Read this article in Hindi to learn about the machinery for prevention of industrial disputes among workers in industries.
Machinery # 1. कार्य समितियाँ (Work Committees):
कार्य समितियाँ श्रमिकों तथा नियोक्ताओं के मध्य सामान्य हितकारी विचारविमर्श करने वाली समितियाँ होती हैं । इन समितियों में दोनों पक्षों के प्रतिनिधि होते हैं । ये प्रतिनिधि मिलकर विभिन्न समस्याओं, जैसे उत्पादन, श्रम उपयोग, माल एवं मशीन का उचित उपयोग, व्यापारिक तथा वित्तीय संस्थाओं पर विचार करते हैं ।
किन्तु सामान्यत: इन समितियों में औद्योगिक विवाद, विभिन्न परिवादों, अनुशासन कल्याण, स्वास्थ्य, सुरक्षा, प्रशिक्षण, शिक्षा एवं अन्य सेविवर्गीय समस्याओं सम्बन्धी मामलों पर विचार विमर्श होता है ।
पूर्व दिशाएँ (Pre-Requisites):
कार्य समितियों की स्थापना से पूर्व ये दशाएँ उपलब्ध होनी चाहिए:
(1) नियोक्ता एवं कर्मचारी आपस में सहयोग करने के इच्छुक होने चाहिए,
(2) कार्य समिति के उद्देश्य स्पष्ट होने चाहिए,
(3) श्रम संघ सशक्त होने चाहिए,
(4) कार्य समितियों का गठन ऐच्छिक तौर पर किया जाना चाहिए ।
इन्हें ऊपर से थोपना उचित नहीं होता जब तक कारखानों का वातावरण शान्तिमय और भाईचारे का न हो तब तक ऐसी समितियाँ केवल औपचारिक बैठक मात्र बनकर रह जाती हैं । श्रमिक प्रतिनिधि प्राय: यह शिकयतें करते रहते हैं, कि उनके विचारों पर ध्यान नहीं दिया जाता ।
कई बार गर्मा-गर्म बहस के कारण वातावरण और अधिक बिगड़ जाता है, तथा मनमुटाव बढ़ जाता है । ऐसी स्थिति में कार्य समितियाँ नहीं होना अधिक अच्छा होता है ।
कार्य समितियाँ शक्तिशाली सामाजिक संस्थाओं के रूप में मानी जा सकती हैं, जो निजी क्षेत्र में कार्यरत उद्योगों को जनहित में चलाने तथा सरकारी क्षेत्रों में कार्यरत उद्योगों के मार्गदशन हेतु लोकप्रिय सस्था के रूप में कार्य करती हैं ।
कार्य समितियों की असफलता के कारण:
भारत में कार्य समितियों की असफलता के कारण ज्ञात करना कठिन नहीं है । भारत में कार्य समितियों को सफल करने की आधारभूत दशाएँ उपलब्ध नहीं हैं । सामान्यत: नियोक्ता वर्ग में श्रमिकों से सलाह न प्राप्त करने की प्रवृत्ति पाई जाती है । कार्य समितियों का कार्य क्षेत्र अस्पष्ट है ।
औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में यह उल्लेख नहीं किया गया कि विवादों की रोकथाम के सन्दर्भ में कार्य समितियों के क्रियाकलाप क्या होंगे? इसके कारण कार्य समितियाँ उचित प्रकार से कार्य नहीं कर सकतीं ।
इन्हें प्राय: सौदेबाजी के लिए प्रयोग किया जाता है, और इन्हें एक प्रकार से श्रम संघों का प्रतिस्थापक माना जाता है । इससे श्रम संघ तथा कार्य समिति के क्षेत्रों में विवाद उत्पन्न हो जाते हैं । इस सम्मेलन में कार्य समितियों के कार्यकलापों की एक सूची बनाई गई ।
इसके अनुसार कार्य समितियाँ निम्नलिखित कार्य कर सकती हैं:
(1) कार्य की दशाएँ,
(2) सुविधाएँ,
(3) दुर्घटना निवारण एवं सुरक्षा के प्रयत्न, व्यावसायिक बीमारियों की रोकथाम के उपाय तथा रक्षात्मक प्रसाधान,
(4) अवकाश,
