Read this article in Hindi to learn about the contribution of Taylor to the field of management.

टेलर ने प्रबन्ध के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है जो कि निम्नलिखित है:

1. वैज्ञानिक विधि अपनाने पर बल (Emphasis upon the Application of Scientific Method):

टेलर ने कार्य के निष्पादन के लिए वेज्ञानिक विधियों को अपनाने पर बल दिया । कार्य-निष्पादन के प्रमापों (Standards) का निर्धारण किसी वैज्ञानिक आधार पर स्थिर न होकर रूढ़िवादिता पर आधरित होता था अथवा एक औसत श्रमिक द्वारा किए गए कार्य की मात्रा पर आधारित होता था । टेलर का कहना है कि प्रबन्ध अनुभव अंध-विश्वास कल्पना तथा पुरानी परम्पराओं के स्थान पर विज्ञान तथा वैज्ञानिक पद्धतियों पर आधारित होना चाहिए ।

उनके अनुसार हमें इस प्रकार के विज्ञान का विकास करना चाहिए जो रूढ़िवादिता के स्थान पर विज्ञान एव तथ्यों पर आधारित हो । अर्थात् उन्होंने विज्ञान, न कि रूढ़िवादिता (Science not Rule of Thumb) पर बल दिया । अत: विज्ञान की भांति टेलर ने प्रबन्ध के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किये जैसे कि कच्चे मारा को हटाने के प्रयोग, फावड़े का प्रयोग, धातु कटाई प्रयोग तथा समय थकान और गति अध्ययनों की शुरुआत की ।

इन प्रयोगों तथा अध्ययनों के आधार पर विभिन्न निष्कर्ष निकाले तथा उनको लागू किया । इस प्रकार टेलर ने यह स्पष्ट किया कि सर्वोत्तम कार्य के निष्पादन का आधार वेज्ञानिक प्रबन्ध है उनके अनुसार किसी कार्य के अवलोकन (Observation) प्रयोगीकरण तथा मापन के अभाव में यह पता लगाना सम्भव नहीं है कि कार्य की सर्वश्रेष्ठ विधि क्या है तथा उसे किस प्रकार कम-से-कम लागत पर सम्पादित किया जा सकता है ।

2. क्रियात्मक संगठन (Functional Organisation):

टेलर के अनुसार- “यदि किसी संगठन में श्रम-विभाजन तथा विशिष्टीकरण के सिद्धान्तों को व्यवहार में लागू करना है तो क्रियात्मक संगठन पद्धति को अपनाना आवश्यक है । इस पद्धति में कार्यात्मक विशेषज्ञों का श्रमिकों से सीधा सम्पर्क होता हैतथा प्रत्येक श्रमिक अपने विशेषज्ञों गे आदेश एवं निर्देश प्राप्त करता है । इससे कार्यों का पूरी तरह विशिष्टीकरण हो जाता है ।”

टेलर का विश्वास है कि कार्य की योजना बनाना तथा उस कार्य को सम्पादित करना दोनों बिल्कुल अलग-अलग कार्य हैं ।

इसलिए उन्होंने:

(a) नियोजन तथा

(b) क्रियान्वयन को अलग-अलग किया ।

उनके क्रियात्मक संगठन में आठ अधिकारी थे चार नियोजन (Planning) में तथा चार क्रियान्वयन (Implementation) में अर्थात् वर्कशाप में नियोजन के चार अधिकारी निम्नलिखित हैं:

(a) कार्यक्रम लिपिक,

(b) संकेत कार्ड लिपिक,

(c) समय तथा लागत लिपिक तथा

(d) अनुशासक ।

शेष चार, वर्कशाप के अधिकारी इस प्रकर थे:

(a) टोली नायक,

(b) गति नायक,

(c) जीर्णोद्धार नायक तथा

(d) निरीक्षक ।

प्रत्येक नायक अपने कार्य का विशेषज्ञ होता है इन सब का वर्णन अगले अध्यायों में किया गया है ।

3. प्रबन्धकों के उत्तरदायित्व (Responsibilities of Managers):

टेलर ने प्रबन्धकों के लिए निम्न चार उत्तरदायित्वों का प्रतिपादन किया:

(a) प्रबन्ध को कर्मचारियों द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य के लिए वैज्ञानिक विधियों का विकास किया जाए व्यक्तियों के कार्य के प्रत्येक अंश के लिए विज्ञान का विकास हो, जो पुराने “रूढ़िवादी सिद्धान्तों” का स्थान ले सके ।

