प्रबंधन की परिभाषाएँ: शीर्ष 7 परिभाषाएँ | Read this article in Hindi to learn about various definitions of management.

प्रबन्ध की परिभाषा देना यद्यपि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । ई.एक.एल.ब्रेच तो प्रबन्ध की परिभाषा की आवश्यकता ही नहीं समझते । उनकी मान्यता है कि महत्व प्रबन्ध का है, न कि उसकी परिभाषा का । परन्तु फिर भी प्रबन्ध को भली-भाँति समझने के लिए इसकी कुछ प्रमुख परिभाषाओं का वर्णन करना आवश्यक होगा ।

अध्ययन की सुविधा के लिए प्रबन्ध की विभिन्न परिभाषाओं को मुख्य रूप से निम्नलिखित वर्गो र्मे बाँटा गया है:

1. उत्पादकता तथा कुशलता पर आधारित परिभाषाएं (Productivity and Efficiency-Oriented Definitions):

इस वर्ग में प्रबन्ध की निम्नलिखित परिभाषाओं को शामिल किया गया है जो उत्पादन के साधनों का कुशलतम उपयोग करते हुए न्यूनतम लागत पर वस्तुओं का उत्पादन करने पर बल देती हैं:

(i) एफ. डब्ल्यू. टेलर के शब्दों में- “प्रबन्ध यह जानने की कला है कि आप व्यक्तियों से क्या करवाना चाहते हैं । तत्पश्चात् यह देखना कि वे इसे सर्वोत्तम एवं मितव्ययीतापूर्ण विधि से करते है ।”

यह परिभाषा निम्न बातें बताती है:

(a) प्रबन्ध एक कला है,

(b) प्रबन्ध किए जाने वाले कार्यो का पूर्ण-निर्धारण है तथा

(c) प्रबन्ध कार्य-निष्पादन की सर्वोत्तम एवं मितव्ययी विधि की खोज करता है ।

(ii) जॉन.एफ.मी के अनुसार- “प्रबन्ध से अभिप्राय न्यूनतम प्रयास द्वारा अधिकतम परिणाम प्राप्त करने की कला है जिसमें नियोक्ता तथा कर्मचारी दोनों के लिए अधिकतम समृद्धि एवं खुशहाली प्राप्त की जा सके तथा जनता को सर्वश्रेष्ठ सेवा प्रदान की जा सके ।”

(iii) विलिमय एफ.ग्लूक के शब्दों में- “उपक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय एवं भौतिक साधनों का प्रभावी प्रयोग झई प्रबन्ध है ।”

उपरोक्त परिभाषाओं में मानवीय तथा भौतिक साधनों के अधिकतम उपयोग एवं उत्पादन वृद्धि पर बल दिया गया है परन्तु मानवीय पक्ष की उपेक्षा की गई है । अतएव आधुनिक प्रबन्ध विद्वान् इन परिभाषाओं की आलोचना करते हैं ।

2. कार्यात्मक परिभाषाएं (Functional Definitions):

कई प्रबन्ध विद्वान् प्रबन्ध को एक प्रक्रिया अथवा कार्य मानते हैं । इस वर्ग की कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं:

(i) जॉर्ज आर. टैरी के शब्दों में- “प्रबन्ध नियोजन, संगठन, उत्प्रेरण एवं नियन्त्रण की एक विशिष्ट प्रक्रिया है जिसमें मानव एवं अन्य साधनों का प्रयोग करते हुए निश्चित उद्देश्यों का निर्धारण एवं पूर्ति करने के लिए कार्य किया जाता है ।”

(ii) मैक फारलैण्ड के अनुसार- “प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रबन्धक व्यवस्थित, समन्वित एवं सहकारी मानवीय प्रयासों के माध्यम से उद्देश्यपूर्ण संगठनों का निर्माण, निर्देशन, अनुरक्षण एवं संचालन करते हैं ।”

(iii) हेनरी फेयोल के शब्दों में- “प्रबन्ध से आशय पूर्वानुमान लगाना एवं योजना बनाना, संगठन करना, आदेश देना, समन्वय करना तथा नियन्त्रण करना है ।”

उपरोक्त परिभाषाएं प्रबन्ध के कार्यो का स्पष्ट विवेचन करती है और बताती हैं कि:

(i) प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है,

(ii) प्रबन्ध में नियोजन, संगठन, उत्प्रेरणा तथा नियन्त्रण शामिल है,

(iii) प्रबन्ध में पूर्ण निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रबन्ध प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है,