(5) कल्याण कोषों एवं दण्ड कोषों को समायोजित करना,
(6) शैक्षणिक एवं मनोरंजनात्मक क्रियाएँ,
(7) विवेक से कार्य एवं बचत प्रोत्साहन, तथा
(8) कार्य समिति की बैठक के समय समिति द्वारा लिए गए निर्णयों का क्रियान्वयन देखना तथा कार्य पुनरावलोकन करना |
कार्य समितियाँ निम्न कार्य नहीं कर सकतीं:
(1) मजदूरी, भत्ते, बोनस तथा लाभभागिता योजनाएँ,
(2) कार्य भार निर्धारण तथा विवेकीकरण एवं विकास के कार्यक्रम बनाना,
(3) छँटनी एवं जबरी छुट्टी,
(4) श्रमिकों को डरान-धमकाने सम्बन्धी मामले,
(5) प्रोवीडेण्ट फण्ड, ग्रेचियुटी योजना तथा अन्य सेवा-निवृत्ति लाभ योजनाएँ,
(6) अवकाश एवं छुट्टियों की संख्या निर्धारित करना,
(7) अभिप्रेरण योजनाएँ,
(8) आवास तथा परिवहन कार्य एवं योजनाएँ ।
कार्य समितियाँ पूर्णत: सलाहकारी (Consultative) हैं, तथा इनके सुझाव केवल सुझाव ही हैं, जिन्हे मानने अथवा नहीं मानने के लिए श्रमिकों या नियोक्ताओं पर किसी प्रकार का दबाव नहीं डाला जा सकता ।
परिणाम यह होता है कि कार्य समितियों के सुझावों की प्राय: नियोक्ताओं द्वारा अवहेलना की जाती है, इससे श्रमिकों की कार्य समितियों में आस्था समाप्त हो जाती है । कुछ प्रतिष्ठानों में कार्य समितियों के लिए प्रतिनिधि भेजने का कार्य श्रम संघों द्वारा किया जाता है ।
अधिकांश राज्यों में कार्य समितियों के लिए प्रतिनिधि श्रमिकों के द्वारा चयन किए जाते हैं । इससे श्रमिकों में आपसी गुटबाजी होती है । कार्य समितियों की असफलता के अन्य कारण अन्तर्संघीय वैमनस्य, श्रम संघों का विरोध तथा समितियों में श्रम संघों की आस्था घटाना है ।
कार्य समितियों के सम्बन्ध में राष्ट्रीय श्रम आयोग का सुझाव इस प्रकार हैं:
(1) कार्य समितियों का गठन उन्हीं प्रतिष्ठानों में किया जाए जहाँ मान्यता प्राप्त संघ कार्य कर रहे हों, ऐसे श्रम संघों को यह अधिकार हो कि वे कार्य समितियों के लिए अपने प्रतिनिधि भेजें,
(2) श्रम संघों तथा कार्य समितियों के कार्यों में सुनिश्चित वर्गीकरण किया जाना चाहिए जिससे कार्य समितियाँ भली भांति कार्य कर सकें ।
Machinery # 2. संयुक्त उत्पादन समितियाँ (Joint Production Committees):
कारखाना स्तर पर श्रमिक एवं प्रबन्धक के बीच सहयोग की दृष्टि से द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त ब्रिटेन और अमरीका में संयुक्त उत्पादन समितियों का गठन किया गया । इन समितियों का कार्य श्रम संघों से सम्बन्धित क्रियाओं पर विवाद करना नहीं है, अथवा ऐसे कार्यों को करना नहीं है, जो सौदेबाजी के लिए मान्यता प्राप्त संस्थाओं द्वारा किए जाते हों ।
अथवा जो कार्य स्टाफ संगठनों कारखानों स्टीवार्डो द्वारा किए जाते हों । आपसी समझौतो के आधार पर इन समितियों का आकार निर्धारित किया जाता है । सामान्यत: श्रम संघ के सदस्यों को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता है ।
भारत में अब इस प्रकार की समितियों का गठन किया जाने लगा है । कुछ ही समय पूर्व श्रमिक-प्रबन्ध सहभागिता की ओर भारत सरकार का ध्यान आकर्षित हुआ है । औद्योगिक सन्धि प्रस्ताव (Industrial truce resolution) के अन्तर्गत 1948 को घोषित औद्योगिक नीति के अन्तर्गत संयुक्त उत्पादन समितियों के महत्व पर बल दिया गया ।
