वैज्ञानिक प्रबंधन की आलोचना | Read this article in Hindi to learn about the criticisms of scientific management.
निर्माताओं एवं उत्पादकों द्वारा आलोचना (Criticism by Manufacturers and Producers):
(i) अत्यधिक खर्चीली पद्धति (Excessively Expensive System):
वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना को लागू करने के लिए उत्पादकों को बहुत-सी कार्यवाहियाँ करनी पड़ती हैं, जैसे-समय, गति, उत्पादन-विधि आदि का वैज्ञानिक अध्ययन, पुराने औजारों तथा उपकरणों के स्थान पर नए प्रमापित औजारों व उपकरणों का क्रय, अनेक विशेषज्ञों की नियुक्तियाँ आदि इन सारी कार्यवाहियों में बड़ी धनराशि खर्च करनी पड़ती है ।
(ii) प्रबन्ध में स्वतन्त्रता की कमी (Lack of Freedom in Management):
वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत निर्णय विशेषज्ञों द्वारा लिए जाते हैं, जिससे उत्पादकों की निर्णय लेने की स्वतन्त्रता कम हो जाती है । इसलिए अधिकतर निर्माता व उत्पादक वैज्ञानिक प्रबन्ध को लागू करने में हिचकिचाते हैं ।
(iii) वर्तमान व्यवस्था का भंग होना (Disturbance in the Present System):
वैज्ञानिक प्रबन्ध में सुधार करने के लिए अनेक प्रयोग करने पड़ते है ऐसी दशा में वह कारखाना, कारखाना न रह कर एक प्रयोगशाला बन जाती है । इसमें कुछ समय के लिए मारी वर्तमान व्यवस्था चौपट हो जाती है ।
(iv) प्रमापीकरण की समस्या (Problem of Standardisation):
वैज्ञानिक प्रबन्ध में प्रमापीकरण अत्यन्त आवश्यक होता है, किन्तु पूर्ण प्रमापीकरण प्राप्त करना सरल नहीं है ।
(v) विशाल पूंजी की आवश्यकता (Need for Huge Capital):
निर्माताओं का विचार है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना को लागू करने के लिए बहुत बड़ी मात्रा में पूँजी लगानी पड़ेगी और यह भी निश्चित नहीं कि उसका उचित प्रतिफल मिले या न मिले नए प्रयोगों के लिए, प्रमापित मशीनों तथा यन्त्रों को प्राप्त करने के लिए तथा फोरमैन नियुक्त करने के लिए, काम करने की दशाओं में सुधार करने के लिए निश्चित ही अधिक पूँजी की आवश्यकता पड़ती है ।
(vi) लघु संस्थाओं के लिए अनुपयुक्त (Unsuitable for Small Concerns):
निर्माताओं व उत्पादकों का कहना है कि छोटी ठीटी संस्थाओं में वैज्ञानिक प्रबन्ध का उपयोग नहीं किया जा सकता और इसके लाभ प्राप्त नहीं किये जा सकते । कारण, इन संस्थाओं के पास पूंजी की कमी होती है साथ ही ये संस्थाएँ विशेषज्ञों की सलाह नहीं ले सकती हैं और न ही उनको नियुक्त कर सकती है ।
(vii) मन्दी में उपरिव्ययों का भार (Overhead Burdensome during Slack period):
यह कहा जाता है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना को लागू करने में अत्यधिक पूंजी लगाई जाती है और बाद में मन्दी की स्थिति आ जाए तो उसका भार वहन करना अत्यन्त कठिन हो जाता है ।
श्रमिकों द्वारा आलोचना या विरोध (Criticism or Opposition by Labourers):
वैज्ञानिक प्रबन्ध का श्रमिक निम्नलिखित कारणों से विरोध करते हैं:
(i) बेरोजगारी का डर (Fear of Unemployment):