(iv) प्रबन्ध की प्रक्रिया निरन्तर गतिशील रहती है,

(v) संगठन में होने वाले परिवर्तनों की गति, मात्रा तथा प्रकृति को ध्यान में रखकर प्रबन्धकीय निर्देशन व नियन्त्रण की रूपरेखा बनाई जाती है ।

3. निर्णयन-प्रधान परिभाषाएँ (Decision-Making-Oriented Definition):

अनेक विद्वानों ने प्रबन्ध के निर्णय लेने को एक प्रक्रिया माना है ।

इनमें प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं:

(i) रोस मूरे के शब्दों में- “प्रबन्ध से आशय निर्णय लेना है ।”

(ii) प्रो. क्तग के अनुसार- “प्रबन्ध निर्णय लेने तथा नेतृत्व प्रदान करने की कला एवं विज्ञान है ।

(iii) स्टेनले वेन्स के शब्दों में- “संक्षेप में, प्रबन्ध का स्पष्ट आशय निर्णय लेने तथा मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण रखने की प्रक्रिया है ताकि पूर्व-निर्धारित लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त किया जा सके ।”

प्रबन्ध की ये परिभाषाएँ अपूर्ण हैं क्योंकि निर्णयन तो प्रबन्ध प्रक्रिया का एक अंग मात्र है, यह सम्पूर्ण प्रबन्ध कैसे हो सकता है ।

4. वातावरण-प्रधान परिभाषाएँ (Environment-Oriented Definitions):

समय और परिस्थितियों के बदलाव के कारण प्रबन्ध की प्रकृति में भी बदलाव आना स्वाभाविक है ।

इसकी कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं:

(i) राबर्ट अल्बानीस के अनुसार- “प्रबन्ध वातावरण के निर्माण एवं अनुरक्षण का कार्य है जिसमें व्यक्ति लक्ष्यों को दक्षतापूर्ण एवं प्रभावशाली ढंग से पूरा करते हैं ।”

(ii) कून्टज एवं व्हीरिच के शब्दों में- “प्रबन्ध वातावरण के निर्माण एवं अनुरक्षण की प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति समूहों में काम करते ह्म चुने हुए लक्ष्यों को दक्षतापूर्वक प्राप्त करते हैं ।”

इन परिभाषाओं के अनुसार प्रबन्धक को सम्पूर्ण प्रक्रिया के दौरान वातावरण एवं उसमें होने वाले परिवर्तनों की ओर विशेष ध्यान देना होता है । इसका मुख्य कारण है कि प्रबन्ध कार्य वातावरण से प्रभावित होता है और उम पर निर्भर होता है । वर्तमान समय में यह विचार अधिक लोकप्रिय हो रहा है ।

5. अन्य लोगों से काम करवाने तथा मके साथ मिलकर कार्य करने की परिभाषाएँ (Definition Based on getting done through and with others):

इस वर्ग में निम्नलिखित परिभाषाओं का वर्णन किया गया है:

(i) हैरोल्ड कून्टज के अनुसार- “प्रबन्ध औपचारिक दलों में संगठित व्यक्तियों के द्वारा तथा उनके साथ मिलकर कार्य को करवाने व करने फी कला है ।”

(ii) सर चार्ल्स रेनोल्ड के शब्दों में- “प्रबन्ध किसी समुदाय की एक एजेंसी द्वारा कार्य करवाने की प्रक्रिया है ।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि प्रबन्ध कर्मचारियों से काम लेने की प्रक्रिया ही नही है अपितु उनके साथ कार्य करने की प्रक्रिया भी है । इसमें कर्मचारी औपचारिक रूप से संगठित होते हैं तथा वे एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति का प्रयास करते है ।

क्या प्रबन्ध अन्य व्यक्तियों से काम लेने की कला है ? (Is Management the Art of Getting Things done through Others?):

उपरोक्त प्रबन्ध विद्वानों ने व्यक्तियों से कार्य कराने को ही प्रबन्ध कहा है । उनके अनुसार वह व्यक्ति जो दूसरों से कार्य कराने में निपुण है, वही सफल प्रबन्धक है । यहाँ प्रबन्ध को एक साधन माना गया है जिसमें प्रबन्धक अपनी आर्थिक सामाजिक तकनीकी वैधानिक एवं प्रशासनिक योग्यताओं के आधार पर संस्था को उत्पादक तथा प्रभावशाली बनाता है । इसके लिए उसे नियोजन, संगठन तथा नियन्त्रण जैसे अनेक कार्य करने पड़ते हैं ।

