Read this article in Hindi to learn about the traditional and modern theories of motivation.
अभिप्रेरणा की विचारधाराओं को निम्न दो भागों में बाँटा जा सकता है:
1. अभिप्रेरणा की पम्परागत विचारधाराएँ (Traditional Theories of Motivation):
अभिप्रेरणा की पम्परागत विचारधाराएँ यह मानती हैं कि व्यक्ति एक ही उद्देश्य से कार्य करता है और वह उद्देश्य है धन की प्राप्ति । व्यक्ति “आर्थिक मानव” (Economic Man) है और उसे धन के प्रलोभन द्वारा अधिक-से-अधिक कार्य करने की प्रेरणा दी जा सकती है । धन का प्रलोभन उसके व्यवहार को भी वाँछित दिशा दे सकता है । इसलिए प्रबन्धकों को चाहिए कि वे कर्मचारियों को अभिप्रेरित करने के लिए मौद्रिक प्रेरणाओं का सहारा लें ।
अभिप्रेरणा की कुछ प्रमुख पम्परागत विचारधाराएं निम्नलिखित हैं:
(1) भय एवं दण्ड विचारधारा (Fear and Punishment Theory):
अभिप्रेरणा की यह विचारधारा सबसे पुरानी है । यह विचारधारा इस मान्यता पर आधारित है कि भय दिखाकर, धमकी देकर तथा ताकत के बल पर ही व्यक्तियों को अधिक कार्य करने के लिए मजबूर किया जा सकता है ।
इस विचारधारा के समर्थक विद्वान् ”भय बिन प्रीति होय न देवा” को सभी कार्यों का मूलमन्त्र मानकर चलते हैं । यह विचारधारा सैनिक आदेश की तरह चलती है । इस विचारधारा के समर्थक विद्वान यह मानते हैं कि व्यक्ति ‘धन प्राप्ति’ के लिए कार्य करता है । इसलिए उसे कार्य से हटा देने की धमकी देकर या भय दिखाकर उसे अधिक कार्य लेने के लिए प्रेरित किया जा सकता है । यह विचारधारा खोद्योगिक क्रान्ति के प्रारम्भिक वर्षों में बड़ी कारगर सिद्ध हुई थी क्योंकि लोगों के पास रोजगार नहीं था तथा वे भूखों मरते थे ।
आज भी इस विचारधारा के अनेक समर्थक है । परन्तु आधुनिक युग में इस विचारधारा को उपयोगी एवं व्यावहारिक नहीं माना जा सकता । एक स्वतन्त्र प्रजातन्त्र समाज में न तो इन तरीकों को अपनाना सम्भव है और न ही व्यावहारिक । इसके अतिरिक्त यह एक ऋणात्मक प्रेरणा है जिसका उपयोग आज की परिस्थितियों में किसी संस्था के हित में नहीं किया जा सकता । आज यह स्वीकार किया जाने लगा है कि भय एवं दण्ड कर्मचारियों को हतोत्साहित करता है तथा उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।
(2) पुरस्कार विचारधारा (Reward Theory):
वैज्ञानिक प्रबन्ध के जन्मदाता एफ.डब्ल्यू.टेलर ने इस विचारधारा को विकसित करने का प्रयास किया है । उनके अनुसार- “एक व्यक्ति को अधिक धन दो, वह अधिक उत्पादन करेगा ।” उनका विचार था कि व्यक्ति मिलने वाले पुरस्कार के अनुरूप ही कार्य करता है ।
यदि उसे प्रेरणात्मक मजदूरी दी जाए तो वह अधिक मेहनत व लगन से कार्य करेगा उनका विचार है कि अच्छी कार्य दशाएँ एवं अच्छा प्रतिफल कर्मचारियों को अभिप्रेरित करता है । टेलर के अनुसार मौद्रिक अभिप्रेरणाएँ व्यक्ति को कार्य के प्रति इच्छा तथा शक्ति उत्पन्न करने के लिए महत्वपूर्ण हैं ।
यह विचारधारा वातावरण के मानवीय सम्बन्धों को श्रेष्ठ बनाने पर भी जोर देती है । यह विचारधारा केवल मौद्रिक साधनों को ही अभिप्रेरणा का आधार मानती है, परन्तु मुद्रा ही व्यक्तियों को अभिप्रेरित नहीं कर सकती सच्चाई तो यह है कि पुरस्कार अभिप्रेरक है ही नहीं-वे तो केवल प्रेरणाएँ (Incentives) हैं ।
पीटर ड्रकर के अनुसार- “मौद्रिक पुरस्कारों से सन्तुष्ट होना पर्याप्त अभिप्रेरणा नहीं है ।” अवित्तीय साधन भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं । इसके अतिरिक्त अभिप्रेरणा मूल रूप में मनोवैज्ञानिक है जिसे इस विचारधारा में कोई स्थान नहीं दिया गया है परन्तु आज भी अधिकतर कर्मचारियों के लिए मजदूरी अथवा वेतन सबसे बड़ा अभिप्रेरक है ।
(3) ‘केरट’ एवं ‘स्टिक’ विचारधारा (Carrot and Stick Theory):
इस विचारधारा के अनुसार उन व्यक्तियों को अभिप्रेरित करने के लिए पुरस्कार दिया जाना चाहिए जिनका निष्पादन (Performance) निर्धारित न्यूनतम स्तर से ऊपर है तथा उन्हें दण्ड दिया जाना चाहिए जिनका निष्पादन निर्धारित न्यूनतम से कम है । अर्थात् जो व्यक्ति अधिक मेहनत से कार्य करता है, उसे पुरस्कार मिलता है तथा जो सामान्य कार्य-क्षमता से कम कार्य करता है, उसे दण्ड मिलता है । इस तरह इस विचारधारा के पीछे ”भय और लाभ’ दोनों छुपे हुए हैं ।
यह विचारधारा, उस समय तक, जब तक कि एक व्यक्ति अपने जीवन-यापन के लिए जूझता रहता है, सही कार्य करती है । लेकिन एक बार जब व्यक्ति के जीवन-निर्वाह की आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो जाती है तब इस विचारधारा का कोई महत्व नहीं रहता है ।
मैकग्रेगर लिखते हैं कि, ‘केरट’ एवं ‘स्टिक’ विचारधारा एक बार व्यक्ति के जीवन-निर्वाह स्तर पर पहुँच जाने के बाद कार्य नहीं करती क्योंकि तब व्यक्ति उच्चतम आवश्यकताओं से अभिप्रेरित होता है । अत: यह स्पष्ट है कि यह विचारधारा तब तक ही सफल होगी जब तक कर्मचारियों की शारीरिक एवं सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएँ पूरी तरह से सन्तुष्ट नहीं होती हैं ।
