । अत: वह अच्छी और स्थायी नौकरी पसन्द करता है । जीवन के आरम्भ में जबकि उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्ति प्रबल है, उसे अच्छी नौकरी मिल सकती है ।
उस स्थान से हटने के पश्चात् ढलती हुई उम्र में अच्छी नौकरी प्राप्त करना कठिन हो जाता है, नौकरी की सुरक्षा की दृष्टि से ही व्यक्ति अच्छे वेतन की निजी सेवाओं को छोड़ कर कुछ कम वेतन पर राजकीय सेवा करने को उद्यत हो जाते हैं क्योंकि राजकीय सेवाओं को संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है ।
(2) पुरस्कार तथा दण्ड (Reward and Punishment):
अच्छे कार्य के लिए पुरस्कार और बुरे कार्य के लिए दण्ड देने का प्रावधान होना चाहिए जिससे अच्छा कार्य करने के लिए प्रेरणा मिलती रहे । दण्ड विधान के अन्तर्गत लगातार बुरा कार्य करने वाले को पदमुक्ति का भय भी होना चाहिए ।
(3) पदोन्नति के अवसर (Promotion Opportunities):
विकास मनुष्य की स्वाभाविक प्रक्रिया है, वह जीवन में उच्च से उच्च पद की आकांक्षा रखता है । प्रत्येक व्यक्ति को उच्च पद प्राप्त करने के समान अवसर प्राप्त होने चाहिए । पदोन्नति के अभाव में उसके जीवन में कभी भी नवीनता का प्रभाव उदित नहीं होता ।
कई संगठनों में उच्च पद कम होते हैं और कहीं सिफारिश या पक्षपात के कारण उच्च पद कुछ एक अयोग्य व्यक्तियों को प्राप्त हो जाते हैं । ऐसी बाते निराशाजनक तथा विस्फोटक स्थिति को जन्म देती हैं ।
(4) मान्यता (Recognition):
प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि उसके गुण, योग्यता तथा व्यक्तित्व की विशेषताओं को लोग जानें, मानें और उसकी प्रशंसा करें । प्रसिद्धि की आकांक्षा तो बड़ी से बड़ी आत्मा की कमजोरी होती है ।
(5) सुयोग्य, न्यायप्रिय, निष्कपट तथा उदार नेतृत्व (Just, Competent and Liberal Leadership):
नेतृत्व प्रेरणा का स्रोत है । अच्छा नेतृत्च संगठन को स्वर्ग बना देता है और बुरा नेतृत्व सारे संगठन को नरक-कुण्ड योग्य बना देता है । न्यायप्रिय नेतृत्व सुव्यवस्थित और शान्त व्यवस्था का सृजन करता है, जिसमें कर्मचारी आस्था और विश्वास रखते हैं ।
(6) न्याय (Justice):
कर्मचारियों में इस प्रकार का विश्वास होना चाहिए कि संगठन में सभी स्तरों पर उनके साथ न्याय होगा । उनका यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि प्रबन्धक उनके कार्य को देख रहे हैं और उनका सही मूल्यांकन कर रहे हैं और उपयुक्त अवसर आने पर वे उनके साथ न्याय करेंगे ।
(7) प्रतिष्ठा (Status):
प्रत्येक व्यक्ति आत्म-सम्मान चाहता है । समानता और स्वतन्त्रता प्रत्येक व्यक्ति की एक अनुपम धरोहर है । समानता और स्वतन्त्रता की आकांक्षा प्रतिष्ठा की इच्छा को जन्म देती है । सम्पूर्ण समाज ऊँच-नीच वर्ग में विभक्त है । समाज के समस्त व्यक्ति प्रतिष्ठा-चैतन्य (Prestige Conscious) हैं ।
धन, पद, बुद्धिमत्ता, सामाजिकता, सच्चाई, ईमानदारी तथा भलाई के कार्यों से प्रतिष्ठा बनती है । अच्छा धन, अच्छे वेतन से प्राप्त होता है । अच्छा वेतन और ऊँचा पद समाज में प्रतिष्ठा का स्थान दिलाने में सहायक होता है ।
(8) भय का अभाव (Absence of Fear):
मनुष्य भय से भी कार्य करता है, परन्तु भय की स्थिति में वह ऊपर से ही कार्य करता नजर आता है । काम में उसका मन नहीं होता है । उन्मुक्त वातावरण में मन से कार्य किया जाता है ।
(9) कार्य का विस्तार (Job Enlargement):
एक कार्य पर काम करने वाले व्यक्ति के कार्य-क्षेत्र में वृद्धि की जा सकती है ।
(10) कार्य को सम्पन्न बना कर (Job Enrichment):
कार्य के अधिकार, दायित्व और निर्णय लेने की शक्ति में वृद्धि की जा सकती है ।
(11) कार्य सन्तुष्टि (Job Satisfaction):
कार्य शक्ति को प्रवृत्तियों, शिक्षा, प्रशिक्षण तथा रुचि के अनुरूप होना चाहिए तथा उसे उनकी योग्यता की तुलना में थोड़ा उच्च स्थान प्राप्त होना चाहिए । इससे व्यक्ति को कार्य सन्तुष्टि का अनुभव होता है ।
(12) आत्म-सन्तुष्टि (Self-Actualization or Ego Satisfaction):
समस्त कार्यों का सार यह है कि उसके द्वारा अन्ततोगत्वा मनुष्य को आत्मिक सन्तुष्टि का अनुभव होना चाहिए जिसे संस्कृत में “स्वान्त: सुखाय” कहा गया है । धन, यश प्रतिष्ठा की प्राप्ति व्यक्ति इस प्रकार आत्मिक सन्तुष्टि के लिए ही तो करते हैं । प्रत्येक मनुष्य अपने अहं के विकास के लिए सप्रयास प्रयत्नशील है, वह इस ओर निरन्तर प्रयास कर रहा है ।
उसकी अहं की तुष्टि दो तरीकों से सम्भव है:
(i) प्रबन्ध में सहभागिता (Participation in Management):
इसके द्वारा मनुष्य का अहं शान्त तथा तुष्ट होता है । इसमें संचार (Communication) का बड़ा महत्व है । प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि उसे संगठन में सभी बातें ज्ञात हों और उसके परामर्श तथा सक्रियता के द्वारा संगठन का कार्य चले ।
(ii) सृजनात्मकता (Creativity):
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक तथा उसकी स्मृति को स्थायी बनाना चाहता है, अत: वह कुछ न कुछ ऐसा कार्य करना चाहता है जो सृजनात्मक हो, रचनात्मक हो और जिस पर उसकी कलाकृति और व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप हो ।