हैरोल्ड कून्टज तथा चार्ल्स रेनोल्ड की परिभाषाओं का विश्लेषण करने पर निम्न बातें स्पष्ट होती हैं:

(i) प्रबन्ध से अभिप्राय दूसरे व्यक्तियों से कार्य कराना है:

इन व्यक्तियों को दो वर्गो में बांटा गया है:

(a) प्रबन्धक (Managers) एवं

(b) गैर-प्रबन्धक (Non-Managers) |

प्रबन्धक:

अन्य व्यक्तियों के प्रयासों को संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन, निर्देशन तथा समन्वय करते हैं ।

गैर-प्रबन्धक:

इस वर्ग में कर्मचारी, प्रचालक (Operators) तथा अप्रशासनिक कर्मचारी आते हैं । गैर-प्रबन्धक अपने कार्य के प्रति उत्तरदायी होते हैं जबकि प्रबन्धक अपने कार्य के साथ-साथ अपने अधीनस्थों के कार्य के प्रति भी उत्तरदायी होते हैं । इन दोनों  वर्गों के व्यक्तिर्यो के परस्पर सहयोग से ही संस्था को उत्पादक तथा प्रभावशाली बनाया जा सकता है ।

(ii) दूसरों से काम कराना एक कला है:

कला का अर्थ प्राप्त ज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग से लिया जाता है । इस प्रकार प्रबन्धकों को शैक्षणिक तकनीकी, सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक योग्यताओं का विकास करना पड़ता है । टैरी के अनुसार- “व्वक्तिगत चातुर्य के प्रयोग पर वांछित परिणामों को प्राप्त करना ही कला है ।”

इसलिए जब तक प्रबन्धक इन योग्यताओं का विकास नहीं करेगा, तब तक उसकी सफलता सम्भव नहीं है । इसलिए प्रबन्धकों को प्रबन्ध के सिद्धान्तों के ज्ञान के साथ-साथ व्यवहार कुशल होना भी अनिवार्य है ।

यहाँ यह बात देना भी उचित होगा कि प्रबन्धकीय कुशलता व्यक्ति की व्यक्तिगत कुशलता पर निर्भर करती है । इसका अर्थ है प्रबन्ध करने का कोई एक सर्वोत्तम तरीका नहीं है । प्रबन्ध अन्य कला की भांति सृजनात्मक (Creative) है । प्रबन्धकीय सफलता में सृजनात्मकता का अत्यन्त महत्व होता है । सृजनात्मकता आगे और सुधार करने के लिए नयी परिस्थितियाँ पैदा करती है ।

(iii) कार्य कराने का तरीका व्यवस्थित (Organised) तथा अनुशासनात्मक (Disciplined) होता है:

व्यक्तियों से कार्य कराने के लिए प्रबन्धकों को योजना बनानी होती है, संगठन तैयार करना पड़ता है, निर्देश देने होते हैं तथा नियन्त्रण करना पड़ता है । इस प्रकार प्रबन्धकों को कार्य कराने के लिए विभिन्न प्रबन्धकीय कार्य करने पड़ते हैं, जैसे: नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण आदि ।

इसके साथ-साथ प्रबन्धकों को ऐसी विधियों तथा तकनीकी को भी अपनाना पड़ता है जिससे संस्था में अनुशासन, सद्‌भावना व विश्वास बना रहे तथा संस्था चुनौतियों का सामना कर सके । इसके अलावा अधीनस्थों की आकांक्षाओं, आवश्यकताओं तथा भावनाओं को भी सन्तुष्ट रखा जाए ।

(iv) कार्य के मार्ग में आने वाली बाधाओं एवं समस्याओं को दूर करना या कम-से-कम करना:

प्रबन्ध समय-समय पर कार्य को पूरा करने के मार्ग में आने वाली विभिन्न समस्याओं एवं बाधाओं को दूर करता है ।

(v) प्रबन्ध को एक परिणाम-परक (Result-Oriented) कार्य माना गया है:

प्रबन्ध का उद्देश्य निश्चित परिणामों को कम-से-कम समय में तथा अधिकतम कुशलता से प्राप्त करना है । इस प्रकार प्रबन्ध में अधिकतम कार्यकुशलता द्वारा “परिणामों की प्राप्ति” (Reaching Goals) पर सर्वाधिक महत्व दिया जाता है ।