जैसे ही व्यक्तियों की ये आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो जातो हैं तभी से यह विचारधारा उपयोगी नहीं रहती है आज के युग में इस विचारधारा का महत्व बहुत कम है क्योंकि यह विचारधारा जिन साधनों को अभिप्रेरित करने का आधार बनाती है वे सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं ।
परम्परागत विचारधाराओं के असफल होने के कारण (Causes of Failure of Traditional Theories):
अभिप्रेरणा की उपरोक्त परम्परागत विचारधाराएँ व्यक्तियों को अभिप्रेरित करने में असफल रही हैं, क्योंकि ये उन मान्यताओं पर आधारित हैं जिन्हें मैकग्रेगर ने ‘एक्स विचारधारा’ (Theory-X) कहते हैं । Theory-X यह मानकर चलती है कि व्यक्ति स्वभाव से सुस्त होते है तथा वे काम नहीं करना चाहते, अधिकतर व्यक्तियों में किसी प्रकार की कोई इच्छा अथवा आकांक्षा नहीं होती हे ।
वे दायित्व लेने से डरते है । स्वभाव से परिवर्तनों के विरोधी तथा मन्द-बुद्धि होते है । अत: संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए इन व्यक्तियों को नियन्त्रित करना पड़ता है, तथा इन पर दबाव डालना पड़ता है । मैकग्रेगर मानते हैं कि यह विचारधारा गलत धारणाओं पर आधारित है । अत: ये विचारधारा अभिप्रेरणा का उचित साधन नहीं बन सकती है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि परम्परावादी विचारधाराएँ उपरोक्त वर्णित की गई मिथ्या मान्यताओं पर आधारित होने के कारण व्यक्तियों को अभिप्रेरित करने में असफल रही हैं ।
2. अभिप्रेरणा की आधुनिक विचारधाराएँ (Modern Theories of Motivation):
इनके अन्तर्गत हम केवल निम्नलिखित का वर्णन करेंगे:
(1) मास्लो की आवश्यकता-प्राथमिकता विचारधारा;
(2) हर्जबर्ग की अभिप्रेरक-अनुरक्षक तत्वों की विचारधारा;
(3) मैकग्रेगर की X तथा Y विचारधारा;
(4) विलियम आउची की Z विचारधारा ।
(1) मास्लो की आवश्यकता:
प्राथमिकता विचारधारा (Maslow’s Need Hierarchy Theory):
इस विचारधारा के प्रतिपादक अब्राहम मास्लों है । मास्लो ने अभिप्रेरणा की विचारधारा को आवश्यकताओं की क्रमबद्धता के आधार पर विकसित किया उनके अनुसार मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त हैं तथा वह इन को पूरा करने के लिए एक क्रम को अपनाता है । एक व्यक्ति में काम के प्रति रुचि एवं शक्ति जाग्रत करने के लिए उसकी एक के बाद दूसरी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना आवश्यक है ।
मास्लो ने मनुष्य की आवश्यकताओं को पाँच भागों में बाँटा है:
(i) शारीरिक आवश्यकताएँ (Physiological Needs):
ये मनुष्य की अधारभूत आवश्यकताएँ हैं तथा ये जीवन को कायम रखने के लिए आवश्यकता होती है । इनमें भोजन, वस्त्र, आवास, पानी, निद्रा, विश्राम, यौन-सुख आदि को शामिल किया जाता है ।
(ii) सुरक्षा सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Safety Needs):
इन आवश्यकताओं को आगे तीन उप-भागों में बाँटा जा सकता है:
(a) भौतिक सुरक्षा (Physical Needs) के अन्तर्गत बीमारी, दुर्घटना, शारीरिक हानि, आक्रमण आदि से बचाव करना आता है ।
(b) आर्थिक सुरक्षा (Economic Safety) के अन्तर्गत सम्पत्ति की सुरक्षा, आय की सुरक्षा तथा वृद्धावस्था के लिए उचित व्यवस्था करना आदि आते है एवं
(c) मनोवैज्ञानिक अथवा मानसिक सुरक्षा (Psychological Safety) के अन्तर्गत, विभिन्न प्रकार की अनिश्चितताओं से छुटकारा जैसे न्याय तथा सहानुभूति की आशा आदि ।
(iii) सामाजिक आवश्यकताएँ (Social Needs):
मनुष्य चाहता है कि उसके मित्र व सम्बन्धी हों जिनके साथ वह अपना दु:ख-दर्द बाँट सके, मिलकर खुशी मना सके तथा अपना समय व्यतीत कर सके सामाजिक प्राणी होने के नाते वह चाहता है कि समाज के अन्य व्यक्ति उसे समाज का एक अभिन्न अंग समझें मास्लो इन्हें सामाजिक आवश्यकताएँ कहते हैं ।
(iv) सम्मान व पद को आवश्यकताएँ (Esteem and Status Needs):
ये मनुष्य की अहम्-आवश्यकताएँ (Ego Needs) कहलाती हैं । प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि समाज में उसका मान-सम्मान हो तथा उसे अधिकार व शक्ति प्राप्त हो । उसे अच्छे कार्य के लिए मान्यता मिले तथा पदोन्नति के पर्याप्त अवसर मिलें इनमें से कुछ आवश्यकताएँ तो जीवन-भर सन्तुष्ट नहीं हो पातीं, परन्तु कुछ अवश्य ही सन्तुष्ट हो जाती हैं ।
(v) आत्म-प्राप्तिया स्वयं विकास की आवश्यकताएँ (Self-Actualisation Needs):
इस प्रकार की आवश्यकताओं में मनुष्य जितना बनने की योग्यता व क्षमता रखता है, उतना वह बन जाए । जैसे-एक कलाकार कला-कृतियाँ बना सके, संगीतकार संगीत बना सकता तथा कवि-कविताएं लिख सके । मनुष्य की इस प्रकार की इच्छा के हम आत्म-प्राप्ति अथवा स्वयं विकास की आवश्यकता कहते हैं । मास्लो के अनुसार- “मनुष्य क्या बन सकता है, यह बनना चाहिए” (What a Man can be, he must be) । आमतौर पर मनुष्य अपनी निम्न स्तर की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में लगे रहते हैं और इस स्तर पर नहीं पहुँच पाते ।
