Read this article in Hindi to learn about the approaches to industrial relations.
Approach # 1. औद्योगिक सम्बन्धों की मनोवैज्ञानिक विचारधारा (Psychological Approach to Industrial Relations):
मनोवैज्ञानिकों का ऐसा विचार है कि औद्योगिक सम्बन्धों की समस्या फोकल सहभागियों के नजरिये तथा रुझान को व्यापक रूप से प्रभावित करती है । उसके व्यवहार पर व्यक्ति के नजरिये का प्रभाव मेसन हेक द्वारा भली प्रकार देखा गया । उन्होंने Thematic Appreciation Test के मध्य से ‘Union Leaders’ तथा ‘Executives’ का अलग-अलग ग्रुपों के व्यवहारों का अध्ययन किया ।
परीक्षण के लिए एक साधारण मध्यम आयु के व्यक्ति का फोटोग्राफ एक इनपुट के रूप में काम करता है, जिसकी दोनों ही ग्रुपों ने से रेटिंग की आशा की जाती है । उल्लेखनीय है कि दोनों ही ग्रुपों ने फोटोग्राफ की अलग तरीकों से रेटिंग्स की अर्थात यूनियन लीडर्स ने फोटो के व्यक्ति को Manager के रूप में देखा जबकि प्रशासकों के ग्रुप ने फोटो में व्यक्ति को Union Leader के रूप में देखा ।
Approach # 2. औद्योगिक सम्बन्धों की सामाजिक विचारधारा (Sociological Approach to Industrial Relations):
उद्योग एक सामाजिक दुनिया का लघु स्वरूप है । वास्तव में अलग-अलग व्यक्तित्व वाले विभिन्न व्यक्तियों तथा ग्रुपों से बना एक समाज होता है जिनमें शैक्षणिक पृष्ठभूमि, पारिवारिक लालन-पालन, मनोभाव, पसन्दगियां तथा नापसन्दगियाँ व अन्य व्यक्तिगत घटकों का अल-अलग प्रभाव होता ।
व्यक्तिगत रुझानों तथा व्यवहार में ये अनार एक औद्योगिक समान के सदस्यों के बीच टकराव तथा प्रतिस्पर्द्धा की समस्याएँ उत्पन्न करता है । युगों से औद्योगिक सम्बन्धों की समस्याएँ मजदूरी, रोजगार परिस्थितियाँ तथा कल्याण से सम्बन्धित एक मौलिक समस्या के रूप में देखी जाती हैं ।
लेकिन वास्तव में समस्या के सामाजिक पहलू किन्हीं अन्य पहलुओं की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होते हैं । यह व्यापक तौर पर विभिन्न सामाजिक घटकों का समावेश करता है, जैसे मूल्य-तंत्र, रीति-रिवाज, संकेत चिहन, प्रबन्ध व श्रम दोनों के नजरिये तथा रुझान जो विविध तरीकों से औद्योगिक सम्बन्धों को प्रभावित करते हैं ।
यद्यपि श्रमिक निर्दिष्ट औद्योगिक वातावरण में अपने कार्यों को पूरा करते हैं, उनके कार्य व्यवहार का व्यापक तौर पर उपर्युका सामाजिक घटकों के द्वारा अवलोकन करते हैं ।
साथ ही, औद्योगीकरण के सामाजिक परिणाम जैसे संगठन, सामाजिक गतिशीलता, पलायन अनेक सामाजिक बुराइयों-पारिवारिक विघटन, तनाव तथा दबाव, अस्थिरता, सामाजिक तथा व्यक्तिगत कुसंगठन (जो जुए, शराबखोरी, वैश्यावृत्ति, ड्रग लेना आदि की ओर ले जाते हैं ।) को जन्म देते हैं, श्रमिकों की कार्यक्षमता तथा उत्पादकता को प्रभावित करते हुए उद्योग के औद्योगिक सम्बन्धों की तंत्र को प्रभावित करते है ।