Machinery # 3. लाभभागिता एवं सहभागिता (Profit Sharing and Co-Partnership):
लाभ- भागिता प्रणाली में नियोक्ता अपने लाभ में से कुछ हिस्सा मजदूरों को उनकी सामान्य मजदूरी के अतिरिक्त देता है । यह लाभ का हिस्सा सामान्यत: श्रमिकों एवं नियोक्ता के मध्य हुए समझौते पर आधारित होता है, अत: यह बोनस से पृथक् होता है ।
बोनस भुगतान यद्यपि लाभ में से ही किया जाता है, किन्तु इसका निर्धारण नियोक्ता की इच्छा पर निर्भर करता है । इसके लिए श्रमिकों से किसी प्रकार का समझौता नहीं किया जाता । सहभागिता (Co-Partnership) का उद्देश्य भी लाभभागिता को समान ही है, किन्तु उससे यह योजना एक चरण आगे है ।
लाभभागिता के अन्तर्गत श्रमिकों की सलाह नहीं ली जाती, किन्तु सहभागिता में श्रमिकों की सलाह ली जाती है तथा विभिन्न समस्याओं के निराकरण में उनके सुझाव आमन्त्रित किए जाते हैं । प्रबन्ध बोर्ड में श्रमिकों को यथोचित प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है ।
निजी तथा सरकारी क्षेत्र में श्रमिक सहभागिता के आधार पर शान्तिपूर्ण औद्योगिक वातावरण स्थापित किया जा सकता है, विशेषत: राष्ट्रीयकृत उद्योगों में, जहाँ सामाजिक हित का उद्देश्य महत्वपूर्ण होता है । श्रमिक सहभागिता से उत्पादन की मात्रा एवं किस्म में सुधार होता है ।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना में यह स्पष्ट कहा गया है, कि श्रमिकों एवं प्रबन्धकों के सहयोग द्वारा ही योजनाएँ अधिक सफल हो सकती हैं । अत: प्रबन्धकीय समितियाँ बनाई जानी चाहिए जिनमें प्रबन्ध, तकनीकी अधिकारी तथा श्रमिकों का प्रतिनिधित्व हो ।
श्रम सहभागिता प्रणाली के लिए गठित अध्ययन दल ने 1957 में संयुक्त प्रबन्ध समितियों के गठन का सुझाव दिया तथा 1958 में हुए सम्मेलन में इस प्रकार की योजना पारित कर ली ।
स्वर्गीय वी.वी.गिरि के अनुसार, ”श्रमिक सहभागिता तभी सफल हो सकती है, जब श्रमिकों तथा नियोक्ताओं दोनों में कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य करने की प्रवृत्ति हो । जब दोनों यह अनुभव करें कि वे औद्योगिक प्रणाली में भागीदार हैं, और जनसमुदाय को जीवन की आवश्यकताएँ प्रदान करना तथा उनके हितों की रक्षा करना दोनों का परम कर्त्तव्य है ।”
Machinery # 4. मजदूरी बोर्ड (Wage Board):
मजदूरी एवं बोनस सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए मजदूरी बोर्डों की स्थापना की जाती है । इन बोर्डों में कुल 7 सदस्य होते हैं, जिनमें 2 प्रबन्धकीय, 2 श्रमिक, 2 निष्पक्ष प्रतिनिधि होते हैं, तथा बोर्ड का अध्यक्ष होता है ।
सन् 1948 में उचित मजदूरी आयोग (Commission on Fair Wages) ने मजदूरी बोर्ड स्थापित करने का सुझाव दिया । प्रथम पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत त्रिपक्षीय स्थायी मजदूरी बोर्डों को स्थापित करने का प्रावधान था ।