मास्लो के अनुसार, मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति एक क्रम में करता है । मनुष्य सबसे पहले अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करता है । इनके पूरा होने के पश्चात् वह सुरक्षा-सम्बन्धी आवश्यकताओं के बारे में सोचता है तथा इन्हें पूरा करने की चेष्टा करता है ।
इनके पूरा होने पर मनुष्य में सामाजिक मान-सम्मान, मान्यता अधिकार व शक्ति की आवश्यकता उत्पन्न होती है तथा अन्त में उच्च स्तर प्राप्त करने के लिए तथा कोई सृजनात्मक कार्य करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है । इस प्रकार अगले स्तर तक जाने से पूर्व स्तर की आवश्यकताएँ पूरी की जाती हैं । इस क्रम के साथ-साथ बढ़ने की सीमा प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होती है तथा जैसे-जैसे एक व्यक्ति अन्तिम लक्ष्य आत्मप्राप्ति की ओर बढ़ता है, यह प्रगति कठिनतम होती चली जाती है ।
मास्लो की अभिप्रेरण, की यह विचारधारा निम्न चार मान्यताओं पर आधारित है:
(i) मनुष्य का प्रत्येक कार्य किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया जाता है तथा इन आवश्यकताओं को इनके मौलिक रूप से पाँच आधारभूत वर्गों में बाँट सकते हैं ।
(ii) मनुष्य की इन पाँच आवश्यकताओं का एक निश्चित प्राथमिकता क्रम होता है । यद्यपि मनुष्य की इन आवश्यकताओं का यह प्राथमिकता क्रम अटल नहीं होता फिर भी भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में यह प्राथमिकता क्रम कुछ बदल भी सकता है ।
(iii) सन्तुष्ट आवश्यकताएँ मनुष्य को अभिप्रेरित नहीं करती हैं । तब मनुष्य दूसरी आवश्यकताओं की पूर्ति में व्यस्त हो जाता है । इस प्रकार आवश्यकताओं का चक्र निरन्तर चलता रहता है । ये आवश्यकताएँ पुन: भी उपस्थित हो सकती हैं ।
(iv) उच्च स्तर की आवश्यकता तब तक मनुष्य के व्यवहार पर प्रभाव नहीं डाल सकती जब तक उससे निम्न स्तर की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि नहीं हो पाती । अर्थात् उच्च-स्तर की आवश्यकताओं के महत्वपूर्ण बनने से पूर्व निम्न-स्तर की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना आवश्यक होता है ।
आलोचनाएँ (Criticism):
यह विचारधारा मानवीय सम्बन्ध के आशावादी दृष्टिकोण पर आधारित है और सामान्यतया सभी को उचित प्रतीत होती है ।
परन्तु अनेक विद्वानों ने अपने अध्ययनों तथा अनुसन्धानों के आधार पर इसको गलत पाया और इसकी आलोचनाएँ की जो कि निन्नलिखित हैं:
(i) मास्लो द्वारा दिया गया आवश्यकता प्राथमिकता क्रम सदैव सही नहीं उतरता ।
(ii) यह जरूरी नहीं है कि जब तक मनुष्य की निम्न आवश्यकताएँ सन्तुष्ट न हों, उच्च आवश्यकताएँ बलबती नहीं होंगी ।
(iii) मनुष्य का व्यवहार केवल आवश्यकताओं द्वारा ही निर्धारित नहीं होता । आवश्यकताओं के अलावा अन्य तत्व भी व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करते हैं ।
(iv) मनुष्य इतना दूरदर्शी नहीं होता है कि वह अपनी भावी आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगा सके ।
(v) आवश्यकताओं का महत्व भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न हो सकता है तथा इसका महत्व भिन्न-भिन्न भी हो सकता है ।
(vi) आवश्यकताओं को एक-दूसरे से अलग-अलग कर स्वतन्त्र वर्ग में रखना तर्क संगत नहीं है ।
(vii) आत्म-प्राप्ति या आत्म-विकास की आवश्यकता कोई वास्तविक आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है । यह मात्रा दार्शनिक आकांक्षा है ।
(viii) आवश्यकता तथा अभिप्रेरणा के बीच कोई प्रत्यक्ष कार्य-कारण सम्बन्ध (Casual Relationship) प्रतीत नहीं होता । उदाहरण के लिए, एक ही तरह की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अलग-अलग मनुष्यों को अलग-अलग ढंग से प्रयास करते देखा जा सकता है ।
(ix) यह जरूरी नहीं है कि असन्तुष्ट आवश्यकताएँ मनुष्य की सकारात्मक तरीके से एक दिशा में अभिप्रेरित करें । वे उसे निराशा तथा निकम्मेपन (निष्क्रियता) की ओर भी ले जा सकती हैं ।
(x) एडवर्ड लालेर तथा लॉयड सटले अपने शोध अध्ययन द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की तीव्रता मनुष्य-मनुष्य पर भिन्न है कुछ मनुष्यों के लिए सामाजिक आवश्यकताएँ महत्वपूर्ण हैं तो कुछ के लिए सम्मान व स्वाभिमान की आवश्यकता है ।
(2) हर्जबर्ग की अभिप्रेरक तथा अनुरक्षण तत्वों की विचारधारा (Herzber’s Motivation-Hygiene Theory):
फ्रेडरिक हर्जबर्ग तथा उनके साथियों ने पिट्सबर्ग क्षेत्र के करीब 200 अभियन्ताओं एवं लेखाकारों के साक्षात्कार से प्राप्त निष्कर्षों के आधार इस विचारधारा का विकास किया । इसे द्वि-घटक (Two-Factor Theory) भी कहा जाता है ।
इस सिद्धान्त के अनुसार आवश्यकताओं के दो वर्ग हैं:
(i) बाह्य, आरोग्य (स्वास्थ्य सम्बन्धी) कार्य-सन्दर्भ वाले अथवा अनुरक्षण घटक
(ii) आन्तरिक, कार्य-विषय वस्तु वाले या अभिप्रेरक (Motivators) घटक ।
अरोग्य (स्वास्थ्य सम्बन्धी) तत्वों से अभिप्राय उन तत्वों से है जिनकी विद्यमानता कर्मचारी को अभिप्रेरित नहीं करती परन्तु जिनकी अनुपस्थिति कर्मचारी को असन्तुष्ट करती है । ये तत्व कार्य के बाह्य वातावरण से सर्म्बान्धत होते हैं तथा कार्य के बाहरी वातावरण को प्रभावित करते हैं ।