वास्तव में जैसे-जैसे औद्योगीकरण जोर पकड़ता है, नये औद्योगिक-सामाजिक पैटर्न का एक नया समुच्चय उभरता है, तथा उसकी पृष्ठभूमियाँ नये सम्बन्ध, संस्थान, व्यावहारिक पैटर्न तथा मानवीय संसाधनों के हस्थन की तकनीक में विकसित होती हैं । ये प्रभाव किसी-न-किसी तरीके से औद्योगिक सम्बन्धों को आकार देते हैं ।
औद्योगिक सम्बन्धों की समीक्षा में सामाजिक परिवर्तनों की भूमिका को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह समान रूप से प्रबन्ध तथा श्रमिक दोनों को प्रभावित करता है, जो इस बात से स्पष्ट होता है कि आज का प्रबन्ध अत्यधिक पेशेवर हो गया है, उपक्रम के मानवीय पक्ष से निपटने में व्यवहार तकनीकों के प्रयोग पर और अधिक बल रहता है ।
निर्णयन आज अत्यधिक प्रजातांत्रिक हो चला है, अधिसत्ता शक्ति तथा नियंत्रण के बारे में विचारों में आमृलचूल बदलाव आया है । औद्योगिक श्रमिक का नजरिया भी बदला है, घुमक्कड़ बने रहने के स्थान पर अब वह औद्योगिक केन्द्रों में स्थिर सा होता जा रहा है ।
इस पृष्ठभूमि में National Commission Labour ने ठीक ही कहा है कि अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में अपने नजरिये तथा रुचि में श्रमिक आज अधिक शहरी बन गया है । वह अब अनिपुण नहीं रहा है या उसे समाज द्वारा तिरस्कृत नहीं किया जा सकता है । एक कल्याणकारी समाज द्वारा प्रस्तावित लाभों में उसकी भागीदारी होती है तथा उसका एक नया व्यक्तित्व उजागर हुआ है ।
एक बार जैसे ही उसे रोजगार मिलता है वह अपने को सुरक्षित अनुभव करता है । वर्किग श्रेणी के औद्योगिक संस्कृतिकरण की एक प्रक्रिया जड़ जमा चुकी है । आज सामाजिक गतिशीलता एक मिश्रित औद्योगिक श्रम-शक्ति के अभ्युदय के लिए उत्तरदायी है ।
राज्य तथा राजनीतिक दलों की भूमिका को इन परिवर्तनों की पृष्ठभूमि में पुन: परिभाषित किया गया है । इन सभी जटिल परिवर्तनों ने औद्योगिक सम्बन्धों को व्यापक रूप से प्रभावित किया है, जो अब एक वैधानिक आयाम से व्यावसायिक आयाम तक ऊपर उठ चुका है, एक वैचारिक तथा दार्शनिक आहगर से एक अधिक प्रगतिशील आधार तक उठा है ।
साथ ही सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तनों के साथ साधनों तथा विपन्नों की विचारधारा तेजी से मिट रही है, तथा औद्योगिक सम्बन्ध अब प्राथमिक: पॉवर द्वारा निर्धारित किये जाते हैं । टकराव तथा सहयोग को अब अन्त: सम्बद्ध तन्त्र व्यवस्था के रूप में देखा जा जाता है ।
सामाजिक रूप में परिवर्तन की प्रक्रिया में, औद्योगिक सम्बन्ध और अधिक जटिल हो रहे हैं, जो आगे समय बीतने के साथ-साथ और जटिल होते जा रहे हैं । अत: तत्र के गतिविज्ञान से निपटने के लिए सूक्ष्म तथा व्यापक दोनों ही स्तरों पर ऐसे घटकों के गहन अवलोकन की माँग करते हैं ।
Approach # 3. औद्योगिक सम्बन्धों के प्रति मानवीय सम्बन्ध विचारधारा (Human Relations Approach to Industrial Relations):
सम्भवत: प्रबन्ध के सभी क्षेत्रों में मानव संसाधन प्रबन्ध सर्वाधिक संवेदनशील तथा उलझने वाला एक क्षेत्र है । उनका हस्थन विशिष्टत: भौतिक शारीरिक तथा वित्तीय संसाधनों के हस्थन से भिन्न होता है, क्योंकि ये निष्क्रिय या गैर-मानवीय साधन होते हैं वरन् अपने निजी मनोभावों, नजरियों, रुझानों, व्यक्तित्व आदि को रख रहे भिन्न-भिन्न इन्सानों से बने होते हैं ।