वे बोर्ड राज्य तथा केन्द्रीय स्तर पर मजदूरी सम्बन्धी सभी समस्याओं आवश्यक जाँच-पड़ताल, समंक संकलन, समय-समय पर स्थिति का पुनरावलोकन एवं मजदूरी निर्धारण अथवा सरकार द्वारा चाहे जाने पर उपर्युक्त कार्य करते हैं । द्वितीय पचवर्षीय योजना में भी मजदूरी बोर्डों की स्थापना पर बल दिया गया ।
बोर्डों के मुख्य कार्यों को चार भागों में बाँटा जा सकता है:
(a) कार्य वर्गीकरण करना, जैसे शारीरिक कार्य, लिपिक वर्गीय कार्य, पर्यवेक्षीय कार्य आदि,
(b) उचित मजदूरी सिद्धान्तों पर आधारित मजदूरी का ढाँचा तैयार करना,
(c) कार्यानुसार भुगतान प्रणाली को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक प्रयास करना, तथा
(d) बोनस के लिए आधार तैयार करना ।
उपयुक्त मजदूरी ढाँचा तैयार करने के लिए मजदूरी बोर्ड को उचित मजदूरी के अतिरिक्त विकासशील अर्थव्यवस्था में उद्योगों की आवश्यकता, उद्योग की महत्वपूर्ण विशेषताओं, सामाजिक न्याय की आवश्यकता तथा मजदूरी स्तर को अभिप्रेरण के आधार पर समायोजित करना, आदि बातों पर ध्यान रखना चाहिए ।
कार्य निष्पादन के अनुसार मजदूरी निहर्पारण करते समय मजदूरी बोर्ड को न्यूनतम तथा उच्चतम सीमाओं का प्रावधान रखना चाहिए जिससे श्रमिक अपनी क्षमता बनाए रख सकें तथा अवांछित रूप से श्रम करने की प्रवृत्ति को भी अधिक प्रोत्साहन न मिले ।
Machinery # 5. अनुशासन संहिता (Code of Discipline):
उद्योगों में अनुशासन बनाए रखने के लिए अनुशासन सहिता का प्रयोग किया जाता है । श्रम संघ तथा नियोक्ता द्वारा द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय समझौतों के आधार पर श्रमिकों और नियोक्ताओं के कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया जाता है ।
अनुशासन संहिता के अन्तर्गत प्रबन्धक तथा श्रम संघ अपने कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों के प्रति सजग रहते हैं । यह राजकीय तथा निजी क्षेत्र दोनों को ही लागू होती है, तथा दोनों क्षेत्रों में अनुशासन बनाए रखने हेतु इसकी रचना की गई है ।
संहिता का मुख्य रूप इस प्रकार है:
(1) उद्योग में अनुशासन बनाए रखने हेतु:
(i) द्विपक्षीय या त्रिपक्षीय समझौतों में हुए निर्णय या नियमों के अनुसार श्रमिकों एवं नियोक्ताओं के कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों को मान्यता प्राप्त होनी चाहिए, तथा
(ii) इन मान्यताओं का आदर दूसरे पक्ष को ऐच्छिक तथा यथोचित रूप में करना चाहिए ।
केन्द्रीय तथा राजकीय सरकार को समय-समय पर इस प्रणली का पुनरावलोकन करना चाहिए जिसमें श्रम नियमन तथा प्रशासनिक व्यवस्था भली भांति चलाई जा सके ।
(2) उद्योग में अच्छा अनुशासन बनाए रखने हेतु प्रबन्ध हेतु:
प्रबन्धक तथा श्रम संघ इस बात पर तैयार है कि:
(i) किसी भी औद्योगिक विवाद पर एकतरफा कार्यवाही नहीं की जाएगी तथा विवाद उचित स्तर पर निपटाए जाएँगे ।
(ii) विद्यमान परिवाद निवारण व्यवस्था का उपयोग यथासम्भव शीघ्रतापूर्वक किया जाएगा ।
(iii) कोई हडताल या तालाबन्दी बिना पूर्व सूचना के नहीं की जाएगी ।