आवश्यकताओं के पहले वर्ग को अनुरक्षण आवश्यकताएँ कहा जाता है यह वर्ग मास्लो को निम्नस्तरीय आवश्यकताओं-शारीरिक तथा सुरक्षात्मक आवश्यकताओं के समान हैं । आवश्यकताओं के दूसरे वर्ग को अभिप्रेरक कहा जाता है । यह मास्लो की उच्च स्तरीय आवश्यकताओं: सामाजिक, स्वाभिमान और आत्मविकास की आवश्यकताओं के समान है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मनुष्यों की दो विभिन्न प्रकार की आवश्यकताएँ होती हैं जो कि एक-दूसरे पर निर्भर नहीं है । ये मनुष्य के व्यवहार को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करती है । उनके अनुसार जब व्यक्ति अपने कार्यों से असन्तुष्ट होते हैं तो उनकी असन्तुष्टि का कारण उनके कार्य का वातावरण होता है जिसके अन्तर्गत वे कार्य करते हैं ।
हर्जबर्ग ने वातावरण को प्रभावित करने वाले घटकों को आरोग्य तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी तत्व (Hygiene Facrtors) कहा है । ये तत्व आवश्यकताओं के प्रथम वर्ग में आते हैं तथा कार्य के बाहरी वातावरण को प्रभावित करते हैं । हर्जबर्ग के अनुसार जब मनुष्य कार्य से सन्तुष्टि का अनुभव करते है तब ऐसी सन्तुष्टि केवल कार्य से ही प्राप्त की जा सकती है, वातावरण से नहीं ।
जिसे हर्जबर्ग ने ‘अभिप्रेरक’ (Motivators) अथवा ‘अभिप्रेरक तत्व’ (Motivational Factors) कहा है । ये अभिप्रेरक तत्व मनुष्य की आवश्यकताओं के दूसरे वर्ग में आते है । ये तत्व व्यक्ति को अधिक कुशलता के साथ कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करते है । इन्हें कार्य के आन्तरिक घटक कहा जाता है । ये तत्व कार्य से (Job Contents) से सम्बन्धित होते हैं । उन्हें कार्य-तत्व भी कहा जाता है ।
इसलिए मनुष्यों को असन्तुष्टि से बचाने के लिए ‘स्वास्थ्य तत्वों’ पर तथा अभिप्रेरित करने के लिए ‘अभिप्रेरक तत्वों’ पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है ।
हर्जबर्ग के अनुसार आवश्यकताओं के दोनों वर्गों में निम्नलिखित तत्वों को शामिल किया जाता है:
इस विचारधारा के अनुसार व्यक्ति अनुरक्षण या आरोग्य तत्वों (Maintence of Hygiene Factors) की उपस्थिति को एक आधार मान कर चलते हैं । इन तत्वों की उपस्थिति से अभिप्रेरणा या सकारात्मक सन्तुष्टि नहीं प्राप्त होती है ।
ये तत्व किसी व्यक्ति की कार्यक्षमता, उत्पादकता एवं सन्तुष्टि में वृद्धि नहीं करने बल्कि व्यक्ति में कार्य के प्रति असन्तुष्टि उत्पन्न होने से रोकते है । इस प्रकार ये निवारक उपाय (Preventive Measures) हैं । परन्तु इन तत्वों की अनुपस्थिति के कारण असन्तुष्टि अवश्य पैदा होती है । इसलिए इन तत्वों या घटकों को ‘असन्तुष्टक’ (Dissatisfiers) कहा गया है, अभिप्रेरक नहीं । इन तत्वों को कार्य-सन्दर्भ या बाह्य घटक भी कहा जाता है । इनका सम्बन्ध वातावरण से होता है ।
घटकों या तत्वों के दूसरे वर्ग या समूह में उपलब्धि, मान्यता, उन्नति, विकास तथा स्वयं-कार्य शामिल हैं । इन घटकों को “असन्तुष्टक” (Dissatisfiers) कहा गया है, अभिप्रेरक नहीं कहा गया है । इनकी अनुपस्थिति के कारण कार्य के प्रति असन्तुष्टि तो नहीं होती, लेकिन इनकी उपस्थिति से कर्मचारी अभिप्रेरणा में वृद्धि होती है । ये घटक कार्य सन्तुष्टि को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं ।
इनकी उपस्थिति से व्यक्तियों में कार्य करने की इच्छा जाग्रत होती है । इन घटकों को आन्तरिक (Intrinsic) या कार्य-विषयवस्तु (या कार्य-सन्तुष्टि) घटक भी कहा जाता है इसका सम्बन्ध कार्य के वातावरण से नहीं होता है ।
इस प्रकार हर्जबर्ग ने पहली बार अभिप्रेरणा को प्रभावित करने वाले दो अलग-अलग घटकों की पहचान की । इससे पूर्व लोगों की यह धारणा थी कि अभिप्रेरणा तथा अभिप्रेरणा का अभाव एक जैसे घटकों की उपस्थिति व अनुपस्थिति से सम्बन्धित है ।
यह विचारधारा बतलाती है कि केवल स्वास्थ्य तत्वों पर ही प्रबन्धकों को ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि कार्य को समृद्ध करने (Job Enrichment) की ओर भी ध्यान देना चाहिए ताकि कार्य रुचिकर, अर्थ-पूर्ण, चुनौतीपूर्ण एवं महत्वपूर्ण बन सके तथा व्यक्तियों को अभिप्रेरित कर सके ।
हर्जबर्ग की द्वि-घटक विचारधारा प्रेरणा (Incentive) तथा अभिप्रेरणा में अन्तर करती है । प्रेरणा को बाहरी तत्व माना गया है, जो एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को देता है । परन्तु अभिप्रेरणा एक आन्तरिक तत्व है जो व्यक्ति के भीतर रहता है । वास्तव में प्रेरणा एक बैटरी की तरह है जिसे बार-बार चार्ज करना पड़ता है । किन्तु अभिप्रेरणा शक्ति उत्पन्न करने वाला यन्त्र अर्थात् जेनरेटर (Generator) की तरह है जिसे बाहरी लोगों के सहयोग की जरूरत होती है ।
आलोचनाएँ (Critism):
हर्जबर्ग की द्वि-घटक विचारधारा अपनी सरलता तथा विशिष्टता के कारण बहुत लोकप्रिय रही है तथा इसने प्रबन्धकों को बहुत आकर्षित किया है । इस विचारधारा ने कार्य को समृद्ध करने (Job Enrichment) की धारणा को विकसित किया है । अभिप्रेरणा के इस सिद्धान्त पर आगे और शोध कार्य हुए जिसके कारण इसे उचित समर्थन प्राप्त हुआ परन्तु कुछ विद्वानों ने इसकी काफी आलोचना की है ।