ये लक्षण उनको जटिल व्यक्ति बनाते हैं, तथा जब वे एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं, या तो व्यक्तिगत तौर पर या गुप्तों में उनकी जटिलता आगे बढ़ती जाती है । अत: जब ऐसे संसाधनों का उचित प्रबन्ध नहीं किया जाता तो औद्योगिक सम्बन्धों की समस्या सामने आती है जिसको व्यक्तिगत तथा युप दानों ही स्तरों पर मानवीय व्यवहार के गतिविज्ञान को आत्मसात करके ही प्रबन्धित किया जा सकता है ।
चूंकि काम पर लोगों का प्रबन्ध मानव ससाधन विशेषज्ञों का ही एकमात्र अधिकार क्षेत्र होता हैं । विभिन्न मानव संसाधान प्रबन्ध नीतियाँ, जिनमें शामिल हैं नेतृत्च तथा अभिप्रेरणा से सम्बन्धित नीतियाँ, जिनका उनके कार्य व्यवहार पर भारी प्रभाव होता है । निश्चय ही नेतृत्व की प्रत्येक शैली लोगों से विशिष्ट प्रत्युत्तर को उजागर करती है ।
उदाहरण के लिए, तानाशाही शैली का प्रयोग कर रहा एक प्रबन्धक एक गहन अधीक्षण प्रणाली की अभिकल्पना करता है, तथा महसूस करता है कि अधिसत्ता का प्रदर्शन लोगों को काम करने के लिए अभिप्रेरित करेगा ।
लेकिन यह शैली लोगों में असंतोष तथा घृणा को जन्म देती है, जबकि प्रजातांत्रिक शैली के साथ वांछित संगठनात्मक व्यवहार विकसित किया जा सकता है, यदि कर्मचारियों की आवश्यकताओं तथा चाहतों को उचित तौर पर संतुष्ट कर लिया जाता है ।
ऐसी एक शैली के साथ काम कर रहा एक प्रबन्धक सकारात्मक तौर पर लोगों को अभिप्रेरित करता है । वास्तव में, कोई भी शैली अच्छी या बुरी नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक परिस्थिति मानव संसाधन विशेषज्ञ की ओर से विशिष्ट नेतृत्व व्यवहार की माँग करती हैं ।
सभी विवादों में व्यक्तियों की असंतुष्ट आवश्यकताएँ एक अन्य महत्वपूर्ण बात रहती है । अत: आमतौर पर अच्छेमानवीय सम्बन्धोंके अनुरक्षण हेतु तथा विशेषत: औद्योगिक सम्बन्धों के रख-रखाव हेतु मानवीय आवश्यकताओं का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है ।
व्यापक तौर पर, मालिक आवश्यकताओं के चार प्रकार होते हैं, यथा शारीरिक सुरक्षा, सामाजिक तथा स्वाभिमान आवश्यकताएँ । शारीरिक आवश्यकताएँ ऐसी जन्मजात आवश्यकताएँ हैं, जिनमें खाने, पीने, कपड़े, निवास, आदि की आवश्यकताएँ शामिल हैं ।
ये आवश्यकताएँ इन्सान के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण होती हैं, तथा एक विशिष्ट स्तर पर उसकी कार्यक्षमता के अनुरक्षण हेतु जरूरी हैं ।
सुरक्षा तथा प्रतिरक्षा आवश्यकताएँ ऐसी किसी भी खतरे के पलायन का संदर्भ लेती हैं जो मौलिक सुरक्षा वित्तीय सुरक्षा तथा कार्य सुरक्षा सहित किसी के जीवन में आती हैं । सामाजिक आवश्यकताएँ व्यापक तौर पर प्राप्त की जाती हैं, तथा किसी के समाजीकरण (Socialization) का परिणाम होती हैं । ये आवश्यकताएँ हैं, मित्रवत् होने सम्बद्ध होने तथा आत्मीयता की आवश्यकताएँ ।