(iv) प्रजातान्त्रिक प्रणाली में पूर्ण विश्वास प्रदर्शित करते हुए दोनों पक्ष अपने भविष्य के विवादों, मतभेदों तथा परिवादों को आपसी वार्तालाप समझौता तथा ऐच्छिक पंचनिर्णय प्रणाली द्वारा हल करेंगे ।
(v) यह स्वीकार किया गया कि कोई पक्ष:
(a) प्रताड़ना देने,
(b) डरान-धमकाने,
(c) बदला लेने, या
(d) ‘धीरे कार्य करो’ नीति जैसी किसी कार्यवाही को आश्रय नहीं देगा ।
(vi) दोनों पक्ष यथा सम्भ:
(a) मुकदमेबाजी,
(b) बैठे रहना या कार्य पर रहते हड़ताल करना, तथा
(c) तालबन्दी को टालना चाहेंगे ।
(vii) वे अपने प्रतिनिधयों एवं श्रमिकों से यथा सम्भव सहयोग की चेष्टा करेगे तथा आपसी सहयोग की भावना को प्रोत्साहित करेंगे ।
(viii) वे आपसी समझौते के अनुसार एक परिवाद निवारण प्रणाली निर्धारित करेंगे जो किसी भी विवाद की सम्पूर्ण जाँच-पड़ताल के उपरान्त निवारण का प्रयास करेगी ।
(ix) वे परिवाद प्रणाली का पूर्ण उपयोग करेंगे और किसी प्रकार का पंच फैसला नहीं करेंगे ।
(x) वे प्रबन्धक कर्मचारियों तथा श्रमिकों को आपसी कर्तव्यों के प्रति जागरूक करेंगे ।
(3) प्रबन्धक इस बात पर सहमत हुए कि:
(i) जब तक आपसी सहमति न हो जाये श्रमिकों पर कोई कार्य भार नहीं बढ़ाया जायेगा ।
(ii) अनुचित श्रम नीतियों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाएगा ।
जैसे:
(a) किसी कर्मचारी के श्रम संघ का सदस्य रहने अथवा न रहने पर हस्तक्षेप,
(b) किसी कर्मचारी द्वारा श्रम संघ की कार्यवाहियाँ करने के कारण उसे प्रताड़ित करना, डराना, धमकाना, या बदला लेना तथा
(c) किसी कर्मचारी को तंग करना आदि कार्यवाहियाँ न तो की जाएँगी, न उन्हें प्रोत्साहन दिया जाएगा ।
(iii) (a) परिवाद निवारण यथाशीघ्र किया जाएगा तथा
(b) प्राप्त निर्णयों को लागू करने में पूर्ण शीघ्रता की जाएगी ।
(iv) उपयुक्त स्थानों पर संहिता का स्थानीय भाषाओं में प्रदर्शन किया जाएगा ।
(v) सेवामुक्ति के मामलों (जिनमें तुरन्त कार्यवाही आवश्यक हो तथा जिनमें निवृत्ति करने से पहले चेतावनी, निलम्बन तथा अन्य अनुशासनात्मक कार्यवाही करना आवश्यक हो) में निश्चित प्रणालियों के अनुसार कार्यवाही की जाएगी तथा प्रत्येक मामले में दोषी/दण्डित व्यक्ति को अपील का अवसर दिया जाएगा ।
(vi) यदि किसी अधिकारी को अनुशासनहीनता के लिए दोषी पाया गया तो उसे दण्डित किया जाएगा ।
(vii) किसी उचित प्रणाली द्वारा (जो मई 1958 में भारतीय सम्मेलन के 16वें सत्र में पारित की गई थी) श्रम संघ की मान्यता प्रदान की जाएगी ।
(4) श्रम संघ इस बात पर सहमत हुए कि:
(i) वे कभी कार्य में अवरोध उत्पन्न नहीं करेंगे ।
(ii) कोई अशान्ति प्रदर्शन नहीं करेंगे और न ही वे किसी उपद्रवी प्रकृति का कोई प्रदर्शन करेंगे ।
(iii) कार्य के समय ऐसी कोई कार्यवाही नहीं करेंगे जो कानून अथवा किसी समझौते द्वारा मान्य न हो ।
(iv) अनुचित श्रम विधियों के प्रयोग को हतोत्साहित करेंगे;
जैसे:
(a) कार्य के प्रति लापरवाही,
(b) लापरवाही से मशीनें चलाना,
(c) सम्पत्ति को हानि पहुँचाना,
(d) सामान्य कार्य में हस्तक्षेप अथवा गतिरोध उत्पन्न करना
(e) उच्छृंखल कार्य करना,