इसकी प्रमुख आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं:
(i) सन्तुष्टि तथा असन्तुष्टि प्रदान करने वाले तत्वों, को अलग-अलग करना सम्भव नहीं है ।
(ii) यह सिद्धान्त अनुरक्षण या आरोग्य तत्व को अभिप्रेरणा का तत्व नहीं मानता है जो उचित नहीं है क्योंकि कुछ मामलों में ये घटक या तत्व भी कर्मचारियों को अभिप्रेरित करते हैं, जबकि कुछ मामलों में अभिप्रेरक तत्व ऐसा करने में पूरी तरहसे अफसल हो सकते हैं ।
(iii) हर्जबर्ग के अनुसार कार्य-सन्तुष्टि तथा उत्पादकता में सम्बन्ध होता है लेकिन वे सिर्फ सन्तुष्टि तथा असन्तुष्टि पर ही प्रकाश डालते हैं सन्तुष्टि तथा उत्पादकता के बीच पाये जाने वाले सम्बन्ध की चर्चा नहीं करते ।
(iv) यह विचारधारा बहुत सीमित आधार पर आधारित है । इसमें उच्च वेतनभोगी वर्ग के केवल 200 इंजीनियरों तथा लेखाकारों को शामिल किया गया है । इतने कम तथा इस तरह के गैर-प्रतिनिधिक प्रतिदर्श (Non-Representative Sample) के आधार पर निकाला गया निष्कर्ष एक सामान्य सिद्धान्त का रूप धारण नहीं कर सकता ।
(v) इसके द्वारा अभिप्रेरणा तथा सन्तुष्टि का सम्बन्ध अत्यन्त सरल बना दिया गया है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है ।
(vi) यह विचारधारा एक निश्चित विधि से काम करने पर ही खरी उतरती है, अन्यथा नहीं ।
(vii) यह विचारधारा आधुनिक घटनाओं को कोई स्थान प्रदान नहीं करती है ।
मास्लो तथा हर्जबर्ग विचारधाराओं की तुलना (Comparison of Maslow and Herzberg Theory):
मास्लो और हर्जबर्ग दोनों ने मानवीय आवश्यकताओं की पहचान की है, उसे वर्गीकृत किया है और अभिप्रेरणा का एक सामान्य सिद्धान्त विकसित किया है मारो और हर्जबर्ग दोनों ही विचारधाराओं (या सिद्धान्तों) के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि इन दोनों में इस बात को स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि लोगों को कौन-सी चीजें अभिप्रेरित करती हैं । रेखाचित्र से स्पष्ट है कि हर्जबर्ग की आवश्यकताएँ मास्लो की आवश्यकता क्रमबद्धता के किसी एक या अन्य वर्ग में आ जाती हैं ।
मास्लो की शारीरिक, सुरक्षात्मक और सामाजिक आवश्यकताओं को हर्जबर्ग ने आरोग्य घटकों की श्रेणी में रखा है, जबकि आत्म-विकास की आवश्यकताओं को हर्जबर्ग ने अभिप्रेरक कहा है । स्वाभिमान की आवश्यकताओं में जहाँ, आत्म-सम्मान, आत्म-विश्वास, स्वायत्तता, प्रतिष्ठ, शक्ति और मान्यता को हर्जबर्ग ने अभिप्रेरकों में शामिल किया है वहीं, प्रस्थिति (Status) और पर्यवेक्षण के तकनीकी पहलू (सक्षमता व ज्ञान) को अनुरक्षण या आरोग्य घटकों में शामिल हैं । इस तरह मास्लो की स्वाभिमान आवश्यकताओं के कुछ भाग अभिप्रेरकों में तथा कुछ भाग आरोग्य घटकों में शामिल हैं । इसे रेखाचित्र में दर्शाया गया है ।
मास्लो और हर्जबर्ग की विचारधाराओं में कुछ प्रमुख भिन्नताएँ भी प्रकट होती हैं:
(i) मास्लो यह सोचते हैं कि आवश्यकताएँ क्रमबद्धता के रूप में व्यवस्थित होती हैं । जब निम्नस्तरीय आवश्यकताएँ पर्याप्त रूप से सन्तुष्ट हो जाती है तभी उच्चस्तरीय आवश्यकताएँ सक्रिय होती हैं, जबकि हर्जबर्ग के अनुसार आवश्यकताओं की ऐसी कोई क्रमबद्धता नहीं होती । सभी आवश्यकताएँ हर समय सक्रिय रहती है ।
(ii) मास्लो का तर्क है कि कोई भी असन्तुष्ट आवश्यकता चाहे वह निम्नस्तरीय हो या उच्चस्तरीय, लोगों को अभिप्रेरित करती है । लेकिन हर्जबर्ग का कहना है कि सिर्फ कार्य-सन्तुष्टि आवश्यकताएँ, जैसे: विकास, संवृद्धि उपलब्धि मान्यता आदि ही लोगों को अभिप्रेरित करती हैं । कार्य-सन्दर्भ आवश्यकताओं-सगठनात्मक नीतियों, वेतन, स्थिति, कार्य की दशाओं आदि से लोगों को अभिप्रेरणा नहीं मिलती ।
इनसे अभिप्रेरित करने वाली आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए वातावरण का निर्माण होता है निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि मास्लो की विचारधारा हर्जबर्ग की तुलना में अधिक व्यावहारिक और सार्वभौमिक है । इसे निम्नस्तरीय कर्मचारियों और उच्चस्तरीय प्रबन्धकों सभी पर लागू किया जा सकता है । आर्थिक व सामाजिक रूप से अविकसित समाज के लोगों के सन्दर्भ में भी मास्लो का सिद्धान्त उपयोगी है । चूकि इन समाजों में लोगों की निम्नस्तरीय आवश्यकताएँ पर्याप्त रूप से सन्तुष्ट नहीं होती इसलिये ये आवश्यकताएं उन्हें अभिप्रेरित करती है ।
(3) मेकग्रेगर का X तथा Y सिद्धान्त (McGregore’s X and y Theory):
इस विचारधारा का प्रतिपादन अमेरिका के व्यवहारवादी प्रोफेसर डगलग मेकग्रेगर ने किया । उन्होंने मानवीय प्रकृति तथा व्यवहार के सम्बन्ध में दो विरोधी अवधारणाओं को समझने के लिए सिद्धान्त ‘एक्स’ तथा सिद्धान्त ‘वाई’ का प्रयोग किया है ।
मेकग्रेगर के अनुसार प्रबन्धकों का प्रत्येक निर्णय अथवा कार्य प्रत्यक्ष रूप से इस बात से प्रभावित होता है कि मनुष्य की प्रकृति तथा व्यवहार के बारे में उनकी अपनी मान्यताएं क्या हैं । मेकग्रेगर ने इन्हीं मान्यताओं को सिद्धान्त ‘एक्स’ तथा सिद्धान्त ‘वाई’ के रूप में प्रस्तुत किया है । उनके अनुसार ‘एक्स’ विचारधारा प्रबन्ध के परम्परागत दर्शन (Traditional Philosophy) को स्पष्ट करती है तथा ‘वाई’ विचारधारा आधुनिक तथा मानवीय दर्शन का वर्णन करती है ।