स्वाभिमान की आवश्यकताएँ, अपेक्षाकृत उच्च कम की आवश्यकताएँ होती हैं, तथा आत्म-गौरव तथा दूसरों से सम्मान प्राप्ति की अभिव्यक्ति करती है । सामान्यत: यह विश्वास किया जाता है कि आवश्यकताएँ अन्त: निर्भर तथा पुनराघृतक होती हैं । प्रत्येक उच्च क्रम की आवश्यकता केवल तभी उत्पन्न होती हैं, जब निचले स्तर की आवश्यकताएँ संतुष्ट हो जाती हैं ।
लेकिन सभी मामलों में आवश्यकताएँ अनिवार्यत: एक स्थिर पैटर्न का पालन नहीं करतीं क्योंकि मानव व्यवहार बहुआयामी तथा बहुरंगी होता है । अत: प्रबन्ध के लिए यह आवश्यक है कि अपनी अनुकूलतम आवश्यकता संतुष्टि के लिए वातावरण की व्यवस्था हेतु एक उपयुक्त अभिप्रेरणात्मक रणनीति की अभिकल्पना करे जो संगठन में अच्छे मानवीय सम्बन्धों के लिए आवश्यक है ।
चूंकि प्रत्येक संगठन की अपनी-अपनी आवश्यकताएँ होती हैं, परिसीमाएँ होती हैं तथा साथ ही कर्मचारियों के अपने-अपने पूर्व निर्धारित विचार, आवश्यकताएँ तथा समस्याएँ आदि होती हैं, अत: कोई विशिष्ट परीक्षण उद्योग में अच्छे औद्योगिक सम्बन्धों के अनुरक्षण हेतु नहीं किया जा सकता है ।
अब यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाने लगा है, कि प्रबन्ध तथा श्रम द्वारा बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है । यदि वे औद्योगिक सम्बन्धों के प्रति मानवीय सम्बन्धों की तकनीक को समझें तथा लागू करें । श्रमिक अपेक्षाकृत अधिक कार्य संतुष्टि पा सकते हैं, अपने काम में और अधिक सन्निहितता विकसित कर सकते हैं, तथा संगठन के उद्देश्यों के साथ अपने उद्देश्यों की पहचान का एक तरीका प्राप्त कर सकते हैं ।
अपनी ओर से प्रबन्धक अपने काम में और अधिक सूझबूझ तथा प्रभावोत्पादकता विकसित कर पायेगा यह सही ही कहा गया है कि, “भविष्य की औद्योगिक प्रगति अन्तत: इस बात पर निर्भर करेगी कि किस हद तक उद्योग अधिकतम वेतन वाले अधिकारियों तथा निम्नतम मजदूरी पाने वाले उत्पादन श्रमिक के बीच पारस्परिक उत्तरदायित्व की समरसता की स्थापना हेतु आगे जाने का इच्छुक है ।
इस मानव सम्बन्ध के मुख्य उद्देश्यों में एक अत्यधिक-अपेक्षित एकीकरण होना चाहिए ।
Approach # 4. औद्योगिक सम्बन्धों के प्रति सामाजिकनैतिक विचारधारा (Socio-Ethical Approach to Industrial Relations):
औद्योगिक सम्बन्धों के प्रति सामाजिक-नैतिक विचारधारा शैक्षणिक तौर पर अत्यधिक चर्चित विचारधाराओं में से एक है । इस विचारधारा की मान्यता है, कि औद्योगिक सम्बन्ध एक सामाजिक आधार रखने के साथ-साथ नैतिक आयाम भी रखते हैं ।
अच्छे औद्योगिक सम्बन्धों को केवल तभी बनाये रखा जा सकता है, जब प्रबन्ध तथा श्रम दोनों ही एक-दूसरे की समस्याओं की अधिकतम समझ तथा पारस्परिक सहयोग और नैतिक दायित्वों को महसूस करें । इस संद भ में भारत के National Commission on Labour की ओर से एकत्रिप क्षीय अध्ययन ग्रुप ने प्रबन्ध-श्रम सम्बन्धों के सामाजिक पहलू का अध्ययन किया ।
इस ग्रुप ने देखा कि श्रम-प्रबन्ध सश्वना सामाजिक, आर्थिक तथा समाज की राजनीतिक संरचनाओं में विद्यमान रहते हैं । अत: उनके सर्वांगीण संस्थागत तथा वैचारिक उद्देश्यों के सम्बन्ध में प्रजातांत्रिक समाजवाद तथा आर्थिक विकास के परीक्षण की आवश्यकता है ।