(b) प्रबन्धक श्रमिकों को वैज्ञानिक आधार पर चुनाव कर्रे तथा उनके प्रशिक्षण एवं विकास की समुचित व्यवस्था करें ।

(c) वैज्ञानिक पद्धतियों के अनुसार कार्य करने के लिए प्रबन्धकों को श्रमिकों के साथ पूर्ण सहयोग करना चाहिए ।

(d) प्रबन्धकों और श्रमिकों में एक समान स्तर पर कार्य और उत्तरदायित्व का विभाजन होना चाहिए ।

(e) प्रबन्धक को उन सभी कार्यों को अपने हाथ में लेना चाहिए जिसे वह श्रेष्ठ ढंग से कर सकता है । इसमें विशेष रूप से नियोजन, संगठन तथा निर्देशन का कार्य शामिल है । अत: प्रबन्धकों को इन कार्यों का उत्तरदायित्व अवश्य स्वीकार करना चाहिए ।

4. प्रेरणात्मक मजदूरी पद्धति (Incentive Wages System):

टेलर ने पाया कि मजदूरी भुगतान की प्रचलित पद्धति में अच्छे श्रमिक को कठेर परिश्रम करने पर कोई लाभ नहीं होता । उन्होंने देखा- “जब कोई सहज कर्मठ श्रमिक, आलसी श्रमिकों के साथ, कुछ दिन काम करता है, तब उसे इस तर्क का उत्तर नहीं मिलता कि जब मेरे से आधा काम करने पर भी, आलसी व्यक्ति को मेरे बराबर वेतन मिलता है तब मैं कठिन परिश्रम क्यों करूँ ?”

टेलर ने इस समस्या को दूर करने के लिए मजदूरी भुगतान की ‘विभेदात्मक कार्यदर पद्धति’ (Differential Piece Work System of Wage Payment) का विकास किया जिससे कि श्रमिकों को अधिकतम कुशलता से काम करने के लिए अभिप्रेरित किया जा सके । इस मजदूरी पद्धति के अन्तर्गत ऐसा श्रमिक जो नियत समय में प्रमाणित कार्य को पूरा कर लेता है या उससे अधिक कार्य करता है, उसे ऊँची दर से मजदूरी दी जाती है तथा ऐसा न करने पर उसे नीची दर से मजदूरी मिलती है ।

टेलर का इस सम्बन्ध में मूलभूत दृष्टिकोण यह है कि:

(a) प्रत्येक श्रमिक को उसकी योग्यता और कार्यक्षमता के अनुसार उत्तम श्रेणी का कार्य सौंपा जाए ।

(b) प्रत्येक श्रमिक के लिए उतना माल उत्पन्न करना आवश्यक होना चाहिए जितना कि श्रेष्ठतम श्रमिक (First Class Man) कर सकता है ।

(c) प्रत्येक श्रमिक को, जो कि श्रेष्ठतम श्रमिक (First Class Man) का कार्य करता हो, औसत मजदूरी से 30% से 100% तक अधिक पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए ।

5. निष्पादन के प्रमापों का निर्धारण (Determination of Standard of Performance):

टेलर को अपने अनुभव से मालूम हुआ कि वास्तव में किसी को भी ठीक तरह से पता ही नहीं है कि एक श्रमिक एक घण्टे में या प्रतिदिन आठ घण्टे में कितना कार्य कर सकता है । एक ”औसत श्रमिक” द्वारा किए गए कार्य की मात्रा को ही आधार मान कर कार्य-निष्पादन के प्रमापों का निर्धारण कर दिया जाता था । इस प्रकार कार्य-निष्पादन के प्रमापों के निर्धारण को कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था इसके लिए उन्होंने “समय व गति अध्ययनों” की शुरुआत की जिससे निष्पादन के उचित प्रमाप निर्धारित किए जा सकें ।

समय-अध्ययन (Time Study):

किसी क्रिया को रोकने में कितना समय लगना चाहिए, इस अध्ययन को टेलर ने समय अध्ययन का नाम दिया इस अध्ययन से किसी कार्य के निष्पादन (करने से) में कर्मचारी द्वारा लगाए गए समय का मापन किया जाता है इसके लिए उन्होंने विराम घड़ी (Stop Watch) के प्रयोग का सुझाव दिया इस अध्ययन के अन्तर्गत बीच-बीच में आराम के लिए निकाले गए समय का भी ध्यान रखा जाता है । इस प्रकार समय अध्ययन के आधार पर किसी काम में लगने वाले समय का प्रमापित समय (Standard Time) निर्धारित किया जाता है ।