(f) निर्णयों, समझौतों एवं पंच निर्णयों को अविलम्ब लागू करने का कार्य करेंगे ।
(v) उपयुक्त स्थानों पर स्थानीय भाषाओं में संहिता का प्रदर्शन करेंगे ।
(vi) इस संहिता की भावना के विरुद्ध यदि कोई सदस्य कार्यवाही करेगा तो उसके विरुद्ध समुचित कार्यवाही की जाएगी ।
Machinery # 6. औद्योगिक सन्धि प्रस्ताव (Industrial Truce Resolution):
चीन के आक्रमण के समय यह अनुभव किया गया कि राष्ट्र की सुरक्षा के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाना चाहिए । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त सहयोगी और शान्तिपूर्ण वातावरण तैयार करना आवश्यक है ।
औद्योगिक सन्धि प्रस्ताव 3 नवम्बर, 1962 को दिल्ली में आयोजित श्रमिकों एवं नियोक्ताओं की एक सम्मिलित बैठक में स्वीकृत किया गया ।
प्रस्ताव के प्रारूप में कुछ प्रमुख बिन्दु निम्न प्रकार हैं:
औद्योगिक शान्ति (Industrial Peace):
(1) किसी भी दशा में वस्तु अथवा सेवा उत्पादन में किसी प्रकार कोई लापरवाही नहीं बरती जाए ।
(2) श्रमिक एवं उत्पादक अधिकाधिक त्याग की भावना के साथ कार्य करे ।
(3) ऐच्छिक पंच निर्णय का अधिकतम उपयोग किया जाए, या किसी कारण न्यायाधिकरण की आवश्यकता हो तो उस प्रणाली में शीघ्रातिशीघ्र निर्णय की व्यवस्था होनी चाहिए ।
(4) औद्योगिक विवाद अधिनियम की प्रथम सारणी में उल्लिखित तथा अन्य उद्योग जिन्हें आवश्यक समझा जाए उन्हें जन हितकारी सेवाएँ घोषित की जानी चाहिए ।
(5) किसी श्रमिक के सेवामुक्त या छँटनी किए जाने के विवाद यदि आपस में न सुलझाए जा सकें तो पंच निर्णय द्वारा निपटाए जाने चाहिए । यदि दोनों पक्षों को स्वीकार हो तो समझौता अधिकारी को निर्णायक के रूप में बुलाया जा सकता है । जहाँ तक सम्भव हो कर्मचारी की पदावनति नहीं की जानी चाहिए ।
उत्पादन (Production):
(1) प्रभावी उत्पादन हेतु यदि व्यक्ति-मशीन तथा माल के पृथक् उपयोग में यदि किसी प्रकार का व्यवधान हो तो उसे तत्काल दूर किया जाना चाहिए जिससे कोई संयन्त्र अपनी क्षमता से कार्य करे । प्रबन्धकों को चाहिए कि कार्यप्रणाली में अधिकतर मितव्ययिता का प्रयोग करें ।
(2) उत्पादन की वृद्धि दृष्टि से, जहाँ तक सम्भव हो, तीन पारियों में, रातदिन तथा छुट्टियों एवं रविवार को अधिसमय कार्य किया जाना चाहिए । अतिरिक्त प्रयत्नों से प्राप्त होने वाले लाभ का अधिकांश भाग उपभोक्ताओं को अथवा कार्यों की सुरक्षा कार्यों के लिए राष्ट्र को मिलना चाहिए ।
(3) अनुपस्थिति और श्रम बदली को न्यूनतम करने का प्रयास किया जाना चाहिए । कार्य के प्रति लापरवाही, सम्पत्ति को हानि तथा सामान्य कार्यप्रणाली में गतिरोध उत्पन्न करने के प्रयास को श्रम संघों द्वारा हतोत्साहित किया जाना चाहिए । इसी प्रकार प्रबन्धक की ओर से गई कोई भी कार्यवाही जिससे सुरक्षा को हानि होती हो उसका बहिष्कार किया जाना चाहिए ।
(4) तकनीकी एवं कुशल कर्मचारियों को उनकी रुचि के अनुरूप कार्य प्रदान किया जाना चाहिए तथा तकनीकी व्यक्ति अधिक मात्रा में तैयार किए जाने चाहिए ।
(5) उत्पादन के साथ श्रमिकों का हित तथा स्वास्थ्य भी ध्यान में रखा जाना चाहिए ।