अध्ययन युप ने देखा कि ”श्रम-प्रबन्ध सम्बन्धों का उद्देश्य अधिकतम उत्पादकता के रूप में व्यक्त किया जाना चाहिए, जो तीव्र आर्थिक विकास की ओर ले जाये ।
कर्मचारियों सेवायोजकों तथा सरकार की उद्योग में एकदूसरे की भूमिका के लिए पर्याप्त समझ पैदा हो, उद्योग के लिए वचनबद्धता तथा प्रबन्ध की ओर से जीवन का औद्योगिक तरीका और साथ ही मजबूत संघवाद (Unionism), प्रभावी संस्थागत तंत्र व्यवस्थाएँ जो औद्योगिक विवादों को संभाल सके ।
(i) उद्योग में श्रम-प्रबन्ध सम्बन्धों का एक महत्वपूर्ण पहलू है: वह मात्रा जिस तक प्रबन्ध तथा श्रम जीवन के तरीके तथा आधुनिक प्रौद्योगिकी के मूल्य तंत्र को स्वीकार करते हैं । औद्योगिक सम्बन्धों के निदेशक को अपनी कम्पनी के लिए एक आचरण संहिता तथा सामान्यत: औद्योगिक सम्बन्धों के लिए ‘एक प्रबन्ध दर्शन’ एवं विशेषत: प्रबन्ध सम्बन्ध हेतु एक संहिता विकसित करनी चाहिए जो दृढ किन्तु उचि, मजबूत किन्तु उदार तथा कठोर किन्तु मानवीय रहने के परीक्षण पर खरी उतरे ।
(ii) श्रम द्वारा प्रबन्ध समस्याओं की एक अच्छी समझ प्रबन्ध के प्रस्तावित समाधानों की कर्मचारी स्वीकृति की ओर ले जा सकती है । ऐसा केवल तभी सम्भव है जब संचार तथा शिक्षण कार्यक्रमों को उद्योग में विकसित किया जाए तथा उनकी आवश्यक परिसीमाओं की सावधानी के साथ उपयोग किया जा सके ।
(iii) जहाँ श्रम तथा उनके सेवायोजक एक से सांस्कृतिक क्षेत्र, राज्य या परिवेश से सम्बन्ध रखते हैं, तो एक ऐसी परिस्थिति के विपरीत उद्देश्यों तथा साधनों के साथ पारस्परिक समझ तथा अधिक समझौते हो पाते हैं, जब उनकी विभिन्न सांस्कृतिक ग्रुपों या क्षेत्रो में भर्ती की जाती है । जब भर्ती की आधुनिक प्रबन्धकीय तकनीकों को सेवायोजकों द्वारा अपनाया जाता है तो प्रबन्ध तथा श्रम के बीच संकीर्ण सांस्कृतिक अन्तर अधिक मायने नहीं रखते ।
(iv) श्रमिकों तथा सेवायोजकों के बीच एकता तथा सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्धों की अभिप्राप्ति तथा अनुरक्षण हेतु तरीकों को विकसित करने के लिए अभिकल्पित Works Committee को सफलता नहीं मिली है, क्योंकि उन्होंने कोई उपादेय भूमिका नहीं निभाई है । विरोधी तथा बहुआयामी यूनियनों का अंधाधुंध विकास, ट्रेडयूनियनों द्वारा समिति की सदस्यता के बार-बार नामांकन तथा अपनी अपेक्षित गतिविधियों से Work Committee का पलायन इन समितियों की स्थिरता को विपरीत तौर से प्रभावित कर चुके हैं ।
(v) यधपि संयुक्त प्रबन्ध परिषद् या संयुक्त परामर्शदात्री प्रणाली विकसित की जा चुकी है, तथापि इसके कार्य बहुधा उत्पादन सुर क्षा तथा कल्याण पर समितियों के कार्यों की पुनरावृत्ति मात्र हैं । परामर्शदात्री तथा सहभागिता प्रबन्ध को कम ही सफलता मिली है । औद्योगिक प्रजातंत्र में कोई भी प्रयोग स्थिर प्रबन्-श्रम सम्बन्धों तथा मजबूत श्रम संघवाद की मान्यता लेकर चलता है ।