गति अध्ययन (Motion Study):

गति अध्ययन किसी कार्य को करते समय उसमें होने वाली विभिन्न हरकतों (Motions) का क्रमबद्ध विश्लेषण है । इस अध्ययन के अन्तर्गत गतियों का विश्लेषण करके आवश्यक गतियों (Motions) का पता लगाया जाता है तथा अनावश्यक गतियों को रोका जाता है ।

इस प्रकार गति-अध्ययन के आधार पर काम में होने वाली विभिन्न गतियों का प्रमापीकरण (Standardisation) किया जाता है । लिलियन गिलब्रेथ (Lillian Gilbreth) जो गति अध्ययन के प्रवर्तक हैं, के शब्दों में, “गति अध्ययन, अनावश्यक, गलत दिशा एवं अकुशल गतियों के फलस्वरूप होने वाली बर्बादी का उन्मूलन करने का विज्ञान है ।”

अत: उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रमापीकरण वैज्ञानिक प्रबन्ध का एक प्रमुख अंग है जो पर्याप्त अनुसन्धान व्यवस्थित समय व गति अध्ययन के पश्चात् ही निर्धारित किया जाता है । इसके अन्तर्गत कार्य की मात्रा, विभिन्न विधियों समय गतियों मशीनों औजारों सामग्री आदि के प्रमाप तय किए जाते हैं ।

6. श्रमिकों का वैज्ञानिक चयन व प्रशिक्षण (Scientific Selection and Training of Workers):

श्रमिकों के वैज्ञानिक चुनाव एवं प्रशिक्षण पर टेलर ने विशेष बल दिया । श्रमिकों का चुनाव करते समय, चुनाव करने वाले अधिकारी को सबसे पहले सम्बन्धित काम का विश्लेषण करके यह मालूम करना चाहिए कि उस काम के लिए उपयुक्त व्यक्ति में क्या-क्या गुण होने चाहिए और फिर उस व्यक्ति का चुनाव करना चाहिए जिसमें वे गुण पाये जाते हों । इनके चुनाव का उद्देश्य- “मनुष्य कार्य के लिए तथा कार्य मनुष्य के लिए” होना चाहिए ।

श्रमिकों का चुनाव करते समय शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ शारीरिक एवं मानसिक योग्यता पर भी ध्यान देना चाहिए । श्रमिकों का चुनाव ही पर्याप्त नहीं है अपितु चुनाव के बाद इन्हें उपयुक्त प्रशिक्षण भी देना चाहिए ।

7. कार्य का वैज्ञानिक विभाजन (Scientific Allotment of Task):

श्रमिकों का वैज्ञानिक ढंग से चुनाव एवं प्रशिक्षण निरर्थक हो जाएगा यदि “सही व्यक्ति को सही कार्यं” (Right Man on the Right Job) पर नहीं लगाया गया अर्थात् प्रत्येक श्रमिक को वही काम दिया जाए जिसके लिए वह सबसे ज्यादा उपयुक्त है । कार्य की अपेक्षाओं के अनुरूप योग्यता न रखने वाले व्यक्ति से प्रभावकारी ढंग से कार्य पूरा करने की आशा नहीं रखी जा सकती इस प्रकार कार्य का वैज्ञानिक वितरण भी वैज्ञानिक प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण तत्व है । इससे कार्यक्षमता बढ़ती है ।

8. कुशल लागत लेखा प्रणाली (Efficient Cost Accounting System):

उत्पादन के सभी स्तरों पर लागत चेतना (Cost-Consciousness) का निर्माण वैज्ञानिक प्रबन्ध का एक महत्वपूर्ण तत्व है । प्रति इकाई लागत कम करने के साथ-साथ उत्पादन बढ़ाना कुशल लागत लेखा प्रणाली का प्रमुख उद्देश्य होता है ।

किम्बाल और किब्बाल के अनुसार- “एक अच्छी लागत लेखा प्रणाली से प्रबन्धकों को कार्य-कलापों की जानकारी कार्य-प्रगति के साथ-साथ होती रहती है जिससे प्रबन्धक कार्य के समाप्त होने तक परीक्षा करने के बदले हानियाँ एवं कठिनाइयों को टाल सकता है ।”