सिद्धान्त ‘एक्स’ (Theory X):
इस सिद्धान्त की मान्यताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) एक औसत व्यक्ति आलसी एवं आराम पसन्द होता है ।
(ii) एक व्यक्ति की कार्य के प्रति स्वाभाविक अरुचि होती है और वह कार्य से बचना चाहता है ।
(iii) वह उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहता ।
(iv) वह महत्वाकांक्षी नहीं होता ।
(v) वह संगठन के उद्देश्यों के प्रति उदासीन होता है ।
(vi) वह सुरक्षा को सबसे अधिक महत्व देता है ।
(vii) उसमें सृजनशीलता का अभाव पाया जाना है ।
(viii) उसमें परिवर्तन का विरोध करने की प्रवृत्ति पाई जाती है ।
(ix) उससे काम लेने के लिए प्रबन्धक उस पर दबाव डालते हैं, भय दिखाते हैं, उसे निर्देशित करते हैं तथा कठोर नियन्त्रण के तरीकों को अपनाते हैं ।
उपरोक्त मान्यताओं के आधार सिद्धान्त ‘एक्स’ के अनुसार ऐसे लोगों से कार्य करवाने तथा संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सारी जिम्मेदारी प्रबन्धक को अपने पर लेनी चाहिए । इसके लिए कर्मचारियों से कार्य करवाने के लिए उन्हें निर्देशित व नियन्त्रित करना उनके साथ सख्ती बरतना उचित प्रतिफल व दण्ड की व्यवस्था करना और उनकी भूमिकाओं व उत्तरदायित्वों को स्पष्ट रूप से निर्धारित करना आवश्यक हो जाता है ।
अन्त में, सार के रूप में यह कहा जा सकता है कि वर्तमान परिस्थितियों में यह सिद्धान्त उपयोगी नहीं है । यह निराशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है तथा श्रमिकों का पुर्जा मात्र मानता है इसमें मानव मूल्यों का अभाव होता है । श्रमिकों का कलेर नियन्त्रण व पर्यवेक्षण किया जाता है । अतएव यह एक ऋणात्मक अभिप्रेरणा है । इसलिए श्रमिकों से कार्य करवाने के लिए सिद्धान्त ‘वाई’ को अपनाना चाहिए ।
सिद्धान्त-वाई (Theory-Y) इस सिद्धान्त की मान्यताएं इस प्रकार हैं:
(i) कार्य करना उतना ही स्वाभाविक है जितना कि खेल का विश्राम अथवा भूख ।
(ii) औसत कर्मचारी मिलनसार तथा समझदार होते हैं, काम करना पसन्द करते है । वे उत्तरदायित्व को निभाने में सक्ष्म होते है । लोग चतुर कल्पनाशील तथा सजनात्मक होते हैं परन्तु आधुनिक जीवन की व्यवस्थाओं के कारण इन क्षमताओं का पूरा-पूरा उपयोग नहीं कर पाते ।
(iii) वे उचित वातावरण में उत्तरदायित्व को स्वीकार करते हैं वे महत्वाकांक्षी होते हैं ।
(iv) वे स्व-नियन्त्रण तथा स्व-निर्देशन द्वारा कार्य करना चाहते हैं ।
(v) वे चुनौतीपूर्ण कार्यों एवं परिवर्तन का स्वागत करते हैं ।
मान्यताओं का आधार सिद्धान्त: ‘वाई’ यह स्पष्ट करता है कि यह प्रबन्ध की जिम्मेदारी है कि वह इस तरह से संगठन वातावरण का निर्माण करें ताकि लोग अपनी क्षमता व योग्यता का अधिक-से-अधिक उपयोग कर सकेंत था व्यक्तिगत आवश्यकताओं के साथ-साथ संगठन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में योगदान दे सकें ।
उपर्युक्त वर्णित सिद्धान्त- ‘वाई’ वर्तमान परिस्थितियों में सबसे अधिक क्रियाशील एवं लोकप्रिय सिद्धान्त है जो हमारे सामने आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है इससे श्रम तथा प्रबन्ध दोनों को सन्तुष्टि है । अतएव यह एक सकारात्मक अभिप्रेरणा है ।
आलोचनाएँ (Criticisms):
इस सिद्धान्त की मुख्य आलोचनाएँ इस प्रकार हैं:
(i) मेकग्रेगर के सिद्धान्त किसी शोध पर आधारित नहीं हैं । ये केवल कुछ मान्यताओं पर आधारित हैं ।
(ii) कुछ आलोचक इसे अभिप्रेरणा की विचारधारा न मानकर से मानव-स्वभाव को समझने की विचारधारा मानते है ।
(iii) मेकग्रेगर ने शारीरिक श्रम करने वाले और मानसिक श्रम करने वाले लोगों के बीच कोई अन्तर नहीं किया है जबकि सिद्धान्त ‘वाई’ प्रबुद्ध कर्मचारियों के लिए अधिक प्रासंगिक है । इसका उल्लेख इन सिद्धान्तों में नहीं मिलता ।
अन्त में हम यह कह सकते हैं कि मेकग्रेगर के सिद्धान्त के सम्बन्ध में हमें यह नहीं मान लेना चाहिये कि सिद्धान्त ‘एक्स’ बुरा है और सिद्धान्त ‘वाई’ अच्छा है । सिद्धान्त ‘वाई’ को मानने का अर्थ यह मानना नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति परिपक्व है, स्वनिर्देशित है । इसके बजाय इसका यह आशय है कि अधिकांश लोगों में स्व-अभिप्रेरणा और परिपक्वता की सम्भावना पाई जाती है ।
वास्तव में सिद्धान्त ‘एक्स’ और सिद्धान्त ‘वाई’ लोगों के प्रति धारणाएँ हैं यद्यपि किसी प्रबन्धक के लिए बेहतर धारणा सिद्धान्त ‘वाई’ है, तथापि वह सदैव इसके अनुरूप ही व्यवहार करें यह उचित नहीं होगा । मानवीय प्रकृति के बारे में सिद्धान्त ‘वाई’ की मान्यताओं को मानते हुए भी यह सम्भव है प्रबन्धक कुछ समय के लिए कुछ लोगों के साथ आवश्यकतानुसार अत्यन्त निर्देशात्मक और नियन्त्रात्मक तरीके से पेश आए ।
मास्लो हर्जबर्ग तथा मेकग्रेगर की विचारधाराओं में सम्बन्ध (Relationship Between Motivational Theories of Maslow, Herzberz and Mcgregor):