(vi) प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी के आदर्श का क्रियान्वयन चुनौतीपूर्ण है । श्रम तथा प्रबन्ध को अपने पारस्परिक हित में संयुक्त विचार विनियम हेतु चाह को अनुभव करना चाहिये । पक्षकार हो सकता है बाहरी संस्थाओं से किसी प्रत्य क्ष या अप्रत्यक्ष विवशता का विरोध कर सकते हैं जैसे सरकार । संयुक्त परामर्श द्वारा की गई निराशाजनक प्रगति अपनी असफलता के लिए व्यापक तर्क प्रस्तुत करती है ।
National Commission on Labour को अपनी रिपोर्ट में Study Group on Management Problems Sector Enterprises ने बताया, ” यह समय का तकाजा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के औद्योगिक उद्यमों में श्रमिकों का दर्जा सरकारी कर्मचारियों के दर्जे के साथसाथ स्पष्टत: परिभाषित किया जाये ताकि प्रबन्ध तथा श्रमिक दोनों ही समझौतों के एक स्पष्ट आहगर पर हों ।”
ग्रुप ने सुझाव दिया कि सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में श्रम-प्रबन्ध समझौतों में अपने हस्तक्षेप को सीमित करना चाहिये ऐसे व्यापक सिद्धान्तों की व्यवस्था करके जिनके भीतर प्रबन्ध अपनी ही आरे से श्रम शक्ति के साथ समझौते कर सकता है ।
इस उद्देश्यार्थ निम्न सन्दर्भ में निम्न लिखी गई गाइड लाइन्स की सुझाई गई हैं:
(i) वह मात्रा जिस तक भुगतान करने की क्षमता को आवश्यकता आध्यारित मजदूरी के भुगतान के प्रति अधीनस्थ बनाया जाना चाहिये ।
(ii) वह मात्रा जिस तक व्यवसाय में पुन: निवेश हेतु रोकी गई आयो का त्याग किया जा सकता है ।
(iii) वह मात्रा जिस तक लाभांशों को नीचा किया जा सकता है, या प्रबन्ध मजदूर माँगों की पूर्ति हेतु हानियों को बढ़ाया जा सकता हैं; तथा
(iv) वह मात्रा जिस तक ऐसी अतिरिक्त लागतों को उत्पादों के बड़े मूल्यों के रूप में उपभोक्ताओं पर डाला जा सकता है ।
अध्ययन दल ने आगे बताया कि, ” यह सुनिश्चित करने के लिए सावधानी बरती जानी चाहिये कि एकाधिकारी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को प्रदत्त प्रोत्साहन अधिक मजदूरी के कार्य करने की ओर प्रवृत्त नहीं होते ।” अध्ययन दल की राय में, ”प्रोत्साहन आये केवल बड़ी हुई उत्पादकता से उत्पन्न होनी चाहिये । इसने आगे घोषित किया कि” सभी केन्द्रीय सरकारी संस्थाओं के लिए एक समान Statutory Standing Orders के बनाये जाने की आवश्यकता है ।”
इसने ऐसा भी सुझाव दिया कि सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों में कर्मचारियों के आचरण तथा अनुशासन का नियंत्रण करने वाली स्थायी नियमों की रचना की जानी चाहिये । इसने औद्योगिक सम्बन्धों में न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता पर भी बल दिया ।
भूतपूर्व राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने विवादों के निपटान हेतु सेवायोजकों तथा कर्मचारियों के बीच सामूहिक सौदाकारी तथा पारस्परिक समझौतों पर बल दिया था । उनका मुख्य जोर रहा है, ”अनिवार्य पंचनामे के माध्यम के अतिरिक्त स्वैच्छिक पंचनिर्णय के माध्यम से अपने अन्तरों के समापन हेतु प्रबन्ध तथा श्रम संघों के स्वैच्छिक प्रयास” |