आलोचनाएँ (Criticism):

अनेक विद्वानों ने इन विचारी की आलोचना की जो निम्नलिखित हैं:

(i) प्रबन्ध केवल कला नहीं है:

कून्ट्ज ने प्रबन्ध को शुद्ध कला माना है जबकि सच्चाई यह है कि प्रबन्ध तो कला और विज्ञान दोनों है । यह उस सीमा तक तो विज्ञान है जहाँ तक तथ्यों का प्रयोग किया जा सके और जहाँ तथ्यों एवं प्रयोगों के स्थान पा अनुभव, विचार और दूरदर्शिता को निर्णयन का आधार बनाया तो यह कला है ।

(ii) प्रबन्ध केवल व्यक्तियों का प्रबन्ध मात्र नहीं है:

इस परिभाषा में प्रबन्ध को केवल व्यक्तियों का प्रबन्ध माना गया है । जबकि प्रबन्ध में भौतिक साधनों-माल, मशीन, मुद्रा एवं तकनीक का भी प्रबन्ध करना आता है ।

(iii) बाह्य वातावरण के सन्दर्भ में समझना:

कून्ट्ज की यह परिभाषा एकमार्गीय है जिसमें दूसरे व्यक्तियों से कार्य कराने को ही प्रबन्ध कहा गया है, जबकि सही यह है कि किसी संस्था के संगठन को आन्तरिक वातावरण के साथ-साथ बाहरी वातावरण के सन्दर्भ में समझना भी प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण कार्य है ।

(iv) प्रबन्ध जोर-जबरदस्ती करना, डराना, धमकाना नहीं है:

क्योंकि कुरज ओ डोनेल की परिभाषा में इच्छित परिणामों को प्राप्त करने पर बल दिया गया है जिससे यह प्रतीत होता है कि कर्मचारियों से हर हालत में काम लिया जाना ही प्रबन्ध हैचाहे इसके लिए उन पर जोर-जबदस्ती करनी पड़े, उन्हें डराना या धमकाना पड़े परन्तु यह विचार उचित प्रतीत नहीं होता ।

निष्कर्ष:

अतः यह कहा जा सकता है कि प्रबन्ध को कार्य कराने की केवल कला मानना उचित नहीं है ।

6. मानवीय अभिमुखी परिभाषाएँ (Human-Oriented Definitions):

प्रबन्ध की ये परिभाषाएँ मानवीय सम्बन्धों पर अधिक बल देती हैं ।

इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं:

(i) कीथ तथा गुबेलिनी के अनुसार- “प्रबन्ध किसी विशिष्ट उद्देश्य अथवा लक्ष्य की ओर मानव व्यवहार को निर्देशित करता है ।”

(ii) लारेन्स ए. एप्पले के शब्दों में- “प्रबन्ध व्यक्तियों का विकास है, न कि वस्तुओं का निर्देशन । प्रबन्ध ही सेविवर्गीय प्रशासन है ।”

एप्पले की इस परिभाषा को उचित रूप से समझने के लिए हम इसे तीन भागों में बाँटते हैं:

(i) प्रबन्ध व्यक्तियों का विकास है,

(ii) प्रबन्ध वस्तुओं का निर्देशन नहीं है  तथा

(iii) प्रबन्ध सेविवर्गीय प्रशासन है ।

(i) प्रबन्ध व्यक्तियों का विकास है (Management is Development of People):

प्रबन्ध के लिए मुख्यत: दो साधनों की आवश्यकता होती है:

(a) मानवीय साधन तथा

(b) भौतिक साधन

मानवीय साधन में हम संस्था के अधिकारियों व कर्मचारियों तथा उनके विकास को शामिल करते हैं । भौतिक साधनों में कच्चा माल, मशीनरी सयंत्र, उपकरण भवन, भूमि तथा अनेक प्रकार की वस्तुएँ आदि शामिल की जाती है । प्रबन्ध की सफलता के लिए दोनों साधनों का महत्व होता है परन्तु फिर भी मानवीय तत्व का विशेष स्थान है क्योंकि मानव ही प्रबन्ध का मुख्य आधार होता है ।