मास्लो, हर्जबर्ग तथा मेकग्रेगर की अभिप्रेरणा की विचारधाराओं के बीच पाये जाने वाले सम्बन्ध को अग्रलिखित तालिका द्वारा समझाया गया है:
उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि तीनों विचारधाराएँ एक-सी हैं । मास्लो की उच्च स्तरीय आवश्यकता हर्जबर्ग के अभिप्रेरक तत्वों के समान हैं । मेकग्रेगर इन्हें वाई सिद्धान्त के अन्तर्गत दिखाता है । ठीक इसी प्रकार मारो की निम्नस्तरीय आवश्यकताएँ तथा हर्जबर्ग के अनुरक्षक या स्वास्थ्य तत्व लगभग एक जैसे हैं । मेकग्रेगर ने इसी बात को सिद्धान्त: ‘एक्स’ के अन्तर्गत प्रस्तुत किया है ।
(4) विलियम आउची की ‘जेड’ विचारधारा (William Ouchy’s Z. Theory):
जेड विचारधारा जापानी उद्योगों के प्रबन्धकीय दर्शन व दृष्टिकोण पर आधारित है । प्रो. विलियम आउची (William Ouchi) ने जापानी उद्योगों की प्रबन्ध विशिष्टताओं एवं कार्य-शैली के आधार पर जेड़ विचारधारा का प्रतिपादन किया है ।
यह दृष्टिकोण मेकग्रेगर की “वाई” विचारधारा से कुछ कदम आगे है “श्क्त” विचारधारा पूर्ण रूप से मानवीय व्यवहार के बाह्य नियन्त्रण पर आधारित है तथा चार्द विचारधारा मुख्य रूप से स्व-नियन्त्रण एवं निर्देशन पर बल देती है, जबकि मेकग्रेगर विचारधारा उद्योगों में दलीय भावना एवं समझौते पर बल देती है ।
यह विचारधारा प्रबन्ध के संगठनात्मक तथा व्यवहारवादी पहलू को महत्व देती है ।
प्रो. आउची के अनुसार जेड़ विचारधारा” की तीन मुख्य विशेषताएँ है:
(i) भरोसा (Trust):
प्रो. आउची के अनुसार- “उत्पादकता एवं भरोसा साथ-साथ चलते है” (Productivity and Trust Go Hand-In-Hand) । प्रबन्धकों तथा श्रमिकों के बीच अविश्वास से कार्य का वातावरण दूषित हो जाता है । अत: दोनों वर्गों के बीच विश्वास की भावना बनी रहनी चाहिए ।
(ii) कुशाग्रता (Subtly):
“जेड” विचारधारा की यह मान्यता है कि व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध अत्यन्त जटिल तथा परिवर्तनशील होते हैं परन्तु प्रबन्धकों में उनकी सूक्ष्मता, गूढ़ता तथा दुर्बोधता को समझ सकने की योग्यता होनी चाहिए । एक फोरमैन को अपने श्रमिकों के व्यक्तित्व तथा कौशल के बारे में अच्छा ज्ञान होता है । वह जानता है कि कौन-सा श्रमिक किसके साथ तथा किस समूह में प्रभावशाली ढंग से कार्य कर सकता है ।
(iii) आत्मीयता (Intimacy):
श्रमिकों तथा प्रबन्धकों के बीच आत्मीयता, सहयोग, घनिष्ठता तथा अनुशासित नि:स्वार्थता (Disciplined Unselfishness) होनी चाहिए । इससे उत्पादकता में वृद्धि सम्भव होती है । कार्यस्थल पर भी वैयक्तिक भावनाओं का महत्व बना रहना चाहिए । सम्बन्धों के बिना व्यक्ति ‘कूड़े-कर्कट के ढेर’ से ज्यादा नहीं है ।
“जैडै” विचारधारा का दर्शन/सिद्धान्त/तत्व (Philosophy, Principle or Components of Z-Theory):
प्रो. आउची की “जैड” विचारधारा के दर्शन, सिद्धान्तों तथा तत्वों को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है:
(i) सांस्कृतिक ढाँचा (Cultural Frame-Work):
प्रो. आउची ने अपने अध्ययनों से ज्ञात किया कि जापानी संगठन एक विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक ढाँचे में काम करते हैं । यही संस्कृति परिवेश कम्पनियों को एक ऐसे दर्शन एवं मूल्यों को अपनाने के लिए प्रेरित करता है जिनकी सत्ता का आधार नैतिक तथा वैधानिक होता है । इसी आधार पर कर्मचारी कम्पनी की सत्ता को स्वीकारते हैं तथा मानते हैं ।
सत्ता के इस नैतिक आधार के कारण ही उपक्रम तथा उसके कर्मचारी एक परिवार, समुदाय एवं वंश में बदल जाते हैं । इस पारिवारिक वातावरण के कारण कम्पनी की नीतियों एवं योजनाओं में परिवर्तन आ जाता है । यह सत्ता श्रम-प्रबन्ध के पारस्परिक विश्वास घनिष्ठता, प्रेरणा सहभागिता, सहयोग तथा सन्तुष्टि पर आधारित होती है । परिणामस्वरूप उत्पादकता में तेजी गति से वृद्धि होती है ।
(ii) मानवीय सम्बन्धों पर ध्यान (Attention to Human Relations):
प्रो. आउची के अनुसार आज उत्पादकता सभी संगठनों के लिए एक महत्वपूर्ण समस्या बन गई है । अमेरिकन प्रबन्धक इस समस्या का समाधान टेकनोलोजी के द्वारा सम्भव मानते है । परन्तु ‘जेड’ विचारधारा इस समस्या का समाधान श्रेष्ठ मानवीय सम्बन्धों तथा आपसी विश्वास में खोजती है । इसलिए प्रो. आउची ने मानवीय सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने के लिए तीन आवश्यक बातें बताई हैं:
(a) विश्वास;
(b) व्यवहार कुशाग्रता;
(c) आत्मीयता ।
(iii) जीवन-पर्यन्त रोजगार (Life Time Employment):
पश्चिमी देशों के व्यावसायिक संगठकें-में श्रमिकों की अल्पकालीन नियुक्तियाँ की जाती हैं । मन्दी काल में इनकी छँटनी कर दी जाती है तथा कल्याणकारी सुविधाओं का अभाव होता है । इन देशों में रोजगार अल्पकालीन होता है ।
परन्तु इसके विपरीत जापानी संगठनों में जीवन-पर्यन्त रोजगार की व्यवस्था होती है । कोई भी जापानी व्यक्ति नियुक्त होते ही उस संगठन का एक अटूट हिस्सा: संगठन व्यक्ति (Organisation Man) बन जाता है जिस प्रकार किसी परिवार में जन्म लेते ही शिशु उसी परिवार का अंग बन जाता है, उसी प्रकार वह व्यक्ति संगठन में आते ही संस्था के सभी अधिकारी व दायित्वों से जुड़ जाता है अर्थात् कर्मचारी तथा संस्था के बीच पूर्ण आसक्ति, अपक्त तथा सदस्यता की भावना उत्पन्न हो जाती है ।