उन्होंने अवलोकन किया ”प्रत्येक उद्योग में तथा उद्योग की प्रत्येक यूनिट में एक द्विपक्षीय तंत्र व्यवस्था होनी चाहिए जो सरकार के सक्रिय प्रोत्साहन के साथ समय-समय विवादों को निपटाये । बाहरी हस्तक्षेप औद्योगिक शान्ति पर अतिक्रमण न करने पाये ।” उनकी राय में, औद्योगिक शान्ति को सामूहिक सौदाकारी की तंत्र व्यवस्था के माध्यम से प्राप्त किया जाना होता है ।
गिरि ने घोषित किया ”अनिवार्य न्यायीकरण ने श्रम संघ संगठन की जड़ पर प्रहार किया है, यदि कर्मचारी देखते हैं, कि उनके हितों को केवल उन्हीं के द्वारा सर्वोत्तम तौर पर विकसित किया जा सकता है । लेकिन अनिवार्य पंचनिर्णय इसको देखता है, कि ऐसा एक बॉण्ड जाली नहीं हो ।
यह वहाँ एक पुलिसमैन की भूमिका निभाता है, जो असंतुष्टि के चिह्नों को देख रहा होता है, तथा हल्के से भड़काव पर पक्षकारों को न्यायालय तक जाने के लिए बाध्य कर देता है जहाँ उनको महँगी तथा पूर्णत: संतोषजनक न होने वाले न्याय की खुराक पिलाई जाती है ।
जिस क्षण इस पुलिस मैन की पीठ मुडती है, पक्षकार दोहरे निश्चय के साथ फिर आमने-सामने भिड़ लेते हैं, तथा मुकदमेबाजी की सारी प्रक्रिया फिर से दोहरा दी जाती है । यदि ट्रेड यूनियनों को दृढ़ तथा आत्म-विश्वस्त बनने दें तथा बिना इस पुलिसमैन की सहायता के कुछ पाना सीखने दें ।
तब ही वे जान पायेंगे कि कैसे स्वयं को सगठित करें तथा वे सब पा सकेंगे जो अपनी निजी ताकत तथा संसाधनों के माध्यम से पाना चाहते हैं । यह अधिक आत्म-सम्मान पाने के साधन की भी भूमिका निभायेगा ।
यह हो सकता है कि जब तक पक्षकार सामूहिक सौदाकारी की तकनीकों को न समझ चुके हों शक्ति की कुछ अनावश्यक ट्रेल्स होती हैं, लेकिन किसने पानी की कुछ घूँटों को पीना सीखें बिना तैरना सीखने वाले आदमी के बारे में सुना है ? यह विचार ठीक उस विचारधारा को प्रकट करता है, जिसे औद्योगिक शान्ति की अभिप्राप्ति के प्रति ‘Girls Approach’ के रूप में जाना जाता है ।
प्रबन्धकीय समस्याओं के प्रति यह विचारधारा विवादों के पारस्परिक निपटारे, सामूहिक सौदाकारी तथा स्वैच्छिक पंचनिर्णय को प्रोत्साहित करती है, न कि अनिवार्य न्यायीकरण को ।
Approach # 5. औद्योगिक सम्बन्धों की गाँधीजी की विचारधारा (Gandhian Approach to Industrial Relations):
औद्योगिक सम्बन्धों पर गाँधी जी के विचार सत्य तथा अहिंसा, असहयोग तथा ट्रस्टीशिप (Trusteeship) के उनके आधारभूत सिद्धान्तों पर आधारित हैं, जिन पर औद्योगिक सम्बन्धों का उनका दर्शन आश्रित है ।
यह दर्शन प्रबन्ध तथा पूँजी के शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व की मान्यता लेता है, जो अहिंसा अहसयोग (अर्थात् सत्याग्रह) के माध्यम से विवादों के निदान हेतु माँग करता है, जो वास्तव में शान्तिपूर्ण हड़तालों के समतुल्य हो जाता है ।
गाँधी जी ने हड़ताल के श्रमिकों के अधिकारों को स्वीकार किया लेकिन उल्लेख किया कि इस अधिकार का एक न्यायिक उद्देश्य के लिए उपयोग किया जाना चाहिये तथा वह एक शान्तिपूर्ण तथा अहिंसक तरीके से तथा इसका सहारा केवल तभी लिया जाना चाहिये जब उनकी नैतिक स्वार्थ अपीलो को प्रति प्रत्युत्तर पाने के (सेवायोजको से) सभी प्रयास फेल हो जायें ।
ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त स्पष्ट करता है, कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था को एक कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में बदला जा सकता है । यह उनके अपने कल्याण के लिए समाज द्वारा स्वीकृत सीमा तक होने के अन्यथा सम्पत्ति के अधिकार की मान्यता नहीं लेता ।
व्यक्तियों को समाज के हितों की अनदेखी करके धन के उपयोग तथा संचय का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए, उत्पादन का लक्ष्य व्यक्तिगत स्वार्थ या लालच के अन्यथा सामाजिक आवश्यकता द्वारा निर्धारित किया जाना होता है ।
उद्योगपतियों से समाज के लिए प्रन्यास में उद्योग चलाने की आशा की जाती है । सेवायोजकों श्रमिकों से आशा की जाती है, कि वे सहप्रन्यासियों की भूमिका (Co-Trustees) निभायेंगे ।
ट्रस्टीशिप की विचारधारा से स्पष्ट होता है, कि पूँजीपति तथा श्रमिकों के बीच हितों के टकराव के लिए कोई स्थान नहीं होता । यद्यपि धन सम्पदा कानूनी तौर पर उसके मालिक से सम्बन्ध रखती है, लेकिन नैतिक दृष्टि से यह समाज की ही धरोहर है, यदि पूँजीपति श्रमिकों को न्यूनतम जीवनयापन मजदूरी देने में असफल रहते हैं, तो श्रमिकों को सेवायोजकों की आत्मा को झकझोरना चाहिये ।
यदि यह काम नहीं करता तो उनको अहिंसा एवं असहयोग का रास्ता अपनाना चाहिये । इसकी एक पूर्व शर्त के तौर पर श्रमिकों से दो बातों की आशा की जाती है: एक है जनजागृति तथा दूसरी है, एकता ।
श्रमिकों के बीच जागरण द्वारा गाँधी जी उनकी नैतिक शक्ति में विश्वास तथा भरोसा विकसित तथा पल्लवित करने की भावना रखते थे तथा इसकी विद्यमानता के प्रति चेतन्य बनाना चाहते थे जिसका अर्थ हुआ कि श्रमिकों को यह बात महसूस करनी चाहिये कि उनके सहयोग के बिना पूँजीपति आगे नहीं बढ़ सकते हैं, तथा श्रमिकों को असहयोग का सहारा लेना पड़ सकता है, ताकि पूँजीपतियों द्वारा उनका शोषण पर रोक लग सके ।
गाँधीजी का विचार था कि विवादों के शीघ्र निपटारे के लिए निम्न नियमों को देखा जाना होगा:
(a) श्रमिकों को केवल सामूहिक कार्यवाही के ही माध्यम से उचित माँगों के समाधान का प्रयास करना चाहिये ।
(b) यदि उनको एक हड़ताल संगठित करनी होती है, तो ट्रेड यूनियनों को मतदान का सहारा लेना चाहिये; सभी श्रमिकों से ऐसा करने का अधिकार मिलना चाहिये, शान्ति हर हाल में बनी रहे तथा अहिंसक तरीकों का ही प्रयोग किया जाये ।
(c) श्रमिकों को अनिवार्य सेवाओं वाले उद्योगों में जहाँ तक सम्भव हो हडताली से बचना चाहिये ।
(d) श्रमिको को पुण्यार्थ तथा धार्मिक संगठनो में यूनियन बनाने से बचना चाहिये । जहाँ तक सम्भव हो श्रमिकों को स्वैच्छिक पंचनिर्णय का सहारा लेना चाहिये जहाँ प्रत्यक्ष निपटारे के प्रयास सफल हो जायें ।
(e) हड़ताल को केवल एक अन्तिम हथियार के रूप में अपनाया जाना चाहिये जब सभी उपयुक्त उपाय असफल हो जायें ।