अतएव यदि मानव तत्व का विकास होता है तो भौतिक साधनों का सर्वश्रेष्ठ प्रयोग सम्भव है । व्यक्तियों के विकास से अभिप्राय है उनकी योग्यताओं, क्षमताओं गुणों निपुणताओं आदि का विकास करना व्यक्तियों के विकास का कार्य उनके शिक्षण प्रशिक्षण, पदोन्नति, स्थानान्तरण कार्यविस्तार अभिप्रेरणा आदि द्वारा किया जा सकता है ।

इसलिए, मानवीय तत्व जितना अधिक विकसित होगा अर्थात् कुशल और योग्य होगा उतना ही श्रेष्ठ तथा मितव्ययी उपयोग भौतिक साधनों का किया जा सकेगा । एप्पले के अनुसार यदि भौतिक साधनों के निर्देशन पर अधिक ध्यान देने की बजाय उसके प्रयोग करने वाले व्यक्तियों को योग्य बनाने पर अधिक ध्यान दिया जाए तो प्रबन्ध के उद्देश्य सरलतापूर्वक प्राप्त किए जा सकते हैं ।

अत: व्यक्तियों का इस स्तर तक विकास किया जाना चाहिए कि वे स्वयं न्यूनतम प्रयासों से अधिकतम प्राप्ति की ओर अग्रसर हों यह कहना उचित होगा कि साधन मनुष्य के लिए होते है, न कि मनुष्य साधन के लिए । अत: एप्पले की परिभाषा प्रबन्ध को मानवीय आधार प्रदान करती है ।

मैकग्रेगर के विचार भी एप्पले के विचारों से मिलते हैं । उनके अनुसार- यदि प्रबन्ध कार्यरत कर्मचारियों को ऐसा वातावरण देता है जिसमें वे अपनी पूरी क्षमता एवं प्रतिभा को काम पर उड़ेल सकें तो उनके लिए कार्य उतना ही प्राकृतिक हो जाएगा जितना कि खेल या विश्राम । वे संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए स्वय पहल करेंगे तथा नियन्त्रित होंगे । अत: यह कहना ठीक ही है कि प्रबन्ध मनुष्यों का विकास      है ।

एक अमेरिकन निगम के अध्यक्ष श्री फ्रांसिस ने किसी संगठन में मानव के महत्व पर बल देते हुए कहा है कि- “हम मोटरें, हवाई जहाज, फ्रिज, रेडियो या जूतों के फीते नहीं बनाते, हम बनाते हैं मनुष्य और मनुष्य इन वस्तुओं का निर्माण करते हैं ।” इस प्रकार व्यक्तियों के विकास का सार तत्व है-व्यक्ति में जो सर्वोत्तम है, उसे उजागर करना ।

(ii) प्रबन्ध वस्तुओं का निर्देशन नहीं है (Management is not the Direction of Things):

यद्यपि एप्पले ने प्रबन्ध के क्षेत्र में मानव तत्व को अधिक महत्व दिया है परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे भौतिक साधनों के निर्देशन को प्रबन्ध के क्षेत्र में शामिल ही नहीं करते सच्चाई यह है कि व्यक्तियों का विकास वस्तुओं (भौतिक साधनों) के निर्देशन, नियन्त्रण एवं उपयोग को स्वत: ही शामिल करता है ।

यदि ध्यानपूर्वक सोचा जाए तो महसूस होगा कि व्यक्तियों के विकास में भौतिक साधनों का निर्देशन अपने आप ही शामिल हो जाता है । व्यक्तियों के विकास करने पर उत्पादन कार्य पूरी क्षमता तथा कुशलता से किया जा सकेगा । माल तथा पूँजी की बर्बादी को रोका जा सकेगा तथा भौतिक साधनों का अधिकतम उपयोग करते हुए लक्ष्यों को प्राप्त करना सम्भव हो सकेगा । अत: एप्पले ने प्रत्यक्ष रूप से तो व्यक्तियों के विकास और अप्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं (भौतिक साधनों) के निर्देशन को प्रबन्ध माना है ।

(iii) प्रबन्ध सेविवर्गीय (कर्मचारी) प्रशासन है (Management is Personnel Administration):

एप्पले की उपरोक्त पंक्तियों को यदि इस तरह कहा जाए कि- “सेविवर्गीय (कर्मचारी) प्रशासन प्रबन्ध” है तो यह ज्यादा उचित होगा क्योंकि भी एप्पले ने कर्मचारियों से सम्बन्धित सभी कार्यों पर बल दिया है । इस प्रकार प्रबन्ध का महत्वपूर्ण कार्य कर्मचारियों की भर्ती, चयन, प्रशिक्षण, पदोन्नति, स्थानान्तरण, कार्य मूल्यांकन, नेतृत्व प्रदान करना है । प्रबन्ध के क्षेत्र में ये कार्य सार्वभौमिक होने के कारण एप्पेले ने प्रबन्ध को कर्मचारी प्रशासन माना है ।”