वैज्ञानिक प्रबन्ध में श्रमिकों की कुशलता तथा उत्पादकता में वृद्धि होती है । परिणामस्वरूप, उसी कार्य को करने के लिए अब कम श्रमिकों की जरूरत पड़ती है । इसलिए श्रमिक सोचते हैं कि यदि वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना को लागू किया गया तो अनेक श्रमिकों को निकाल दिया जाएगा जिससे बेरोजगारी बढ़ेगी ।
श्रमिकों का यह सोचना अल्पकाल में सही हो सकता है क्योंकि योजना लागू करने पर ऐसे श्रमिकों को निकाला जा सकता है जो कार्यकुशल न हों और जो काम के लिए उपयुक्त न हों । परन्तु दीर्घकाल में बेरोजगारी बढ़ने की अधिक सम्भावना नहीं रहती है क्योंकि उत्पादन बढ़ने पर माँग बढ़ सकती है और अधिक श्रमिकों की आवश्यकता पड़ सकती है ।
(ii) शोषण (Exploitation):
श्रमिकों का आरोप है कि वेज्ञानिक प्रबन्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली अधिक उत्पादकता, उनके प्रयासों के कारण हुई है । परन्तु प्रबन्धक इस अधिक उत्पादकता से हुए लाभ का अधिकांश भाग उन्हें-नहीं देते । यद्यपि उत्पादकता दुगुनी या तिगुनी बढ़ जाती है परन्तु उनकी मजूदूरी इसी अनुपात में नहीं बढ़ती है । अतएव उनका शोषण किया जाता है ।
बढ़े हुए लाभ में से श्रमिकों को भाग देने के बारे में प्रबन्धकों का कहना है कि लाभ में होने वाली वृद्धि केवल उन्हीं के प्रयासों के कारण ही नहीं है । यह वृद्धि कुशल प्रबन्ध सामग्री, मशीनों उपकरणों आदि में किए गए सुधार के कारण भी होती है । साथ ही बड़े हुए लाभ का एक भाग उपभोक्ताओं को भी देना होता है अत: श्रमिकों की मजूदूरी अपेक्षाकृत अधिक नहीं बक्ष्यी जा सकती ।
(iii) पहल-शक्ति में ह्रास (Loss of Initiative):
श्रमिकों द्वारा यह आरोप लगाया जाता है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध श्रमिकों को “स्वचालित मशीन” में बदल देता है । उन्हें न तो सोचने का अवसर दिया जाता है न ही अपनी योग्यता दिखाने का । उनकी की विचारधारा का विकास-टेलर, फेयोल एवं प्रणाली उपागम । पहल-शक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है उन्हें अपनी इच्छा से काम नहीं करने दिया जाता बल्कि उन्हें फोरमैनों के आदेशों व निर्देशों के अनुसार काम करना पड़ता है ।
यह सही है कि बहुत से प्रतिभाशाली तथा उत्साही श्रमिक अपनी प्रतिभा को आसानी से चमका नहीं पाते । परन्तु हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि वैज्ञानिक प्रबन्ध यह मान्यता लेकर चलता है कि, ”श्रमिक कार्य करने की विधि स्वयं नहीं निकाल सकते ।”
(iv) श्रम-संघों द्वारा विरोध (Criticism by Trade Unions):
इसका विरोध श्रमिक-संघ भी करते हैं क्योंकि यह सभी श्रमिकों को एक सूत्र में बाँधने नहीं देता । इसके अन्तर्गत मजूदूरी देने की विभेदात्मक दर प्रणाली (Differential) को अपनाया जाता है जिसके कारण श्रमिकों को मजदूरी बराबर-बराबर नहीं मिलती कुछ श्रमिक अधिक मजूदूरी पाते हैं और कुछ कम ।
उनमें इस भेद के कारण आपस में विभाजन हो जाता है तथा उनकी आपसी एकता कमजोर पड़ जाती है । साथ ही श्रमिकों से सम्बन्धित विवादों का निपटारा भी प्रबन्धक वैज्ञानिक आधार पर, अनुसन्धान के माध्यम से करते हैं । इन सबका प्रभाव यह पड़ता है कि श्रम-संघ आन्दोलन कमजोर होता चला जाता है ।
परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता । अमेरिका व अन्य देशों में जहाँ वैज्ञानिक प्रबन्ध लागू किया गया, इसके फलस्वरूप श्रम संघ की शक्ति में कोई विशेष कमी नहीं आयी श्रम-संघ के नेता श्रमिकों को एक सूत्र में बाँधने का कोई न कोई नया तरीका ढूँढ़ ही निकालते हैं ।
(v) प्रबन्ध द्वारा अनावश्यक हस्तक्षेप तथा मनमानी (Unwanted Interference and Arbitrary Rule by Management):
श्रमिकों के काम के पर्यवेक्षण (Supervision) के लिए कई नायक नियुक्त किए जाते हैं, जो बात-बात पर श्रमिकों के कार्य में हस्तक्षेप करते हैं जिससे श्रमिकों में असन्तोष पैदा होता है । छोटी-छोटी बातों में अनावश्यक हस्तक्षेप उन्हें कष्ट देता है और वे भड़कते हैं जिस प्रकार लाल कपड़ा देखकर बैल ।
उसी प्रकार श्रमिकों के साथ मनमाना व्यवहार करने का भी अवसर मिलता है । अतएव प्रबन्धकों की शक्ति में वृद्धि करने से एक ही व्यक्ति के हाथों में समस्त अधिकार आ जाएंगी तथा वह मनमानी करेगा ।
परन्तु यह वैज्ञानिक प्रबन्ध का कोई दोष नहीं है । इसलिए वैज्ञानिक प्रबन्ध में मानसिक क्रान्ति पर बल दिया गया है । टेलर कहते हैं कि एक अच्छी पद्धति भी अयोग्य प्रबन्धकों के हाथ में पढ़कर बेकार हो जाती है । अत: सफलता के लिए ‘उत्तमप्रणाली’ तथा ‘उत्तम शक्ति’ दोनों ही समान रूप से आवश्यक हैं ।
(vi) नीरसता की समस्या (Problem of Monotony):
नियोजन व निष्पादन (Doing) की क्रियाओं को अलग-अलग करके वैज्ञानिक प्रबन्ध कार्य को नैत्यक (Routine) तथा नीरस बना देता है । एक स्वचालित पुर्जे की भांति प्रत्येक श्रमिक मूल कार्य के केवल एक छोटे-से भाग को ही करता है । इससे कार्य नीरस तथा अरुचि पूर्ण हो जाता है ।
श्रमिकों का यह तर्क काफी सही है और इसे दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि कार्य में कुछ सरसता लायी जाए ।
(vii) कठिन परिश्रम (Hard Labour):
श्रमिकों का आरोप है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध के अन्तर्गत उन्हें अपना काम तेजी के साथ करना पड़ेगा और कठिन परिश्रम करके और अधिक काम करना पड़ेगा । इसका प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा
यह आलोचना कुछ सही है क्योंकि वैज्ञानिक प्रबन्ध को लागू करने वाले निश्चय ही श्रमिकों से अधिक काम लेना चाहेंगे । इस प्रकार प्रबन्धक पर्यवेक्षण व्यवस्था भी ऐसी करेंगे कि श्रमिक अपना समय बर्बाद न करें तथा निरन्तर अपना काम करते रहें । परन्तु यदि वैज्ञानिक प्रबन्ध की योजना को सुचारु रूप से चलाया जाए, श्रमिकों की कार्य की दशाएँ ठीक रखी जाएँ, थकान-अध्ययन करके उन्हें निश्चित समय के बाद विश्राम दिया जाए तो उन पर कार्य का भार निश्चित ही कम पड़ेगा ।
अन्य आलोचनाएँ (Other Criticisms):
(i) मानवीय पक्ष तथा सामाजिक सन्तुष्टि की उपेक्षा (Human Aspect and Social Satisfaction Ignored):