इसलिए मन्दीकाल में श्रमिकों की छँटनी नहीं की जाती है; केवल परिस्थितियाँ सुधरने तक उनकी वेतन वृद्धियों पर रोक लगा दी जाती है । इस प्रकार “जैड” विचारधारा संगठनों में शक्तिशाली अनुरक्ति (Powerful Attachment), सहभागी अनुभव (Shared Experience) तथा सामूहिक कार्यनीति (Collective Work Etrics) को प्रोत्साहन देती है । परिवार की तरह इसमें भी एक अयोग्य कर्मचारी की पूर्ण देखभाल हो जाती है ।
(iv) धीमा मूल्यांकन तथा पदोन्नति (Slow Evaluation and Promotion):
जापानी उद्योगों में कर्मचारियों का मूल्याँकन कभी-कभार किया जाता है तथा पदोन्नति की प्रणाली धीमी है । जापानी प्रबन्धक कर्मचारियों को कार्य की जटिलताओं तथा तकनीकी पहलुओं को समझने तथा कार्य परिस्थितियों के साथ समायोजित होने का पूरा अवसर प्रदान करते है । कार्य के सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलू के बारे में उन्हें जानकारी तथा प्रशिक्षण दिया जाता है । उनके कार्य ज्ञान को व्यावहारिक परिस्थितियों से जोड़ा जाता है । यह विचारधारा पदोन्नति को चिरकालिक रखने पर जोर देती है ताकि कर्मचारी के पहलपन (Initiative), प्रेरणा तथा मनोबल को ऊँचा रखा जा सके ।
(v) अविशिष्टीकृत केरियर बिन्दु (Non-Specialised Career Paths):
जेड विचारधारा कर्मचारियों के ज्ञान को विशिष्टीकृत करने की बजाय विविध तथा व्यापक बनाने पर बल देती है । जापानी उद्योगों में कर्मचारियों को विभिन्न पदों तथा कार्य-स्थितियों में रखा जाता है तथा उन्हें विभिन्न कार्यों में स्थानान्तरित किया जाता है ।
ऐसा करने से कर्मचारियों के कार्य-कौशल में वृद्धि होती है तथा उनके मनोबल पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है साथ ही कर्मचारियों को संगठन तथा कार्य-परिवर्तन करने की भी सुविधा बनी रहती है । कार्य के विभिन्न पहलुओं का अनुभव होने के कारण कर्मचारी तकनीकी जटिलताओं को आसानी से समझ सकते हैं । इस प्रकार “जैड” विचारधारा कर्मचारियों के विस्तृत ज्ञान एवं अनुभव को प्रोत्साहित करके उनके कार्य स्वतन्त्रता को बढ़ाती है ।
(vi) अन्तर्निहित नियन्त्रण तकनीक (Implicit Control Mechanism):
प्रो. आउची के अनुसार जापानी नियन्त्रण करने की तकनीक अन्तर्निहित तथा अनौपचारिक होती है । इसके विपरीत अमेरिकी नियन्त्रण तकनीक औपचारिक तथा स्पष्ट होती है जापानी प्रबन्ध दर्शन कर्मचारियों का नियन्त्रण अनौपचारिक मापदण्डों के आधार पर करने की वकालत करता है ।
इस प्रकार ‘जेड’ विचारधारा में नियन्त्रण तकनीक कार्य-व्यवस्था का एक अभिन्न अंग होती है । इस तकनीक द्वारा त्रुटियों का पूर्वानुमान लगाना सम्भव होता है तथा उन्हें रोका भी जा सकता है । अमेरिकन नियन्त्रण तकनीक सुधारात्मक (Corrective) होती है, लेकिन अन्तर्निहित नियन्त्रण तकनीक पूर्वाभासी (Anticipatory) प्रकृति की होती है तथा नियन्त्रण को कार्य-संस्कृति (Work Culture) एवं कार्य-शैली से जोड़ती है ।
(vii) निर्णयन-सहभागिता तथा सर्वसम्मति के आधार पर (Decision-Making through Participation and Consensus):
“जैड” विचारधारा के अनुसार भी छोटे-बड़े निर्णय सहभागिता के आधार पर किए जाते हैं तथा सर्वसम्मति से लिए जाते हैं । किसी समस्या पर निर्णय लेने से पूर्व उस पूर्ण रूप से सभी स्तरों पर विचारविमर्श किया जाता है । इस प्रकार लिए निर्णयों को लागू करना आसान हो जाता है ।
(viii) सामूहिक उत्तरदायित्व (Collective Responsibility):
अमेरिकन फर्मों में कर्मचारियों का व्यक्तिगत उत्तरदायित्व निर्धारित किया जाता है परन्तु जेड विचारधारा के अन्तर्गत संगठन में होने वाली हानि अथवा दायित्वों के लिए सभी कर्मचारी जिम्मेदार होते हैं । सामूहिक दायित्व कर्मचारियों में नेतिकता समूह भावना तथा आपसी विश्वास पैदा करता है ।
(ix) सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर ध्यान (Wholistic Concern):
“जैड” विचारधारा कर्मचारियों के व्यक्तित्व को सम्पूर्ण दृष्टि से देखती है । यह कर्मचारियों के व्यक्तित्व का पूरा सम्मान करती है यह विचारधारा कर्मचारियों की सम्पूर्ण समृद्धि से जुड़ी हुई है । इस विचारधारा के अनुसार मानवीय कार्य की दशाएँ, संगठन में उत्पादकता तथा लाभों में वृद्धि ही नहीं करती, बल्कि कर्मचारियों का आत्म-सम्मान भी करती है ।
सार रूप में, विलिमय आउची द्वारा प्रतिपादित जेड विचारधारा सहभागी प्रबन्ध तथा सर्वसम्मत निर्णयन के प्रयोग पर बल देती है । लिकर्ट की पद्धति प्रबन्ध व्यवस्था (चार सिस्टम) भी इसी तथ्य को उजागर करती है । प्रो. आउची के अनुसार जापान की प्रबन्ध प्रणाली में उनकी सामाजिक परम्पराओं धार्मिक पद्धतियों तथा सांस्कृतिक मूल्यों का पूर्ण समावेश होता है । जापानी प्रबन्ध तकनीकों की लोकप्रियता के बावजूद भी आज विश्व के अधिकांश राष्ट्र प्रबन्ध ज्ञान के लिए अमेरिकी प्रबन्ध को अधिक प्राथमिकता देते हैं ।