अन्तत: यह कहना होगा कि भौतिक साधनी की कार्यकुशलता तथा प्रभावशीलता मानवीय संसाधन के विकास पर निर्भर करती है ।

एप्पले की परिभाषा को निम्नलिखित रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:

उपरोक्त रेखाचित्र से स्पष्ट कि प्रबन्ध व्यक्तियों का निर्देशन करता है तथा व्यक्ति भौतिक साधनों के सर्वोत्तम उपयोग द्वारा सम्पादकता को हैं और लक्ष्यों की प्राप्ति को सम्भव बनाते हैं ।

7. अन्य परिभाषाएँ (Other Definitions):

कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दी निन्नलिखित हैं:

(i) प्रो. किम्बाल एवं किम्बाल के अनुसार- “विस्तृत रूप से प्रबन्ध उस कला को कहते हैं जिसके द्वारा किसी उपक्रम में मनुष्यों और माल को नियन्त्रित करने के लिए जो आर्थिक सिद्धान्त लागू होते हैं, उन्हें प्रयोग में लाया जाता है ।”

(ii) प्रो. थियो हैमन ने प्रबन्ध का तीन अर्थों में वर्णन किया है:

(a) प्रथम, प्रबन्ध से आशय प्रबन्ध अधिकारियों (Managerial Personnel) के उस काम से होता है जिसके अन्तर्गत उपक्रम में काम करने वाले व्यक्तियों के कार्यों का नियन्त्रण किया जाता है ।

(b) द्वितीय, प्रबन्ध से आशय ऐसे है जिसमें व्यवसाय सम्बन्धी नियोजन, संगठन, संचालन, समन्वय, उत्प्रेरण तथा नियन्त्रण के सिद्धान्तों का विश्लेषण किया जाता है ।

(c) तृतीय, प्रबन्ध का अर्थ प्रक्रिया से लिया जाता है जिसके अन्तर्गत अन्य लोगों के साथ मिल-जुलकर करने पर बल जाता है ।

(iii) पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार- “प्रबन्ध औद्योगिक समाज का एक आर्थिक अंग है । वांछित परिणामों को करने हेतु करना प्रबन्ध है ।” वह आगे लिखते हैं कि- “प्रबन्धक एक बहुउद्देशीय तन्त्र है जो व्यवसाय का प्रबन्ध करता है, प्रबन्धकों का प्रबन्ध करता है और कार्य करने वालों व कार्य का प्रबन्ध करता है ।”

इस प्रकार पीटर एफ. ड्रकर ने प्रबन्ध को परिभाषित इस प्रकार किया है कि- “किया जाना है, न कि “कैसे किया जाना ।”

ड्रकर की परिभाषा निम्न बातें बताती है:

(a) प्रबन्ध औद्योगिक सभ्यता का उत्पाद है ।

(b) प्रबन्ध एक बहुउद्देशीय तन्त्र है ।

(c) प्रबन्ध औद्योगिक समाज का हिस्सा जो वांछित परिणामों की प्राप्ति से सम्बन्ध रखता है, एवं

(d) प्रबन्ध तीन कार्य करता है:

(i) व्यवसाय का प्रबन्ध,

(ii) प्रबन्धकों का प्रबन्ध, तथा

(iii) कार्य एवं कर्मचारियों का प्रबन्ध ।

अंग्रेजी के शब्द Management का अर्थ निम्न प्रकार से अधिक स्पष्ट हो जाता है:

Manage Men Tactfully

अर्थात् प्रबन्ध का अर्थ व्यक्तियों से चातुर्य एवं विवेक से कार्य लेना है ।

निष्कर्ष:

उपरोक्त दी गई प्रबन्ध विभिन्न परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि- “प्रबन्ध गतिशील वातावरण में एक कलात्मक तथा वेज्ञानिक प्रक्रिया है जो किसी संस्था के निर्धारित लक्ष्यों उद्देश्यों प्राप्त के लिए प्रयत्नों तथा भौतिक साधनों का नियोजन, संगल, समजात, नियन्त्रण एवं सम्बन्ध रखती ।”

Home››Hindi››Management››