टेलर की यह मान्यता थी कि एक व्यक्ति समूह की अपेक्षा व्यक्तिगत रूप से अधिक कार्य करता है किन्तु उनकी धारणा गलत थी क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । वह मिलकर कार्य करना चाहता है । टेलर को यह नहीं भूलना चाहिए था कि मनुष्य का यह सामाजिक आवश्यकता होती है कि वह मिलकर कार्य करें । टेलर ने उत्पाद की वृद्धि की ओर विशेष ध्यान दिया परन्तु मानवीय पक्ष की या तो उपेक्षा की या बहुत कम ध्यान दिया ।
(ii) प्रथम श्रेणी के श्रमिकों की धारणा अव्यावहारिक (First Class Man Concept not Practical):
कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए टेलर ने “प्रथम श्रेणी के श्रमिक” की नियुक्ति की बात कही । टेलर के अनुसार किसी प्रतिष्ठन में अधिकतम कार्यक्षमता उसी हालत में प्राप्त की जा सकती है, जबकि संस्था के प्रत्येक कार्य पर योग्यतम व्यक्ति की नियुक्ति हो । ऐसे व्यक्ति को उन्होंने “प्रथम श्रेणी का श्रमिक” (First Class Man) कहा ।
टेलर की यह प्रथम श्रेणी का श्रमिक की धारणा अव्यावहारिक है जिसे उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि व्यक्ति योग्यतानुसार भिन्न-भिन्न होते हैं ।
(iii) विशिष्टीकरण पर आवश्यकता से अधिक बल (More Emphasis on Specialisation):
टेलर ने विशिष्टीकरण पर आवश्यकता से अधिक बल दिया । उनका कहना था कि विशिष्टीकरण से उत्पादकता बढ़ती है । परन्तु आलोचकों के अनुसार यह बात हर परिस्थिति में सही नहीं है क्योंकि आवश्यकता से अधिक विशिष्टीकरण, कार्य में रुकावट तथा नीरसता लाता है और इससे व्यक्ति में पहलपन-शक्ति समाप्त हो जाती है ।
(iv) प्रबन्धकीय समस्याओं की उपेक्षा (Managerial Problems Ignored):
टेलर ने कारखाना-स्तर की समस्याओं पर अधिक ध्यान दिया, जबकि उससे भी अधिक महत्वपूर्ण प्रबन्धकीय समस्याएं थी, जिनको उन्होंने अपने कार्य-कलापों से काफी दूर रखा इस प्रकार टेलर ने प्रबन्धकीय प्रशासनिक समस्याओं की उपेक्षा की ।
(v) तकनीकी विशेषज्ञों पर अधिक बल (More Emphasis on Technical Experts):
टेलर ने तकनीकी विशेषज्ञों पर विशेष बल दिया । परन्तु ये तकनीकी विशेषज्ञ अपने सीमित दृष्टिकोण से सब समस्याओं को देखते हैं तथा उनमें समग्र भाव जाग्रत नहीं होता है, जबकि मनुष्य एक समग्र प्राणी है और समग्र परिस्थितियों में काम करता है ।
(vi) प्रबन्ध के अन्य पहलुओं की उपेक्षा (Other Aspects of Management Ignored):
टेलर ने उत्पादन के अतिरिक्त प्रबन्ध के अन्य पहलुओं की उपेक्षा की जैसे-वित्तीय प्रबन्ध, विपणन प्रबन्ध आदि । उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद भी यह कहना अप्रासगिक नहीं होगा कि टेलर के विचार मानव सभ्यता के इतिहास में प्राथमिक हैं जिन्होंने परम्परावादी विचारों के स्थान पर वैज्ञानिक विधियों पर आधारित विचार रखे है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रबन्धशास्त्रियों के सामने टेलर ने उन दृष्टिकोणों को प्रस्तुत किया है जिनकी उस समय कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । कोपेन के अनुसार- “टेलर सम्पूर्ण वैज्ञानिक प्रबन्ध आन्दोलन की आत्मा है । इस प्रकार, प्रबन्ध समुदाय टेलर को तब तक याद करता रहेगा जब तक प्रबन्ध की आवश्यकता रहेगी ।”