स्प्रीगल ने इसका समर्थन किया और कहा कि- “लागत लेखा निश्चय ही वैज्ञानिक प्रबन्ध का परिणाम है ।” बेची जाने वाली वस्तु का मूल्य निर्धारण करने के लिए, श्रमिकों की कार्य क्षमता की जाँच करने के लिए तथा उत्पादन की विभिन्न क्रियाओं में अपव्यय रोकने के लिए कुशल लागत लेखा पद्धति का होना आवश्यक है । आजकल तो अग्रिम आदेश प्राप्त होते हैं, उनके बारे में लागत व्यय मालूम करने के लिए भी कुशल लागत लेखा पद्धति का होना अनिवार्य हो गया है ।

9. मानसिक क्रान्ति (Mental Revolution):

टेलर के अनुसार- “मानसिक क्रान्ति वैज्ञानिक प्रबन्ध का सार है ।” साधारण अर्थों में मानसिक क्रान्ति का आशय श्रमिकों एवं प्रबन्धकों की मान्यताओं, विचारों तथा मनोवृत्तियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने से है टेलर के अनुसार जब तक श्रमिक संस्था की योजना में रुचि नहीं लेते तथा प्रबन्धक योजना को लागू करने में अपनी पूर्ण कुशलता को काम में नहीं लेते तब तक व्यवसाय की प्रगति सम्भव नहीं है इसलिए आवश्यकता है, पारस्परिक विश्वास तथा सद्‌भावनापूर्ण वातावरण की जो दोनों पक्षों के विचारों में परिवर्तन आने से ही सम्भव है वैज्ञानिक प्रबन्ध का “सारभूत विचार द्विपक्षीय मानसिक क्रान्ति में है, जिससे कि श्रमिक अपने कार्य के प्रति, अपने साथी कर्मचारियों के प्रति तथा नियोक्ता के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन ला सकें तथा प्रबन्धक अपने साथियों के प्रति, कर्मचारियों के प्रति तथा उनकी दैनिक समस्याओं के प्रति अपने विचारों में परिवर्तन ला पाएँ….।”

अतएव “दोनों पक्षों की पूर्ण मानसिक क्रान्ति के अभाव में वैज्ञानिकप्रबन्ध का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है ।” मानसिक क्रान्ति के अन्तर्गत श्रमिकों और प्रबन्धकों के दृष्टिकोण में वांख्ति परिवर्तन आना चाहिए जिससे वे शंका व संघर्ष के स्थान पर सामंजस्य और सहयोगपूर्ण ढंग से काम-काज कर सकें ।

प्रबन्धकों और श्रमिकों को मिल-जुलकर अधिकतम उत्पादन और अधिकतम मजूदूरी के लिए कार्य करना चाहिए तथा परम्परागत व्यक्तिगत निर्णय के स्थान पर वैज्ञानिक अनुसंधान व ज्ञान के आधार पर निर्णय लिए जाने चाहिए टेलर के अनुसार उपक्रम को सफल बनाने के लिए श्रमिकों तथा प्रबन्धकों की मान्यताओं तथा विचारों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाना आवश्यक है ।

“सुन्दर, वैज्ञानिक तथा नवीनतम् मशीनों तथा औजारों का प्रयोग तभी सुखद परिणाम दे सकता है, जबकि उद्योगपति तथा श्रमिकों के मानवीय सम्बन्ध सुदृढ़ हों तथा इनके बीच की विचार-विषमता को दूर किया जा सके ।” टेलर ने इस प्रकार के ‘रचनात्मक परिवर्तन’ को मानसिक क्रान्ति की संज्ञा दी है ।

वैज्ञानिक प्रबन्ध की सबसे महत्वपूर्ण शर्त श्रमिकों तथा प्रबन्धकों के मानसिक दृष्टिकोण का परिवर्तन है । यह आवश्यक है कि प्रबन्ध और कर्मचारी दोनों ही परम्परागत विधियों के स्थान पर नवीन वैज्ञानिक विधियों की उपयोगिता समझें दोनों को यह विश्वास हो कि एक-दूसरे का हित प्रतिकूल नहीं है । श्रमिक प्रबन्धकों में विश्वास रखे तथा प्रबन्धक श्रमिकों के प्रति हित भावना रखें इसका प्रभाव यह पड़ेगा कि प्रबन्धक तथा श्रमिक के बीच संघर्ष के स्थान पर सहयोग एवं सद्‌भाव बढ़ेगा ।

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